विनम्रता और लघुता का भाव

आपके अन्य गुणों की तरह विनम्रता और ख़ाकसारी भी आप में बेजोड़ थी। आप अपने को प्रत्येक समय छोटा तथा अपनी शक्ति को लघु जानते थे। एक बार सैय्यद सरफुद्दीन साहब मेम्बर एक्ज़केटिव कौन्सिल बिहार एक शीशा जो थर्मामीटर की तरह का था उस पर लिखा था, क्रोध, विद्यता, बुद्धिमत्ता, स्मरण शक्ति, हर्ष, विषाद का अन्दाज़ | मुठ्ठी में दबाने पर पारा चढ़ता था और मीजाज की हालत मालूम होती थी। हुजूर ने उस यंत्र को अपनी मुट्ठी में लिया और उसका पारा ऊपर चढ़ना आरम्भ हुआ, हुजूर ने उस यंत्र को जमीन पर रख दिया फिर सभी लोगों ने अपनी-अपनी मुट्ठी में लेकर अपनी-अपनी देखना आरम्भ किया और हुजूर वारिस पाक से बताया जाता था कि किसकी बुद्धि कहाँ तक है और आप मुस्कुराते जाते थे। अन्त में बैरिस्टर साहब को ख़्याल आया कि हुजूर के मिज़ाज़ की दशा तो मौलवी फजले इमाम साहब, यूसुफ इमाम साहब और अहद साहब भी थे। हम लोग हुजूर की खिदमत में गये, आप उस समय अकेले थे । हुजूर उठकर बैठ गये। यह समय फागुन का था, चारों ओर होली का रंग था। हुजूर मुझे सम्बोधित कर कहने लगे ‘होली गायें सुनोगे।’ मैंने अर्ज़ किया कि जरूर सुनेंगे। आप हाव भाव से होली गाने लगे। अदाओं से कुमकुमे फेंके पिचकारी मारा इसके बाद कहा ‘होली वाजम फिर फारसी में होली गाने लगे। मेरी दशा विचारणीय थी। आप आनन्द और मस्ती में थे। आप ने मुझे आदेश दिया गले लग जाओ फिर पुनः कहा ‘लहमक लहमी व दम्मक दम्मी।’ अर्थात् तुम्हारा मांस या शरीर मेरा शरीर है और तेरा खून मेरा खून है। मुझे अलग किया फिर हकीम मुबारक हुसेन को गले लगाया और वह आग लगी की संसार छोड़ दिया मानों ऊ व सहरा रफ्त दमा दर कूचहा रूसवा शुदेम। (वह जंगलवासी हो गया और मैं गली-गली बदनाम होता रहा।) तब तक नीचे के लोगों को ख़बर हुई। अहद शाह इत्यादि दौड़े ऊपर आये और मैं उनकी सहायता से नीचे उतरा और उनकी आसनी पर बैठा, अहमद शाह मेरी ओर घूर कर देख रहे थे। मैंने देखने का कारण पूछा। आपने मेरे सम्मुख दर्पण रख दिया। मैंने देखा कि मेरी आँखें करंजी (करजीरी) के समान लाल थी. चेहरा ताँबे के समान और मुख पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। लगभग उन्तीस दिनों तक कुछ भी न खाया। जब मैं पटना आया तब से मेरी यह दशा हुई कि अशुभ बातों की मुझे सूचना हो जाती थी कि कौन कब बीमार पड़ेगा? उसका फल क्या होगा अथवा कब मरेगा ? इसके अतिरिक्त मेरी तबीयत खोई सो रहती। दवा दारू से कुछ लाभ न हुआ। अन्त में मैं जब देवा शरीफ पहुंचा तो अपने आप मेरे मिज़ाज़ का सुधार हो गया और अब ठीक है। इस्लाम धर्म के मतों के सम्बन्ध में कभी कोई बात खिलाफ आप ने न कहा। हर विचार और हर मतों के लोगों को आप आदर देते थे और सम्मान करते थे। प्रत्येक व्यक्ति के बारे में पवित्र विचार और पुनीत धारणा रखते थे। हजरत सर सैय्यद अहदम खाँ जन्मदाता अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के सम्बन्ध में उस समय रूढ़िवादी मुसलमानों के जो विचार थे, वह सब पर विदित है किन्तु हुजूर का विचार उनके प्रति बहुत अच्छा था। सैय्यद शरफुद्दीन साहब लिखते हैं कि उन लोगों ने मुझसे कहा जो सरकार वारिस पाक के साथ अलीगढ़ में ठहरे हुए थे। सर सैय्यद की ओर से सरकार से यह प्रार्थना की गई कि सैय्यद साहब हुजूर से एकान्त में मिलना चाहते हैं। हुजूर ने प्रार्थना स्वीकार किया। कुछ रात बीतने पर सर सैय्यद साहब ने दरवाजा खटखटाया। ख़ादिम ने कहा ‘कौन?’ सर सैय्यद ने (१००)
कहा ‘शैतान ।’ दरवाजा खुला और सर सैय्यद अन्दर आ गये और सरकार वारिस पाक सम्मानपूर्वक मिळेध सर सैय्यद अहमद खाँ ने सविनय कहा कि लोग मुझे काफ़िर कहते हैं। हुजूर ने कहा गलत कहते हैं। सैय्यद काफिर नहीं होता। सरकार ने कहा है ‘सर सैय्यद को बुरा न कहो और बुरा न समझो वह अव्वल दर्जे के मुसलमान हैं।’
सत्य यह है कि हुजूर वारिस पाक जाहिरी हालत पर नज़र नहीं करते। वह लोगों की नीयतों को देखते थे। आप प्रेम के चाहने वाले थे। आप सत्य और प्रेम का सम्मान करते थे।

