मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-33

लोगों का आपकी ओर आना और बैय्यत (शिष्य) होना

सरकार वारिस पाक की ओर बड़ी तेजी से लोग आने लगे। आपको ईश्वरीय देन प्राप्त थी । आपके मन-वचन और कर्म से जो कुछ प्रकट होता था वह अद्वितीय तथा अति विचित्र था। जिस नगर या इलाके में आप जाते पूरी आबादी आपकी ओर दौड़ती। आपकी मुहब्बत में सभी लोग आ जाते। आपका व्यवहार सब को मोहित कर लेता था। बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मानुयायी हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, पारसी, यहूदी सभी आपकी ओर खिंचते थे। ऐसा जान पड़ता था कि कोई आन्तरिक शक्ति है जो सबको आकर्षित करती है। और आपके आदर युक्त चौखट पर भीड़ लग जाती है। दर्शनार्थ लोगों का मेला लगा रहता था। योगी, यती, मस्त, रिन्द, पारसा, ज्ञानी, मूर्ख, दार्शनिक, ज्योतषी, वैद्य, शीया, सुन्नी, पारसी तथा अंग्रेज और इसाई इत्यादि का जमावड़ा रहता था। अच्छे, बुरे, पापी पुण्यात्मा किसी के लिये कोई रोकथाम नहीं थी। कोई तड़प रहा होता, कोई रोने में संलग्न, कोई माथा टेके हुए और कोई सिर झुकाये अपने विचारों में मग्न होता था। बड़े दार्शनिक जो सन्तों के अद्भूत कार्यों की हँसी उड़ाते थे तथा नास्तिक जो देवी देवता अथवा पीर, पैगम्बरों, ईश्वर तक को नहीं मानते थे आपके पवित्र हाथों पर अपने पापों का प्रायश्चित करते थे। यह जान नहीं पड़ता था कि आपके आत्मशक्ति का आकर्षण कितना प्रबल था। जो आपके सामने आता आप ही का हो जाता था। कभी-कभी ऐसा होता कि लोगों की भीड़ के कारण राह चलना भी कठिन हो जाता था। पगपग पर लोग आपके चरण चूमते तथा आँखे बिछाते थे।

सैय्यद मौलवी शरफुद्दीन साहब सिवान ने अपने मुरीद होने की घटना इस प्रकार ब्यान किया है। मेरा निवास स्थान ग्राम नेउरा में है जो पटना से निकट और फुलवारी शरीफ से लगा हुआ है, फुलवारी शरीफ सूफी सन्तों के लिये बहुत समयसे ख्याति प्राप्त है। हमारे गाँव के केवल दो आदमी अब तक मुरीद हो चुके थे। शेष सभी पीरी मुरीदी को नहीं मानते थे। कारण यह था कि उस गाँव में अंग्रेजी शिक्षा तथा अंग्रेज़ियत का बहुत जोर था। मैं अपनी शिक्षा पूरी करके १८८० ई० के अन्त में देश लौट आया था फिर कलकत्ता हाई कोर्ट में अपना नाम अंकित करा कर वकालत आरम्भ कर दिया था। मौलवी अब्दुल करीम साहब बचपन की शिक्षा के मेरे उस्ताद थे। लताफत हुसेन मेरे बचपन के साथी थे जो उस समय कलकत्ता में ही थे। ग्रीष्मकाल में पटना आने पर इन्होंने मुझसे कहा कि मौलाना अब्दुल करीम साहब पश्चिम के एक बुजुर्ग से मुरीद हो गये हैं और साथ ही अपनी बिरादरी के सभी मर्दों तथा औरतों ने भी बैय्यत कर ली है। मैंने लताफत हुसेन से कहा कि जब मैं छुट्टी में घर आऊंगा तो सभी के लिए एक पागलखाना बनवाऊंगा। अभी तक मुझको यह कुछ भी मालूम न हो सका था कि वह बुजुर्ग कहाँ के हैं और क्या नाम है ? जब मैं अवकाश पर घर आया अपने उस्ताद मौलाना अब्दुल करीम साहब से मिला और कहा कि अपने मसले, मसायल, सुन्नत, फर्ज़ सभी पढ़ाया किन्तु यह न बताया कि शिष्य होना क्या चीज़ है और जरूरी है या नहीं? मौलाना ने कहा यह और वस्तु है साधारण सम्बन्ध की बात नहीं है। मैंने पूछा कि वह बुजुर्ग कहाँ के थे? कौन थे ? तब उन्होंने बताया फिर हम ने पूछा कि पीर साहब में चमत्कार है या नहीं। उन्होंने कहा जाहिर में तो कोई बात नहीं देखा किन्तु उनमें लालच और कामना नहीं पाया।

