
समयानुसार प्रश्नकर्ता ही उसका उत्तर बन जाता था । ठाकुर पंचम सिंह रईस मलावली, जिला मैनपुर जो जापक और साधक बुजुर्ग हैं । ब्यान करते हैं कि मुझसे काजी बख़्श अली साहब ने कहा कि एक व्यक्ति हुजूर वारिस पाक की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। अपने जोश उमंग तक ख़ुशी को इस पद द्वारा व्यक्त किया – न दारम ज़ौके रिन्दी न ख्याले पाक दामानी ।
मोरा दीवानए ख़ुद कुन व हर रंगे कि मीदानी ॥ पद का अर्थ है – हे गुरु! न तो मस्ती का शौक रखता हूँ और न मुझे पवित्र बनने का ख्याल है, आप जिस भांति चाहें मुझे दिवाना बना लें।
हुजूर वारिस पाक ने एक बार सुना और दो बार पद को उस व्यक्ति से पढ़वाया तीसरी बार पद समाप्त होते ही वह अपने आपे से बाहर हो गया और कपड़े फ़ाड़कर चला गया। मानो इस पद की सम्पूर्ण दशा उस पर छा गई। हुजूर पाक ने अपनी आदत के अनुसार एक बार और दो बार उससे पढ़वाया और उनका प्रश्न ही उसका उत्तर बन गया।
जिस प्रकार हुजूर द्वारा दिये गये उत्तर कभी तो तत्काल ही मिल जाते थे अर्थात् पूरे उतरते थे और कभी कुछ दिनों बाद हक़ीकत को पहुंचते थे किन्तु वह उत्तर प्रश्नकर्ता को फ़ौरन ही मिल जाते थे। हकीम अह० अली साहब वारसी लिखते हैं कि शेख़ हामिद अली साहब जो रियासत महमूदाबाद के तहसीलदार थे। ब्यान करते हैं कि मेरे बड़े भाई साहब ने जो आपकी गुलामी में थे। एक आदमी द्वारा हुजूर को कह भेजा कि आपके पितामह (जिनके ऊपर मेरी जान न्योछावर है) सलअम ने कहा कि मनकाला लाएलाहा इल्लल्लाह फहोवा दोखला फिल जन्नते । अनुवाद जिसने कहा ला ईलाहा इल्लल्लाह वह जन्नत में प्रवेश किया। हुजूर मुझको इसका अर्थ और बारीकी इस तरह समझा दें कि मेरे दिल को शान्ति और संतोष प्राप्त हो जाय । हुजूर ने फ़रमाया ‘देखा जायेगा’ और ख़बर लाने वाले को बिदा कर दिया। उसने मेरे भाई साहब को यह छोटा सा जवाब सुना दिया। पूरे तीन वर्ष बीतने के पश्चात् जब भाई साहब बीमार पड़े और उनकी दशा दिनों दिन गिरती गई तो संयोग से जुग्गौर की एक महिला देवा शरीफ सरकार का दर्शन करने गयी थीं, आपने उनसे कहा कि जुग्गौर कब जाओगी? उसने कहा कि कल सुबह। आपने फ़रमाया कि हामिद अली तहसीलदार के भाई के पास जाकर कह देना कि तुमने जो हदीस मन-काल लाईलाहा इल्लल्लाह का अर्थ पूछा था और उसकी
वास्तविकता जानना चाहा था, उसका समय यही है। अब कहो कि दखलल जन्नत के भागीदार हो जाओ। शेख हामिद अली कहते हैं कि वह महिला शाम को मेरे मकान पर पहुंची और भाई साहब के निकट जब वह जाकर देखा कि मरणासन्न हैं तो उसने चिल्लाकर कहा- मुझको हजरत ने आपके पास भेजा है और यह फ़रमाया है। यह सुनकर वह चौंक पड़े और समाचार पाते ही कलम-ए-तौहीद जुबान से दोहराने लगे। इसी दशा में उनकी आत्मा परलोक सिधार गई।
