
बचपन के कुछ हालात
सरकार वारिस पाक के बचपन का समय बहुत ही शान शौकत से गुजरा है। सभी लोग पुरुष, महिला, युवा, वृद्धा आपका सम्मान करते थे। जो दशा बचपन में आपकी देखी गयी है वह निम्न है-अधिकतर आपकी आँखें लाल रहा करती थीं तथा आँसू से भरी होती थी। जिन्हें लोग देखकर आँख आने का गुमान करते थे किन्तु आँख आने का कोई प्रभाव आपकी पवित्र आँखों में नहीं होता था। दसग्यारह वर्ष की अवस्था तक आपके मुख से लार टपका करती थी जिससे आपका दामन भीगा रहता था। आप इश्क और आशिकी की कथा-कहानी सुनने में बड़ी रूचि रखते थे। बहुधा देखा गया है कि आप दो चार दिन तक घर से लापता हो जाते थे, यहाँ तक कि कोठरी में बन्द कर देने पर भी आप कोठरी से गायब थे। तलाश करने पर आप एक बाग़ में मिले। आप गजलें सुन्दर स्वर में पढ़ लेते थे और पढ़ते-पढ़ते बेहोश हो जाते थे।
मुंशी नादिर हुसेन साहब जो वारसी दरबार के पुराने होने का सम्मान रखते हैं, कहते है कि मौलवी अजीजुद्दीने साहब जो देवा शरीफ के तालुकदार थे ब्यान करते थे कि एक बार हम और मिट्ठन मियां (हुजूर का बचपन का नाम) बाग़ की सैर कर रहे थे। हमने कहा मिट्ठन मियां कोई गजल पढ़िए आप गजल पढ़ते ही चीख़ मारकर गिर पड़े। मुँह से झाग आने लगा। हम ऐसा देख कर बहुत भयभीत हुए और मारे डर के घर भागे। जब दूसरे दिन प्रातः भेट हुई तो हमारी जान में जान आयी।
इसी बाल्यावस्था की बात है:- देवा शरीफ़ में शाह अब्दुल मुनईम महोदय के मजार पर एक फ़कीर बैठे आँखे बन्द किए ध्यान में थे। जब फ़कीर ने अपना ध्यान तोड़ा तो आपने कहा कि शाह साहब क्या कर रहे थे? फ़कीर ने कहा कि मैं अपने गुरूं का ध्यान कर रहा था। आपने कहा जब तुमने अपनी आंखे बन्द कर ली थी तो फिर क्या देखते ? क्या तुमने नहीं सुना है-“मन काना फी हाजेही आमा फ होवा फिल आखिरते आमा (जो यहाँ अन्धा है वह आखिरत में भी अन्धा रहेगा)। यदि खोज सत्य है और शौक परिपूर्ण है तो कण-कण में परमात्मा का दर्शन हो सकता है। बचपन में आपकों तैराकी का बड़ा शौक था और बड़ी उम्र तक आप तालाब में डुबकी लागाकर बहुत देर तक तैरते रहते थे। बचपन में ही आप की जप-तप की बातें लोगों की जबान पर आ गयी थीं। आप अब्दुल मुनईम शाह के मजार पर जाते और सारी रात ख़ुदा के स्मरण और याद में लगे रहते थे। यदि किसी के लिए कुछ कह देते तो वही होता था। इस भांति सभी लोग आपके यश से प्रभावित थे और सभी आपकी इज्जत करते थे। आप खेल-कूद से घृणा करते थे। आपका खेल था रूपयेपैसे घर से लेकर बच्चों में बांटना और कभी-कभी लोकई हलुवाई से एक रुपये का एक बताशा बड़ा सा बनवाकर तोड़-तोड़कर बच्चों को बांटना। आप स्वयं कहा करते थे कि हमारी दादी के पास अशरफियां बहुत थीं, हम उनमें से निकाल लाते थे और एक-एक अशर्फी देखकर लोकई से एक बड़ा सा बताशा बनवाकर बच्चों को बांट देते थे। देखने में यह कथा एक साधारण सी बात है किन्तु यह बहुत सी असाधारण खूबियों से भरी है। प्रथम यह कि हुजूर एक दीन हलुवाई की पर्दे की ओट से पोषण करते थे। बच्चों पर नि:स्वार्थ दया और सहानुभूति का अद्वितीय मिसाल है। बालावस्था से ही आपको धन, सम्पत्ति, माल और असबाब से कोई लगाव नहीं, बल्कि घृणा थी। आप भोले पन से कहते थे कि न्याय की शर्त यही है कि सोने-चांदी के बराबर मिठाई खरीदी जाय। विशेष अवस्था में कहते थे माल और चांदी-सोना फकीरों को नहीं चाहिए। इसकी सत्यता इस प्रकार देखी गई कि दादी साहिबा की मृत्यु के पश्चात् चालिस दिन के भीतर ही आपने अपना सारा धन और सम्पत्ति जो कुछ भी थी, सब दीन-दुखियों को दान कर दिया।