पहले से ही मेरा विचार था और धारणा बन चुकी थी कि पीर या धर्म गुरू केवल पेट पालने का एक पेशा है जिसके द्वारा लोग रोज़ी-रोटी कमाते हैं। मेरे मन में मौलाना के पीर का इतना सम्मान अवश्य हुआ कि वह संसारिक और दुनियादार नहीं हैं। मैं कुछ दिनों तक यह विचार ही भूल गया । १८८३ ई० के फरवरी या शुरू मार्च में मैं घर पर ही था तथा पीर साहब के पटना आने की खबर चारों ओर थी। मैं दानापुर पहुंचकर पटना जाने के लिये जिस ट्रेन में सवार हुआ हुजूर वारिस पाक उसी ट्रेन से आने वाले थे। आपका प्रथम दर्शन उस गाड़ी में हुआ जिसकी गुलामी मेरे लिये धन्य और गौरवमयी हो गई। मेरे भाई खान बहादुर फज़ले इमाम साहब आपके साथ देवा शरीफ से आ रहे थे। दानापुर प्लेटफार्म पर बहुत से लोग आपके दर्शन की प्रतीक्षा में थे। कुछ मिनट में रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। फर्स्ट क्लास डिब्बे में वह प्रकाश युक्त सूरत दिखाई पड़ी जिसके रूप की बखान नहीं हो सकती। रसीले नेत्र, घुंघराले केश, भोलापन लिये हुए चेहरा, एक मोहनी सूरत
लोग आपका चरण चूमते थे जिसको उस समय मैं लोगों की अज्ञानता तथा मूर्खता ही मानता था। मैं लोगों से अलग सूट-बूट धारी यही सोचता था कि कहीं इस गवारूपने की कालिमा मुझे न लग जाय। अलग खड़ा था। मौलवी फज़ले इमाम साहब मुझको स्टेशन पर देख कर बहुत खुश हुए और कहने लगे देवा शरीफ से यहाँ तक कई बार सरकार वारिस पाक ने मुझ से पूछा है ‘नसीरूद्दीन का भाई बैरिस्टर, स्टेशन पर होगा कि नहीं, मुझसे मिलेगा कि नहीं।’ खान बहादुर मौलवी नसीरुद्दीन साहब वारसी सी० एस० आई० मंत्री स्टेट भोपाल मेरे सगे भाई थे और नेउरा के दूसरे लोगों के साथ वारसी हो गये थे। हुजूर की कदमबोसी के बाद मेरे पास आये और मुझ से पूछा कि हुजूर के पास चलने में तुमको कोई इनकार तो नहीं । मैंने कहा कि मुझे क्या उज्ज्र हो सकता है ? उसी अंग्रेजी वस्त्र में हाथ में सुलगता हुआ सिगार लिये हुए हुजूर के पास डिब्बे में गया। आप ने मुझे अपने बिस्तरे पर बिठा लिया। गाड़ी बाँकीपुर पटना को चल पड़ी। रास्ते में हुजूर ने मुझ से पूछा तुम अंग्रेजी जानते हो। मैंने अर्ज किया ‘जी हाँ।’ आप ने कहा कि तुम्हारी अंग्रेजी की जानकारी तुम्हारे लिये सवाब (पुण्य) है। यह भी कहा कि यदि तुम कोशिश न करते तो मौलाना अब्दुल हई साहब को जरूर सजा हो जाती (मौलाना अब्दुल हई साहब और मौलाना इब्राहीम साहब निवासी फिरंगी महल पर दरभंगा से एक वारण्ट जारी हुआ था। एक नाबालिग लड़के को भगा ले जाकर मुसलमान कर देने के आरोप में। अदालत के फैसले के अनुसार बाईज्जत रिहा किये गये । इसमें बैरिस्टर सैय्यद शरफुद्दीन साहब ने बिना मेहनताना लिये मुकदमा की पैरवी किया। इसकी चरचा लखनऊ के इलाके में बहुत थी। सरकार वारिस पाक को भी इसकी खबर थी। आपने उसका जिक्र किया ) गाड़ी बांकीपुर पहुँची। दर्शनार्थियों की भीड़ थी। मैं किसी तरह लोगों से बचता-बचाता स्टेशन से बाहर आया। अपने चचेरे भाई ज़हीरूद्दीन साहब के साथ अपनी कोठी पर पहुँचा। सैय्यद जहीरूद्दीन साहब ने मुझसे कहा शुभ-अवसर है। हाजी साहब किबला के शिष्य हो जाओ। मैंने कहा कि चेला होना मेरे विचार में कुछ नहीं है। केवल हाथ पकड़ने से कुछ नहीं होता जब तक दिल को न पकड़े।