हुजूर वारिस पाक की बातों की निराली शान और निराला अंदाज था। कभीकभी एक ही बात में बहुत से लोगों को जवाब मिल जाता था और लोग अपने मतलब की बात सुन समझकर प्रसन्नचित हो जाते थे। मिर्ज़ा इब्राहीम बेग शैदा वारसी नकल करते है कि एक बार मैं हुजूर के पास था। एक ही समय चार वारसी गुलाम हाजिर हुए। वे अभी कुछ कह भी नहीं पाये थे तब तक आपने उनसे कहा जो ख़ुदा पर भरोसा करता है उसकी सहायता ख़ुदा ज़रूर करता है और तो आज रहोगे कल चले जाना है। सिर्फ इतना कह कर उनको छुट्टी दे दिया। शैदा मियां कहते हैं कि उनको अधिक ख़ुशी का कारण पूछना चाहिये। रात में उनके रहने के स्थान पर पहुंचकर उनसे पूछा। उनमें से एक ने कहा कि मैं अपने हाई कोर्ट के मुकदमें में डिग्री का इच्छुक था। दूसरे आदमी को अपने धार्मिक शंक समाधान में और तीसरे साहब की इच्छा थी कि कुछ ख़ुदा को याद करने के नियम और शैली की शिक्षा चाहते थे। चौथे ईश्वर के होने का रहस्य समझना चाहते थे। ये सभी अपनी सफलता की ख़ुद में मस्त थे। कुछ दिनों के बाद इन सब से भेंट हुई। हमने देखा कि मुकदमे वाला हाई कोर्ट में मुकदमा की सफलता प्राप्त कर लिया. दूसरे की शंका दूर हो चुकी थी, तीसरे (अल्लाह) के जिक्र में संलग्न थे और चौथे साहब हमा ओस्त, सब कुछ वही है का दम भर रहे थे। आपको विशेषता से भरे हुए वचन का सही अर्थ पाना एक कठिन कार्य था। ईश्वर ने आपको अन्य खूबियों के साथ वाकपटुता भी दिया था। आप ईश्वर संलग्न और विलीन हुए भी लोगों के सवालों का जवाब बरदस्ता अर्थात् तुरन्त प्रस्तुत करते थे. जो प्रश्न जिस तरह का होता था, जवाब वैसा ही होता था। जो दलील से काटा नहीं जा सकता था। आपके प्रत्येक शब्द में आन्तरिक रहस्य छुपे हुए थे और आपके पुनीत होंठों से जो शब्द निकलते थे, वे हकीकत का दर्पण होते थे।
आपने ज़ाहिरी ज्ञान तथा इल्म पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया क्योंकि आपका
दिल ईश्वर प्रेम से भरा हुआ था
अक्ल को कुछ न मिला इल्म में हैरत के सिवा कोई रंग मोहब्बत के सिवा ॥
दिल को भाया न आप विद्या और गुण में सबसे अच्छे थे। किसी इल्म और ज्ञान में कभी आप चुप नहीं पाये गये। अपनी उर्दू भाषा के सिवा अन्य भाषाओं में भी आप बातचीत कर लेते थे। आपकी सेवा में हाफिज, कारी, आलिम, पंडित सभी आते थे और आप उनके रूचि के अनुसार बातें करते थे।
आपके अध्ययन में तिलावत कलाम मजीद, मसनवी मौलाना रुम मलिक, मुहम्मद जायसी की पद्मावत और हंस जवाहिर भाषा अधिक देखी गई है। आप सातों केरअतों (क़ुरआन पढ़ने की शैली) में क़ुरआन पाक पढ़ते थे और जब कभी कोई क़ारी मिलता तो उसे क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने की बारीकियां समझाते थे । विद्या और ज्ञान वालों से मिलकर आप बहुत खुश होते थे । कलाम पाक की तफ़सीर करके रहस्य और बारीकियों का बोध कराते थे। मसनवी तथा पद्मावत के पद्यों की व्याख्या करते थे तथा रहस्यों को खोलकर बतलाते थे । ।
मौलाना सैय्यद अब्दुल ग़नी साहब लिखते हैं कि हमने बेलछी में हुजूर को देखा है कि प्रातः मसनवी शरीफ मंगवाते और उसके पदों को पढ़ते थे। जो पद जिसके लिए उचित होते उसकी ओर मुंह करके उसका अर्थ बतलाते थे । हुजूर वारिस पाक को क़ुरआन शरीफ से बहुत लगाव था । बुढ़ापे में कमज़ोर होने के पूर्व से आप मीलाद की महफ़िलों में जाते और पंच सूरा खूब पढ़वाते तथा स्वयं भी पढ़ते थे। जीवन के पूर्वाद्ध में आप रोज़ाना पूरा क़ुरआन शरीफ़ पढ़कर समाप्त करते थे। यात्रा करने की दशा में भी आप एक कोस चलने में तीन अध्याय और दस कोस में तीस अध्याय अर्थात् पूरा क़ुरआन समाप्त कर देते थे। तालिबे इल्म, उस्ताद तथा माता-पिता की इच्छा होती थी कि ख़त्म क़ुरआन की रस्म पूरी होती है वह कभी भूलता नहीं है।
