
अल्लाह के रसूल सल्ल० ने फ़ौज में प्राण फूंका
इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एलान फ़रमाया कि जब तक आप सल्ल० हुक्म न दें, लड़ाई शुरू न की जाए। आपने ऊपर-नीचे दो कवच पहन रखे थे।
अब आपने सहाबा किराम को लड़ाई पर उभारते हुए ताकीद फ़रमाई कि जब दुश्मन से टकराव हो, तो साहस और धैर्य से काम लें। आपने उनमें वीरता और बहादुरी का प्राण फूंकते हुए एक बड़ी तेज़ नंगी तलवार को चमकाया और फ़रमाया, कौन है जो इस तलवार को लेकर इसका हक़ अदा करे ?
इस पर कई सहाबा तलवार लेने के लिए लपक पड़े, जिनमें अली बिन अबी तालिब रज़ि०, जुबैर बन अव्वाम रज़ि० और उमर बिन खत्ताब रज़ि० भी थे। लेकिन अबू दुजाना सिमाक बिन खरशा रज़ियल्लाहु अन्हु ने आगे बढ़कर अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० ! इसका हक़ क्या है ?
जाए, आपने फ़रमाया, इससे दुश्मन के चेहरे को मारो, यहां तक कि यह टेढ़ी हो
उन्होंने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० ! मैं इस तलवार को लेकर इसका हक़ अदा करना चाहता हूं ।
आपने तलवार उन्हें दे दी।
अबू दुजाना रज़ियल्लाहु अन्हु बड़े जांबाज़ थे। लड़ाई के वक़्त अकड़ कर चलते थे। उनके पास एक लाल पट्टी थी। जब उसे बांध लेते तो लोग समझ जाते कि वह अब मौत तक लड़ते रहेंगे।
चुनांचे जब उन्होंने तलवार ली तो सर पर पट्टी भी बांध ली और दोनों फ़रीक़ों की सफ़ों के दर्मियान अकड़ कर चलने लगे। यही मौका था, जब अल्लाह के रसूल सल्ल० ने इर्शाद फ़रमाया कि यह चाल अल्लाह को नापसन्द है, लेकिन इस जैसे मौक़े पर नहीं ।
मक्की फ़ौज का गठन
मुश्किों ने भी सफ़बन्दी ही के नियम पर अपनी फ़ौज को ततींब दिया था और उसका गठन किया था। उनका सेनापति अबू सुफ़ियान था, जिसने फ़ौज के बीच में अपना केन्द्र बनाया था। दाहिने बाजू पर खालिद बिन वलीद थे जो अभी तक मुश्रिक थे। बाएं बाज़ू पर इक्रिमा बिन अबू जहल था। पैदल फ़ौज की कमान सफ़वान बिन उमैया के पास थी और तीरंदाज़ों पर अब्दुल्लाह बिन रबीआ मुक़र्रर हुए।
झंडा बनू अब्दुद्दार की एक छोटी-सी टुकड़ी के हाथ में था। यह पद उन्हें उसी वक़्त से हासिल था जब बनू अब्द मुनाफ़ ने कुसई से विरासत में पाए हुए
पदों को आपस में बांट लिया था, जिसका विवरण शुरू किताब में गुज़र चुका है। फिर बाप-दादा से जो चलन चला आ रहा था, उसे देखते हुए कोई व्यक्ति इस पद के बारे में उनसे झगड़ भी नहीं सकता था।
लेकिन सेनापति अबू सुफ़ियान ने उन्हें याद दिलाया कि बद्र के मैदान में उनका झंडाबरदार नज्ज्र बिन हारिस गिरफ़्तार हुआ तो कुरैश को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था और इस बात को याद दिलाने के साथ ही उनका गुस्सा भड़काने के लिए कहा,
‘ऐ बनी अब्दुद्दार ! बद्र के दिन आप लोगों ने हमारा झंडा ले रखा था, तो हमें जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, वह आपने देख ही लिया है। वास्तव में फ़ौज पर झंडे की ही ओर ज़ोर होता है। जब झंडा गिर पड़ता है, तो फ़ौज के क़दम उखड़ जाते हैं। पस अब की बार या तो आप लोग झंडा ठीक तौर से संभालें या हमारे और झंडे के बीच से हट जाएं। हम इसका इंतिज़ाम खुद कर लेंगे।’
इस बातचीत से अबू सुप्रियान का जो उद्देश्य था, उसमें वह सफल रहा, क्योंकि उसकी बात सुनकर बनू अब्दुद्दार को बड़ा ताव आया। उन्होंने धमकियां दीं, लगता था कि उस पर पिल पड़ेंगे।
कहने लगे, हम अपना झंडा तुम्हें देंगे ? कल जब टक्कर होगी तो देख लेना कि हम क्या करते हैं ?
