
हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की बहन जनाबे ज़ैनब व जनाबे
कुलसूम के मुख़्तसर हालात विलादत, वफ़ात और मदफ़न जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम हज़रत रसूले ख़ुदा ( स.व.व.अ.) और जनाबे ख़दीजतुल कुबरा ( स.व.व.अ.) की नवासीयां, हज़रत अबू तालिब (अ.स.) व फ़ात्मा बिन्ते असद (स.व.व.अ.) की पोतियां हज़रत अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.व.व.अ.) की बेटियां इमाम हसन (अ. स.) व इमाम हुसैन (अ.स.) की हकीकी और हज़रत अब्बास (अ.स.) व जनाबे मोहम्मदे हनफ़िया की अलाती बहनें थीं। इस सिलसिले के पेशे नज़र जिसकी बालाई सतह में हज़रत हमज़ा, हज़रत जाफ़रे तैय्यार, हज़रत अब्दुल मुत्तलिब और हज़रत हाशिम भी हैं। इन दोनों बहनों की अज़मत बहुत नुमाया हो जाती है।
यह वाक़ेया है कि जिस तरह इनके आबाओ अजदाद, माँ बाप और भाई बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं इसी तरह यह दो बहने भी बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं। ख़ुदा इन्हें जिन ख़ानदानी सेफ़ात से नवाज़ा है इसका मुक़तज़ा यह है कि मैं यह कहूं कि जिस तरह अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा ( स.व.व.अ.) के फ़रज़न्द ला जवाब हैं इसी तरह इनकी दुख़्तरान ला जवाब हैं, बेशक जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम मासूम न थीं लेकिन इनके महफ़ूज़ होने में कोई शुब्हा नहीं जो मासूम के
मुतरादिफ़ है। हम ज़ैल में दोनों बहनों का मुख़्तसर अलफ़ाज़ में अलग अलग ज़िक्र करते हैं।
हज़रत ज़ैनब की विलादत
66 मुर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब बिन्ते अमीरल मोमेनीन (अ. स.) 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में पैदा हुईं जैसा कि ज़ैनब अख़त अल हुसैन ” अल्लामा मोहम्मद हुसैन अदीब नजफ़े अशरफ़ पृष्ठ 14 ” बतालता करबला डा0 बिन्ते अशाती अन्दलसी पृष्ठ 27 प्रकाशित बैरूत ” ” सिलसिलातुल ज़हब पृष्ठ 19 व किताबुल बहरे मसाएब और ख़साएसे ज़ैनबिया इब्ने मोहम्मद जाफ़र अल जज़ारी से ज़ाहिर है। मिस्टर ऐजाजुर्रहमान एम० ए० लाहौर ने किताब ” जैनब ” के पृष्ठ 7 पर 5 हिजरी लिखा है जो मेरे नज़दीक सही नहीं। एक रवायत में माहे रजब व शाबान एक में माहे रमज़ान का हवाला भी मिलता है। अल्लामा महमूदुल हुसैन अदीब की इबारत का मतन यह है। ” फ़क़द वलदत अक़ीलह ज़ैनब फ़िल आम अल सादस लिल हिजरत अला माअ तफ़क़ा अलमोरेखून अलैह ज़ालेका यौमल ख़ामस मिन शहरे जमादिल अव्वल अलख हज़रत ज़ैनब (स.व.व.अ.) जमादील अव्वल 6 हिजरी में पैदा हुईं। इस पर मुर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। मेरे नज़दीक यही सही है। यही कुछ अल वक़ाएक़ व अल हवादिस जिल्द 1 पृष्ठ 113 प्रकाशित कुम 1341 ई0 में भी है। “