अपनी कोठी से नाश्ता करके मौलवी फजले ईमाम साहब के मकान गया जहां सरकार वारिस पाक विश्राम कर रहे थे। वहाँ का दृश्य विचित्र था। दर्शन कर्त्तागण की भीड़ लगी थी। चतुर-मुर्ख, ज्ञानी-अज्ञानी, नीच-ऊँच, शरीफ-रजील, अमीरगरीब, मर्द औरत, गायक और गायिकाओं की भीड़ जमी थी। ये सब देखकर मैं घबराया। आगे देखा मेरे बाल्यावस्था के गुरू अब्दुल करीम साहब इस सम्पूर्ण भीड़ के अगुवा थे। पगड़ी ढीली ढ़ाली, अर्द्ध-खुली कमर में पीला रूमाल बांधे हुए मस्ती से भरे लाल नेत्र कुछ विचित्र दशा थी। मैंने अब्दुल करीम साहब से आग्रह किया मुझे भी हाजिर होने का आदेश चाहिये। बस सूचना गई और तत्काल बुला लिया गया। कमरे में पहुँचकर मैंने दूसरा नक्शा देखा। हुजूर वारिस पाक लेटे थे और लोग आपका शरीर दबा रहे थे। मेरे बड़े भाई नसीरुद्दीन साहब वारसी सी० एस० आई० हुजूर के पीछे बैठकर उनकी पीठ दबा रहे थे। मुझको देखकर किबला खड़े हो गये और आदेश दिया ‘बैठ जाओ! एक तरफ तुम और एक तरफ तुम्हारे भाई।’ सरकार वारिस पाक ने प्रथम पूछा कि बैरिस्टर तुम किसी के चेले (मुरीद) हो कि नहीं।’ मैंने कहा कि अब तक तो संयोग नहीं हुआ। फिर आप ने कहा ‘सिर्फ हाथ पकड़ने से कुछ नहीं होता जब तक दिल को न पकड़े।’ मैं अचम्भे में हो गया वही वाक्य जो मेरे मुंह से निकले थे हुजूर वारिस पाक ने सुना दिया। मैं उस समय आधे घन्टे तक आप के सामने रहा। अधिकांश बाते जर्मनी की होती रहीं। हमने पूछा आप जर्मनी गये हैं। आपने कहा ‘हाँ! बहुत जमाना बीत गया।’ इसके बाद मैं कमरे से बाहर निकल आया। देखा कई सौ आदमी बाहर दरवाजे पर एकत्र हैं। मैंने अपने मन में सोचा यदि मैं अपनी कोठी पर न जाऊंगा तो यहाँ जमीन पर सोना पड़ेगा। मैं इस विचार से चलने को तैयार हुआ ठीक तभी किसी ने आकर कहा हुजूर से विदा ले लो। मैंने उत्तर दिया कि मैं यहीं से बिदा हो लूंगा। यदि हाजी साहब किबला बुजूर्ग होंगे तो उन्हें खबर हो जायेगी। अभी मैं कोठे से उतरने ही को था कि रहीमशाह साहब ने कहा कि हुजूर आपको बुलाते हैं। मैं उपस्थित हुआ सरकार ने कहा ‘शरफुद्दीन तुम्हें यहां सोने में कष्ट होगा तुम घर पर जाओ। केवल विदा करने हेतु बुलाया है। लोगों ने मुझ से कहा हाजी बाबा का आपकी ओर विशेष ध्यान है। शिष्य हो जाओ। मैंने सब से एक मात्र यही कहा हाजी बाबा ने स्वयं कहा है कि हाथ पकड़ने से क्या होता है जब तक दिल को न पकड़े। दो या तीन दिन पश्चात् हुजूर दरभंगा चले गये और कुछ दिन बाद पुनः लौटे। मुझे यह खबर मिली कि आप मेरे गांव नेऊरा भी पधारेंगे। मेरे बड़े भाई नसीरूद्दीन साहब मुलाज़िमत के कारण घर न पहुंच सके। अतः मुझे उनका तार मिला कि मैं घर पहुंचकर आपका स्वागत करूं। अतः मैं घर पहुंच कर सरकार वारिस पाक की सेवा में तीन दिन रहा। बार-बार मैं बुलाया जाता था और कुछ बातें होती रहती थी। वह बातें प्रेम और मुहब्बत में सनी हुई थीं। प्रेम के अफसाने थे। मिस्टर जस्टिस हसन
ईमाम मेरे पास आये उस समय मैं बैठा कुछ पढ़ रहा था। हसन ईमाम उस समय बहुत छोटी उम्र के थे आकर कहा कि हाजी साहब किब्ला ने याद किया है। मैंने कहा कि तुम चलो मैं आता हूँ। कुछ पढ़ने के पश्चात् मैं सरकार कि सेवा में उपस्थित हुआ। उस समय मेरी इच्छा लेशमात्र भी चेला होने की नहीं थी। मैं जाकर कमरे में बैठ गया। उस समय वहाँ हाजी साहब और बाबा अब्दुर्रहीम शाह बैठे हुए थे। हुजूर अपनी ओजस्वी दृष्टि मुझ पर डाली और जादू की तरह उसका प्रभाव मुझ पर पड़ा। मैं मात्र देखता ही रह गया। मुझे केवल इतना याद है कि मैंने हजुरत का हाथ पकड़ लिया फिर मुझे ज्ञात नहीं हुआ कि शिष्य मुझे कैसे बनाया गया और किन मन्त्रों द्वारा शिष्य किया गया। केवल इतना ही स्मरण है कि हुजूर ने स्नेहपूर्वक एक घूंसा मेरे दाहिने कंधे पर मारा और कहा ‘तू भागा-भागा फिरता था । जानता नहीं कि तू मेरा प्यारा है ।’