और वाक़ई जब लड़ाई शुरू हुई तो वे पूरी बहादुरी से जमे रहे, यहां तक कि उनका एक-एक आदमी मौत के घाट उतर गया।
कुरैश की राजनीतिक चाल
लड़ाई शुरू होने से कुछ पहले कुरैश ने मुसलमानों की पंक्ति में फूट डालने और टकराव पैदा करने की कोशिश की। इस मक्सद के लिए अबू सुफ़ियान ने अंसार के पास यह सन्देश भेजा कि आप लोग हमारे और हमारे चचेरे भाई (मुहम्मद) के बीच से हट जाएं, तो हमारा रुख भी आपकी ओर न होगा, क्योंकि हमें आप लोगों से लड़ने की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन जिस ईमान के आगे पहाड़ भी नहीं ठहर सकते, उसके आगे यह चाल कैसे सफल हो सकती थी ? चुनांचे अंसार ने उसे बहुत कड़ा जवाब दिया और खूब कडुवा-कसैला सुनाया।
फिर शून्य समय क़रीब आ गया और दोनों सेनाएं एक-दूसरे से क़रीब आ गई तो कुरैश ने इस मकसद के लिए एक और कोशिश की, यानी उनका एक घटिया व्यक्ति अबू आमिर फ्रासिक़ मुसलमानों के सामने ज़ाहिर हुआ। उस व्यक्ति का नाम,
अब्द अम्र बिन सैफ़ी था और उसे राहिब (सन्यासी) कहा जाता था, लेकिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसका नाम फ़ासिक़ रख दिया।
यह अज्ञानता युग में औस क़बीले का सरदार था, लेकिन जब इस्लाम का आना-आना हुआ, तो इस्लाम उसके गले की फांस बन गया और वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के खिलाफ खुलकर दुश्मनी पर उतर गया। चुनांचे वह मदीना से निकलकर कुरैश के पास पहुंचा और उन्हें आपके ख़िलाफ़ भड़का-भड़का कर लड़ाई पर तैयार कर लिया और यक़ीन दिलाया कि मेरी क़ौम के लोग मुझे देखेंगे तो मेरी बात मान कर मेरे साथ हो जाएंगे।
चुनांचे यह पहला व्यक्ति था जो उहुद के मैदान में अहाबीश और मक्का वासियों के दासों के साथ मुसलमानों के सामने आया और अपनी क़ौम को पुकार कर अपना परिचय कराते हुए कहा-
‘औस क़बीले के लोगो ! मैं अबू आमिर हूं।’
उन लोगों ने कहा, ‘ओ फ़ासिक़ ! अल्लाह तेरी आंख को खुशी न नसीब करे ।’
उसने यह जवाब सुना तो कहा, ओहो ! मेरी क़ौम मेरे बाद शरारत पर उतर आई है। (फिर जब लड़ाई शुरू हुई तो उस व्यक्ति ने बड़ी जोरदार लड़ाई लड़ी और मुसलमानों पर जमकर पत्थर बरसाए ।)
इस तरह क़ुरैश की ओर से ईमान वालों की सफ़ों में फूट डालने की दूसरी कोशिश भी नाकाम रही। इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि तायदाद की अधिकता और साज़ व सामान की बहुतायत के बावजूद मुश्किों के दिलों पर मुसलमानों का कितना भय और उनका कैसा आतंक छाया हुआ था।
जोश और हिम्मत दिलाने के लिए कुरैशी औरतों की कोशिशें
उधर कुरैशी औरतें भी लड़ाई में अपना हिस्सा अदा करने उठीं। उनका नेतृत्त्व अबू सुफ़ियान की बीवी हिन्द बिन्त उत्बा कर रही थी। इन औरतों ने सफ़ों में घूम-घूमकर और दफ़ पीट-पीटकर लोगों को जोश दिलाया, लड़ाई के लिए भड़काया, योद्धाओं के स्वाभिमान को ललकारा और नेज़ा मारने, तलवार चलाने, मार-धाड़ करने और तीर चलाने के लिए भावनाओं को उभारा, कभी वे झंडाबरदारों को सम्बोधित करके यों कहती-
‘देखो बनी अब्दुद्दार !
देखो पीठ के पासदार !
खूब करो तलवार का वार ! और कभी अपनी क़ौम को लड़ाई का जोश दिलाते हुए यों कहतीं- ‘अगर आगे बढ़ोगे तो हम गले लगाएंगी, और क़ालीनें बिछाएंगी, और अगर पीछे हटोगे, तो रूठ जाएंगी, और अलग हो जाएंगी।’
लड़ाई का पहला ईंधन
इसके बाद दोनों फ़रीक़ बिल्कुल आमने-सामने और क़रीब आ गए और लड़ाई का मरहला शुरू हो गया।
लड़ाई का पहला ईंधन मुश्किों का झंडाबरदार तलहा बिन अबी तलहा अब्दरी बना। यह व्यक्ति क़ुरैश का अति वीर योद्धा था। उसे मुसलमान ‘कबशुल कतीबा’ (फ़ौज का मेंढा) कहते थे। यह ऊंट पर सवार होकर निकला और लड़ने के लिए ललकारा।
उसकी वीरता देखते हुए आम सहाबा कतरा गए। लेकिन हज़रत ज़ुबैर रज़ि० आगे बढ़े और एक क्षण देर किए बिना शेर की तरह छलांग लगा कर ऊंट पर जा चढ़े। फिर उसे अपनी पकड़ में लेकर ज़मीन में कूद गए और तलवार से उसका वध कर दिया।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह उत्साहवर्द्धक दृश्य देखा तो मारे खुशी के अल्लाहु अक्बर का नारा लगाया। मुसलमानों ने अल्लाहु अक्बर का नारा लगाया, फिर आपने हज़रत ज़ुबैर रज़ि० की प्रशंसा की और फ़रमाया कि हर नबी का एक हवारी होता है और मेरे हवारी जुबैर हैं।