हज़रत ज़ैनब की विलादत पर हज़रत रसूले करीम ( स.व.व.अ.) का ताअस्सुर वक्ते विलादत के मुताअल्लिक़ जनाबे आक़ाई सय्यद नूरूद्दीन बिन आक़ाई सय्यद मोहम्मद जाफ़र अल जज़ाएरी ख़साएस ज़ैनबिया में तहरीर फ़रमाते हैं कि जब हज़रत ज़ैनब (स.व.व.अ.) मुतावल्लिद हुईं और उसकी ख़बर हज़रत रसूले करीम (स.व.व.अ.) को पहुँची तो हुज़ूर जनाबे फ़ात्मा ज़हरा ( स.व.व.अ.) के घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि ऐ मेरी राहते जान, बच्ची को मेरे पास लाओ, जब बच्ची रसूल (स.व.व.अ.) की खिदमत में लाई गई तो आपने उसे सीने से लगाया और उसके रूख़सार पर रूख़सार रख कर बे पनाह गिरया किया यहां तक की आपकी रीशे मुबारक आंसुओं से तर हो गई। जनाबे सय्यदा ने अर्ज़ कि बाबा जान आपको ख़ुदा कभी न रूलाए, आप क्यों रो पड़े इरशाद हुआ कि ऐ जाने पदर, मेरी यह बच्ची तेरे बाद मुताअद्दि तकलीफ़ों और मुख़्तलिफ़ मसाएब में मुबतिला होगी। जनाबे सय्यदा यह सुन कर बे इख़्तियार गिरया करने लगीं और उन्होंने पूछा कि इसके मसाएब पर गिरया करने का क्या सवाब होगा ? फ़रमाया वही सवाब होगा जो मेरे बेटे हुसैन के मसाएब के मुतासिर होने वाले का होगा इसके बाद आपने इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखा । (इमाम मुबीन पृष्ठ 164 प्रकाशित लाहौर) बरवाएते ज़ैनब इबरानी लफ़्ज़ है जिसके मानी बहुत ज़्यादा रोने वाली हैं। एक रवायत में है कि यह लफ़्ज़ जैन और अब से मुरक्कब है। यानी बाप की ज़ीनत फिर कसरते
इस्तेमाल से ज़ैनब हो गया। एक रवायत में है कि आं हज़रत ( स.व.व.अ.) ने यह नाम ब हुक्मे रब्बे जलील रखा था जो ब ज़रिए जिब्राईल पहुँचा था ।
विलादते ज़ैनब पर अली बिन अबी तालिब (अ.स.) का ताअस्सुर
डा0 बिन्तुल शातमी अन्दलिसी अपनी किताब “ बतलतै करबला ज़ैनब बिन्ते अल ” ज़हरा प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 29 पर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत ज़ैनब की विलादत पर जब जनाबे सलमाने फ़ारसी ने असद उल्लाह हज़रत अली (अ.स.) को मुबारक बाद दी तो आप रोने लगे और आपने उन हालात व मसाएब का तज़किरा फ़रमाया जिनसे जनाबे जैनब बाद में दो चार होने वाली थीं।
हज़रत ज़ैनब की वफ़ात
मुर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब ( स.व.व.अ.) जब बचपन जवानी और बुढ़ापे की मंज़िल तय करने और वाक़े करबला के मराहिल से गुज़रने के बाद क़ैद ख़ाना ए शाम से छुट कर मदीने पहुँची तो आपने वाक़ेयाते करबला से अहले मदीना को आगाह किया और रोने पीटने, नौहा व मातम को अपना शग़ले ज़िन्दगी बना लिया। जिससे हुकूमत को शदीद ख़तरा ला हक़ हो गया। जिसके नतीजे में वाकिये हर्रा ” अमल में आया। बिल आखिर आले मोहम्मद ( स.व.व.अ.) को 66 मदीने से निकाल दिया गया।
अबदुल्लाह वालीए मदीना अल मतूफ़ी 277 अपनी किताब अख़बारूल ज़ैनबिया में लिखता है कि जनाबे ज़ैनब मदीने में अकसर मजलिसे अज़ा बरपा करती थीं और ख़ुद ही ज़ाकरी फ़रमाती थीं। उस वक़्त के हुक्कामे को रोना रुलाना गवारा न था कि वाक़िये करबला खुल्लम खुल्ला तौर पर बयान किया जाय । चुनान्चे उरवा बिन सईद अशदक़ वाली ए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि मदीने में जनाबे ज़ैनब की मौजूदगी लोगों में हैजान पैदा कर रही है। उन्होंने और उनके साथियों ने तुझ से ख़ूने हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम की ठान ली है। यज़ीद ने इत्तेला पा कर फ़ौरन वाली ए मदीना को लिखा कि ज़ैनब और उनके साथियों को मुन्तशर कर दे और उनको मुख़्तलिफ़ मुल्कों में भेज दे। (हयात अल ज़हरा )