हुजूर वारिस पाक की क़ुरआन की जानकारी का पता इस घटना से भलीभांति ज्ञात होता है। एक बार की बात है कि मौलवी अब्दुल समद साहब जो मदरसा देवबन्द से शिक्षा पाये हुए थे। संयोग से चौधरी लताफ़त हुसेन रामदाना, जिला- सीतापुर के मकान पर किसी जरूरत से आ गए थे जहाँ हुजूर वारिस पाक ठहरे हुए थे। उ मौलाना सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बेमिसाली में किस
व्यक्ति से बात कर रहे थे जिसमें आयत शरीफ़-लकद जाअकुम रसूलुम मिन अनफो से कुम। हुजूर वारिस पाक सुनते ही मौलवी साहब से कहने लगे
इस आयत पाक की केरअत इस तरह भी होती है अर्थात् क़ुरआन शरीफ की इस आयत को इस प्रकार भी पढ़ा जाता है – लक़द जाअकुम रसूलुम मिन अनफो सेकुम यदि आयत के अक्षर फ को फो के स्थान पर फ’ पढ़ा जाय तो अर्थ आपके उद्देश्य के आयत आपके दावे को झूठा सिद्ध कर देगी।
विलोम होगा और यही मौलवी अली अहमद खाँ वकील आगरा जो शरीअत पर चलने के पाबन्द थे और उनका अरबी भाषा का ज्ञान उत्तम था । लिखते हैं कि १८७२ ई० में एक रिश्तेदार की शादी में शिकोहाबाद जाने का संयोग हुआ। वहां पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि हुजूर वारिस पाक शिकोहाबाद में पधारे हैं। मुझे भी जाने का शौक हुआ किन्तु मेरे कुछ रिश्तेदार जो हुजूर कि कदमबोसी के लिए गये थे बिना कदमबोसी किये हुए ही लौट आये थे। कारण यह बताया कि हुजूर मकान के अन्दर थे और वहाँ औरतों की भीड़ थी। स्त्रियां आपके सामने बेधड़क आती हैं। ये सुनकर मेरी कदमबोसी की इच्छा और लालसा जो कुछ भी थी समाप्त हो गई। १८७२ ई० से १८९५ ई० तक किसी प्रकार का कोई विचार मेरे मन में नहीं आया। सितम्बर १८९५ ३० में मुझे दिवानी अदालत आगरा में हकीम अमजद अली साहब का एक तार मिला कि हुजूर वारिस पाक भोपाल से आने वाले हैं। जब वह आगरा पधारें तो मुझे तुरन्त सूचित करना। अभी मैं कचहरी में ही था कि हकीम अमजद अली फिरोज़पुर से आये और उन्होंने कहा कि हुजूर नगर में आ चुके हैं। इसी समय रेल गाड़ी से इटावा जाने वाले हैं। आगन्तुक हकीम साहब के साथ ही मैं स्टेशन पहुंचा। वहां दर्शनार्थ एक अच्छी ख़ासी भीड़ लगी हुई थी । हुजूर तक पहुंच पाना कठिन था। हमने प्रथम श्रेणी का टिकट लिया। हुजूर तक पहुंचा और ख़ामोशी के साथ बेंच के नीचे बैठकर डरते-डरते हुजूर के पाँव मुबारक पर हाथ रखा। आपने पूछा कौन है ? सेवक ने कहा ‘हकीम अमजद अली फीरोज़पुरी।’ फिर हकीम साहब ने मेरा नाम बताया और ये भी कहा कि कदमबोसी के लिए आये हुए हैं। आपने अपने मुख से चादर हटाया। इसी समय १८७२ ई० की बात मेरे मन में याद आ गई और मैं बहुत लज्जित हुआ। हुजूर ने मुझ से कहा ‘हर आदमी पर शरीअत की पाबन्दी और ताबेदारी लाज़िम है।’ इसके बाद कुछ क़ुरआन की आयतें, कुछ हदीसें और कुछ मौलाना रूमी के पद सुनाते रहे। आपका यह छोटा सा बन

