
अमानत सौंपना
पुस्तक ‘तोहफतुल असफिया’ के रचयिता तथा अन्य बुजुर्गों से वर्णित है कि जब प्रथम बार मक्का गये तो एक मस्त फकीर से आपकी भेंट हुई जो आपकी प्रतिक्षा में थे। उन्होंने आपको हृदय से लगाया और जो धरोहर उनके पास थी उसे आपको सौंप दिया। इसके बाद आपकी जांघों पर सर रखकर परमात्मा में विलीन हो गये। उनके सम्बन्ध में आप कहते हैं कि उनकी लाश हरे रंग का पक्षी होकर हवा में उड़ गयी और मैं जंगल में फिरता रहा। मौलवी रौनक अली वारसी रज्जाकी पैंतेपुरी लिखते हैं कि एक बुजुर्ग बैतुल्लाह में आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे । वह आप से मिलते ही ख़ुदा को प्यारे हो गये। बुजुर्गों का विचार है कि वह अवैसिया के अमानतदार थे जिसको उन्होंने हुजूर को सौंप दी।
तपस्या एवं योग साधना
आप बाल्यवस्था से ही कठोर तपस्या में लगे थे। जवानी का ज़माना आरम्भ होने से पूर्व आप तीन दिन का रोजा रखते थे। बहुत दिनों तक रोजा (भूख-व्रत) रखा करते थे। इन रोज़ों में भी आप अल्प-आहार लेते थे, जो वास्तव में नहीं के बराबर होता था। मौलवी रौनक अली साहब अपने स्वर्गीय दादा मौलवी क़दीर अली की आँखों देखी बात लिखते हैं कि जब हुजूर पहली बार पैंतेपुर पधारे तो तीन दिन का रोजा रखते थे। तीसरे दिन उबाली हुई अरवी का आधा भाग बिना नमक का ग्रहण करते थे। अब्दुल ग़नी साहब वारसी रईस पुरवा जी एक वयोबृद्ध बुजुर्ग हैं, लिखते हैं कि जब आप देवा शरीफ़ और फ़तेहपुर कुछ दिनों के लिए रहते थे तो देखा गया है कि सातवें दिन आप रोज़ा केवल पांच उबले हुए आलू से खोलते थे। अन्य पुराने बुजुर्गों ने बताया है कि बहुत दिनों तक हुजूर को अन्न इत्यादि ख़ाते हुए नहीं देखा गया है। कुछ के मतानुसार पचास वर्ष की आयु तक और कुछ के अनुसार इससे भी अधिक उम्र तक नियमित रूप से रोज़ा रखते थे। आपका पेट रूमाल से कसा रहता था। कभी-कभी पेट पर पत्थर भी बंधा रहता था। बहुत दिनों तक आपने गोश्त, मछली, अंडा, लहसुन और प्याज़ का त्याग कर दिया था। चारपाई और को पर कभी नहीं बैठते थे। सदैव भूमि पर बैठते और लेटते थे। रात अथवा दिन में कभी आप सोते हुए नहीं देखे गये। कभी आराम करते हुए किसी को यह शंका हुई कि आप निद्रा में हैं तो तुरन्त ही आप ने कहा कि कौन है ?
किसी को आपके तप-जप की ख़बर नहीं। आप पोशीदगी का इतना ध्यान रखते थे कि किसी को कुछ पता नहीं चलता था कि आप कब कौन सी साधना करते थे। आरम्भ में आप रात भर नफ़िलें अदा करते और क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत (अध्ययन) करने की आदत थी। चालिस वर्ष की उम्र तक रात में न आप आराम करते और न किसी से बात करते थे। सारी रात खड़े-खड़े नफ़िल नमाज़ पढ़ा करते थे।