८८ 66 डा0 बिन्ते शातमी अंदलसी अपनी किताब बतलतए करबला ज़ैनब बिन्ते ज़हरा ” प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 152 में लिखती हैं कि हज़रत ज़ैनब वाक़िये करबला के बाद मदीने पहुँच कर यह चाहती थीं कि ज़िन्दगी के सारे बाक़ी दिन यहीं गुज़ारें लेकिन वह जो मसाएबे करबला बयान करती थीं वह बे इन्तेहा मोअस्सिर साबित हुआ और मदीने के बाशिन्दों पर इसका बेहद असर हुआ। फ़क़तब वलैहुम बिल मदीनता इला यज़ीद अन वुजूद हाबैन अहलिल मदीनता महीज अल ख़वातिर ” इन हालात से मुताअस्सिर हो कर वालीए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि जनाबे ज़ैनब का मदीने में रहना हैजान पैदा कर रहा है। उनकी तक़रीरों से अहले मदीना में बग़ावत पैदा हो जाने का अन्देशा है। यज़ीद को जब
वालीए मदीना का ख़त मिला तो उसने हुक्म दिया कि इन सब को मुमालिको अम्सार में मुन्तशिर कर दिया जाय। इसके हुक्म आने के बाद वालीए मदीना ने हज़रते ज़ैनब से कहला भेजा कि आप जहां मुनासिब समझें यहां से चली जायें। 66 यह सुनना था कि हज़रते ज़ैनब को जलाल आ गया और कहा कि वल्लाह ला ” ख़रजन व अन अर यक़त दमायना ख़ुदा की क़सम हम हरगिज़ यहां से न जायेंगे चाहे हमारे ख़ून बहा दिये जायें। यह हाल देख कर ज़ैनब बिन्ते अक़ील बिन अबी तालिब ने अर्ज़ कि ऐ मेरी बहन गुस्से से काम लेने का वक़्त नहीं है बेहतर यही है कि हम किसी और शहर में चले जायें। फ़रहत ज़ैनब मन मदीनतः ८८ ” जहा अल रसूल सुम्मा लम हल मदीना बादे ज़ालेका इबादन फिर हज़रत ज़ैनब ” मदीना ए रसूल से निकल कर चली गईं। उसके बाद से फिर मदीने की शक्ल न देखी। वह वहां से निकल कर मिस्र पहुँची लेकिन वहां ज़ियादा दिन ठहर न सकीं। ” हकज़ा मुन्तकलेतः मन बलदाली बलद ला यतमईन बहा अल्ल अर्ज़ मकान इसी तरह वह ग़ैर मुतमईन हालात में परेशान शहर बा शहर फिरती रहीं और किसी एक जगह मकान में सुकूनत इख़्तेयार न कर सकीं। अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी लिखते हैं व क़ज़त अल अक़ीलता ज़ैनब ” हयातहाबाद अख़यहा मुन्तक़लेत मन मल्दाली बलद तकस अलन्नास हना व हनाक ” ज़ुल्म हाज़ा अल इन्सान इला रखया अल इन्सान कि हज़रत ज़ैनब अपने भाई की शहादत के बाद सुकून से न रह सकीं वह एक शहर से दूसरे शहर में सर गरदां
फिरती रहीं और हर जगह ज़ुल्मे यज़ीद को बयान करती रहीं और हक़ व बातिल की वज़ाहत फ़रमाती रहीं और शहादते हुसैन (अ.स.) पर तफ़सीली रौशनी डालती रहीं। (ज़ैनब अख्तल हुसैन पृष्ठ 44 ) यहां तक कि आप शाम पहुँची और वहां क़याम किया क्यों कि बा रवायते आपके शौहर अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार की वहां जायदाद थी वहीं आपका इन्तेक़ाल ब रवायते अख़बारूल ज़ैनबिया व हयात अल ज़हरा रोज़े शम्बा इतवार की रात 14 रजब 62 हिजरी को हो गया। यही कुछ किताब बतलतए करबला के पृष्ठ 155 में है। बा रवाएते खसाएसे ज़ैनबिया ” ” क़ैदे शाम से रिहाई के चार महीने बाद उम्मे कुलसूम का इन्तेक़ाल हुआ और उसके दो महीने बीस दिन बाद हज़रते ज़ैनब की वफ़ात हुई। उस वक़्त आपकी उम्र 55 साल की थी। आपकी वफ़ात या शहादत के मुताअल्लिक़ मशहूर है कि एक दिन आप उस बाग़ में तशरीफ़ ले गईं जिसके एक दरख़्त में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का सर टांगा गया था। इस बाग़ को देख कर आप बेचैन हो गईं। हज़रत जुहूर जारज पूरी मुक़ीम लाहौर लिखते हैं।
करवां शाम की सरहद में जो पहुँचा सरे शाम