मौलवी सैय्यद अब्दुल गनी साहब बिहारी अपने शिष्य बनने की घटना इस प्रकार लिखते हैं। मेरी चाची साहिबा ने मुझसे कहा था कि मैं मुरीद (शिष्य) होना चाहती हूँ। मैंने उनसे कहा था कि बिहार और उसके इलाके में तो कोई ऐसा दिखाई नहीं देता है। यदि कोई नजर आयेगा तो मैं आपसे बताऊंगा। हुजूर वारिस पाक के ग्राम बेलछी पधारने पर मैं उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और मैंने विचार किया कि यदि मेरा मन आपको स्वीकार करता है तो मैं चाची साहिबा को चेला बनवा दूंगा। बेलछी से लौट कर मैंने अपनी चाची से कहा कि बेलछी में एक बुजुर्ग आये हैं आप चाहें तो जाकर शिष्य बन जायें । अतः मेरी चाची, मेरी दो बहनें, मेरी माता, मेरी पत्नी और मैं स्वयं सभी जाकर चेला हो गये । वह समय जनगणना का था। आने जाने वालों के सिवा रात्रि में रूकने वाली महिलाओं की संख्या पांच सौ अंकित की गई थी। यह जनगणना १८९० ई० का अंतिम दिन था। उस समय आगंतुक की भीड़ की यह दशा थी कि सवारी का ऐसा अभाव हो गया कि कहार खोजने से नहीं मिलते थे। जिस गाँव से दो आना चौकड़ी की मजदूरी थी वहां से कहारों ने रूपया दो रुपये तक मजदूरी लिया। चारों ओर से लोग उमड़े चले आते थे । मेरी अपनी बस्ती से कम से कम चालीस स्त्री पुरूष आये जो चेला हुए।

मुंशी अब्दुल गनी साहब वारसी रईसपुर और गनी खां जिला रायबरेली लिखते हैं कि जब हुजूर पहली बार दरभंगा पधारे तो उस जगह झाडू शाह नाम के एक फकीर जो बस्ती से बाहर रहा करते थे और जो एक जन समूह के विश्वासपात्र थे हुजूर के पहुंचने से ३ दिन पूर्व ही नगर में प्रवेश किया और ऊँचे टीले पर खड़े

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