
आपकी सख़ावत
मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि एक शख़्स ने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) से कुछ मांगा। दस्त सवाल दराज़ होना था कि आपने 50,000 ( पचास हज़ार) दिरहम और 500 (पांच सौ) अशर्फियां दे दीं और फ़रमाया कि मज़दूर ला कर इसे उठा ले जा । इसके आपने मज़दूर की मज़दूरी में अपना चोगा बख़्श दिया । (मरातुल जनान 123 ) एक मरतबा आपने एक साएल को ख़ुदा से दुआ करते हुए सुना, ख़ुदाया मुझे दस हज़ार दिरहम अता फ़रमा । आपने घर पहुँच कर मतलूबा रक़म भिजवा दी। (नूरूल अबसार पृष्ठ 122)
आपसे किसी ने पूछा कि आप तो फ़ाक़ा करते हैं लेकिन साएल को महरूम वापस नहीं फ़रमाते। इरशाद फ़रमाया कि मैं खुदा से मांगने वाला हूँ उसने मुझे देने की आदत डाल रखी है, और मैंने लोगों को देने की आदत डाली है। मैं डरता कि अगर अपनी आदत बदल दूं तो कहीं ख़ुदा भी अपनी आदत न बदल दे और मुझे भी महरूम कर दे। (सफ़ा 123)
तवक्कुल के मुताअल्लिक़ आपका इरशाद
इमामे शाफ़ेई का बयान है कि किसी ने इमाम हसन (अ.स.) से अर्ज़ की कि अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी फ़रमाया करते थे कि मुझे तवंगरी से ज़्यादा नादारी और सेहत से ज़्यादा बीमारी पसन्द है। आपने फ़रमाया कि ख़ुदा अबू ज़र पर रहम करे उनका कहना दुरूस्त है लेकिन मैं तो कहता कि जो शख़्स के क़ज़ा व क़द्र पर तवक्कल करे वह हमेशा इसी चीज़ को पसन्द करेगा जिसे खुदा उसके लिये पसन्द करे। (मरातुल जेना जिल्द 1 पृष्ठ 125)
इमाम हसन (अ.स.) हिल्म और अख़लाक़ के मैदान में
अल्लामा इब्ने शहरे आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम हसन (अ. स.) घोड़े पर सवार कहीं तशरीफ़ लिये जा रहे थे, रास्ते में माविया के तरफ़दारों का एक शामी सामने आ पड़ा। उसने हज़रत को गालियां देनी शुरू कर दी। आपने उसका मुतलकन कोई जवाब न दिया। जब वह अपनी जैसी कर चुका तो आप उसके क़रीब गये और उसको सलाम कर के फ़रमाया कि भाई शायद तू मुसाफ़िर है, सुन अगर तुझे सवारी की ज़रूरत हो, तो मैं तुझे सवारी दे दूं। अगर तू भूखा हो तो खाना खिला दूं। अगर तुझे कपड़े दरकार हों तो कपड़े दे दूं। अगर तुझे रहने को जगह चाहिये तो मकान का इन्तेज़ामक र दूं। अगर दौलत की ज़रूरत है तो तुझे इतना दे दूं कि तू ख़ुश हाल हो जाये। यह सुन कर शामी बे इन्तेहा शरमिन्दा हुआ और कहने लगा कि मैं गवाही देता हूँ कि आप ज़मीने ख़ुदा पर ख़लीफ़ा हैं| मौला मैं तो आपको और आपके बाप दादा के सख़्त नफ़रत और हिकारत की नज़र से देखता था लेकिन आज आपके इख़्लाक़ ने मुझे आपका गिरवीदा बना दिया। अब मैं आपके क़दमों से दूर न जाऊंगा और ता हयात आपकी ख़िदमत में रहूँगा। (मुनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 53 व कामिल मबरूज 2 पृष्ठ 86 ) हूँ
एहसान का बदला एहसान
अबुल हसन मदाईनी का बयान है कि एक मरतबा इमाम हसन (अ.स.), इमाम हुसैन (अ. स.) और अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार हज को जाते हुए भूख और प्यास की हालत में एक ज़ईफ़ा के झोपड़े में जा पहुँचे और उससे खाने पीने की चीज़ तलब फ़रमाई। उसने अर्ज़ की कि मेरे पास एक बकरी है उसका दूध दूह कर प्यास बुझाई जा सकती है, उन्होंने दूध पी लिया लेकिन गुरसनगी से तसल्ली न हुई तो उससे फ़रमाया कि कुछ खाने का बन्दो बस्त भी हो सकता है। उसने कहा मेरे पास तो बस यही एक बकरी है लेकिन मैं क़सम देती हूँ कि आप इसे ज़ब्ह कर के तनावुल फ़रमा लें। बकरी ज़ब्ह की गई गोश्त भूना गया और सब ने खा लिया और इसके बाद क़दरे आराम कर के वह लोग रवाना हो गये। जब शाम को उसका शौहर आया तो उस औरत ने सारा वाक़िया सुनाया । शौहर ने पूछा वह कौन लोग थे? कहा मालूम नहीं, जाते वक़्त यह कहा था कि हम मदीने के रहने वाले है। शौहर ने कहा ख़ुदा की बन्दी यह तो बता कि अब हमारा गुज़ारा किस तरह होगा। ग़रज़ कि थोड़े ही अरसे में उन लोगों को क़हत का सामना करना पड़ा और यह सख़्त मुसिबतों में मुब्तिला हो कर भीख मांगते हुए मदीने जा पहुँचे। एक गली से गुज़र रहे थे कि नागाह इमाम हसन (अ.स.) की निगाह उस औरत पर जा पड़ी। आप ने उसे बुलवा कर बकरी वाला वाक़िया याद दिलाया और उसको एक हज़ार बकरियां और एक हज़ार अशर्फियां इनायत फ़रमा दीं और उसे इमाम हुसैन (अ. स.) की खिदमत में भेज दिया, उन्होंने भी उसे इसी क़द्र बकरियां वग़ैरा अता
फ़रमाई फिर अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र को इत्तेला दी गई उन्होंने भी उसी के लगभग उसे दे दिया। वह माला माल हो कर अपने घर वापस चली गई । ( नूरूल अबसार पृष्ठ 121 व मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 229)