मुत्तसिल शहर से था बाग़, किया उसमें क़याम
देख कर बाग़ को, रोने लगी हमशीरे इमाम
वाकेया पहली असीरी का जो याद आया तमाम
हाल तग़ईर हुआ, फ़ात्मा की जाई का
शाम में लटका हुआ देखा था सर भाई का
बिन्ते हैदर गई, रोती हुई नज़दीके शजर
हाथ उठा कर यह कहा, ऐ शजरे बर आवर
तेरा एहसान है, यह बिन्ते अली के सर पर
तेरी शाख़ों से बंधा था, मेरे माजाये का सर
ऐ शजर तुझको ख़बर है कि वह किस का था
मालिके बाग़ जिनां, ताजे सरे तूबा था
रो रही थी यह बयां कर के जो वह दुख पाई
बाबा बाग़ में था. एक शकी ए अज़ली ‘
बेलचा लेके चला, दुश्मने औलादे नबी
सर पे इस ज़ोर से मारा, ज़मीं कांप गई
सर के टुकड़े हुए रोई न पुकारी ज़ैनब
ख़ाक पर गिर के सुए खुल्द सिधारीं ज़ैनब
हज़रत ज़ैनब का मदफ़न
अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं। ” क़द अख़तलफ़ अल मुरखून फ़ी महल व फ़नहा बैनल मदीनता वश शाम व मिस्र व अली बेमा यग़लब अन तन वल तहक़ीक़ अलैहा अन्नहा मदफ़नता फ़िश शाम व
” ” मरक़दहा मज़ार अला लौफ़ मिनल मुसलमीन फ़ी कुल आम मुर्रेख़ीन उनके मदफ़न यानी दफ़्न की जगह में इख़्तेलाफ़ किया है कि आया मदीना है या शाम या मिस्र लेकिन तहक़ीक़ यह है कि वह शाम में दफ़्न हुई हैं और उनके मरक़दे अक़दस और मज़ारे मुक़द्दस की हज़ारों मुसलमान अक़ीदत मन्द हर साल ज़्यारत किया करते हैं। ( ज़ैनब अख़्तल हुसैन पृष्ठ 50 नबा नजफ़े अशरफ़ ) यही कुछ मोहम्मद अब्बास एम० ए० जोआईट एडीटर पीसा अख़बार ने अपनी किताब मशहरे निसवां ” प्रकाशित लाहौर 1902 ई0 के पृष्ठ 621 मे और मिया एजाजुल रहमान ” 66 ” एम0ए0 ने अपनी किताब ज़ैनब रज़ी अल्लाह अन्हा ” के पृष्ठ 81 प्रकाशित लाहौर 1958 ई0 में लिखा है।
शाम में जहां जनाबे ज़ैनब का मज़ारे मुक़द्दस है उसे “ ज़ैनबिया ” कहते हैं। नाचीज़ को शरफ़े ज़ियारत 1966 ई0 में नसीब हुआ ।
हज़रत उम्मे कुलसूम की विलादत, वफ़ात और उनका मदफ़न तारीख़ के औराक़ शाहीद हैं कि हज़रते उम्मे कुलसूम अपनी बहन हज़रते ज़ैनब के कारनामों में बराबर की शरीक थीं। वह तारीख़ में अपनी बहन के दोश ब दोश नज़र आती हैं वह मदीने की ज़िन्दगी, करबला के वाकेयात, दोबारा गिरफ़्तारी और मदीने से अख़राज सब में हज़रते ज़ैनब के साथ रहीं। उनकी विलादत 9 हिजरी में हुई । उनका अक़्द 1. मोहम्मद बिन जाफ़र बिन अबी तालिब से हुआ। उनकी
वफ़ात हज़रत ज़ैनब से दो महीने 20 दिन पहले हुईं। वह शाम में दफ़्न हैं। (ख़सा से ज़ैनबिया )
(मोअज़्ज़म अल बलदान याकूत हम्वी जिल्द 4 पृष्ठ 216 ) उनका मज़ार और सकीना बिन्तुल हुसन (अ.स.) का मज़ार शाम में एक ही इमारत में वाक़े है। उनकी उम्र 51 साल की थी। इनकी औलाद का तारीख़ में पता नहीं मिलता। अलबत्ता हज़रते ज़ैनब के अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार से चार फ़रज़न्द अली, मोहम्मद, औन, अब्बास और एक दुख़्तर उम्मे कुलसूम का ज़िक्र मिलता हैं। (ज़ैनब अख़्तल हुसैन पृष्ठ 55 व सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 8 पृष्ठ 558)
हाशिया 1. हज़रत उम्मे कुलसूम के साथ उमर बिन ख़त्ताब के अक़द का फ़साना तौहीने आले मोहम्मद ( स.व.व.अ.) का एक दिल सोज़ बाब है। इसकी रद के लिये मुलाज़ा हों मुक़द्देमा अहयाउल ममात अल्लामा जलालउद्दीन सियूती मतबूआ लाहौर।

