अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 50

मदनी दौर में दावत व जिहाद के मरहले

मदनी दौर को तीन मरहलों में बांटा जा सकता है—

1. पहला मरहला

इस्लामी समाज की बुनियाद रखने का मरहला, जिसमें फ़िने पैदा किए गए, परेशानियां बढ़ाई गईं, अन्दर से रुकावटें खड़ी की गईं और बाहर से दुश्मनों ने मदीना को नेस्त व नाबूद करने के लिए चढ़ाइयां कीं ।

यह मरहला मुसलमानों के ग़लबे और स्थिति पर क़ाबू पाने के साथ ही हुदैबिया समझौते पर (जीकादा सन् 06 हि०) खत्म हो जाता है।

2. दूसरा मरहला

जिसमें बड़े दुश्मन से समझौता हुआ। यह मरहला मक्का विजय रमज़ान सन् 08 हि० पर खत्म होता है।

3. तीसरा मरहला

जिसमें अल्लाह के बन्दे अल्लाह के दीन में गिरोह-दर-गिरोह दाखिल हुए। यही मरहला मदीने में क़ौमों और क़बीलों के प्रतिनिधिमंडलों के आने का मरहला है। यह मरहला अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मुबारक ज़िंदगी के आखिर तक यानी रबीउल अव्वल सन् 11 हि० तक फैला हुआ है।

हिजरत के समय मदीना के हालात

हिजरत का मतलब सिर्फ़ यही नहीं था कि फ़िल्मों से और मज़ाक़ का निशाना बनने से निजात हासिल कर ली जाए, बल्कि इसमें यह मतलब भी शामिल था कि एक अमन वाले इलाक़े के अन्दर एक नए समाज के गठन में मदद की जाए। इसीलिए इसे हर समर्थ मुसलमान का कर्त्तव्य कहा गया था कि इस नए वतन के बनाने में हिस्सा ले और उसकी मज़बूती, हिफ़ाज़त, और उसको ऊंचा उठाने में अपनी कोशिश लगाए ।

यह बात तो क़तई तौर पर मालूम है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ही इस समाज के गठन के इमाम, कर्त्ता-धर्ता और रहनुमा थे और किसी विवाद के बिना ही सारे मामलों की बागडोर आप ही के हाथ में थी ।

मदीना में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को तीन तरह की क़ौमों से वास्ता पड़ा, जिनमें से हर एक के हालात दूसरे से बिल्कुल अलग थे और हर एक क़ौम के ताल्लुक़ से कुछ खास मसले थे, जो दूसरी क़ौमों के मसलों से अलग थे। ये तीनों क़ौमें नीचे लिखी जा रही हैं-

1. आपके पाकबाज़ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अजमईन की चुनी हुई और सब में नुमायां जमाअत,

2. मदीने के पुराने और असली क़बीलों से ताल्लुक़ रखने वाले मुश्रिक, जो अब तक ईमान नहीं लाए थे,

3. यहूदी ।

1. सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के ताल्लुक़ से आपको जिन समस्याओं का सामना था, उनकी व्याख्या यह है कि उनके लिए मदीने के हालात मक्का के हालात से क़तई तौर पर अलग थे। मक्के में उनका कलिमा एक था और उनका उद्देश्य भी एक था, मगर वे खुद अलग-अलग घरानों में बिखरे हुए थे और मजबूर, परेशान और ज़लील व कमज़ोर थे। उनके हाथ में किसी तरह का कोई अधिकार न था। सारे अधिकार दीन के दुश्मनों के हाथ में थे और दुनिया का कोई भी इंसानी समाज जिन हिस्सों और ज़रूरी चीज़ों से क़ायम होता है, मक्का के मुसलमानों के पास वे हिस्से सिरे से थे ही नहीं कि उनकी बुनियाद पर किसी नए इस्लामी समाज का गठन किया जा सके।

इसलिए हम देखते हैं कि मक्की सूरतों में सिर्फ इस्लाम की आरंभिक बातों का विवरण दिया गया है और सिर्फ ऐसे आदेश दिए गए हैं जिन पर हर आदमी अकेले

अमल कर सकता है। इसके अलावा नेकी, भलाई और अच्छे अख़लाक़ पर उभारा गया है और नीच और घटिया कामों से बचने की ताकीद की गई है।

इसके ख़िलाफ़ मदीने में मुसलमानों की बागडोर पहले ही दिन से खुद उनके अपने हाथ में थी। उन पर किसी दूसरे का क़ब्ज़ा न था। इसलिए अब वक़्त आ गया था कि मुसलमान संस्कृति, समाज, अर्थ, राजनीति, शासन और सुलह और लड़ाई की समस्याओं का सामना करें और उनके लिए हलाल व हराम और इबादत व अख्लाक वग़ैरह जिंदगी के मसलों को भरपूर तरीक़े से स्पष्ट किया जाए।

वक़्त आ गया था कि मुसलमान एक नया समाज यानी इस्लामी समाज बनाएं जो जिंदगी के तमाम मरहलों में जाहिली समाज से अलग और इंसानों में मौजूद किसी भी दूसरे समाज से नुमायां हो और उस इस्लामी दावत का नुमाइन्दा हो, जिसकी राह में मुसलमानों ने दस साल तक तरह-तरह की मशक्कतें और मुसीबतें सहन की थीं।

ज़ाहिर है कि इस तरह के किसी समाज का गठन एक दिन, एक महीना या एक साल में नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए एक लम्बी मुद्दत चाहिए होती है, ताकि उसमें धीरे-धीरे और एक-एक करके आदेश दिए जाएं और क़ानून बनाने का काम अभ्यास, ट्रेनिंग और व्यावहारिक तौर पर लागू करने के साथ-साथ पूरा किया जाए।

अब जहां तक आदेश और क़ानून देने और बनाने का मामला है, तो अल्लाह इसे खुद पूरा करने वाला था और जहां तक इनके लागू करने और मुसलमानों की तर्बियत और रहनुमाई का मामला है, तो इस पर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लगे हुए थे। चुनांचे इर्शाद है—

‘वही है जिसने उम्मियों (अपढ़ों) में खुद उन्हीं के अन्दर से एक रसूल भेजा जो उन पर अल्लाह की आयतें तिलावत करता है और उन्हें पाक व साफ़ करता है और उन्हें किताब व हिक्मत सिखाता है और ये लोग यक़ीनन पहले खुली गुमराही में थे।’ (62 : 2)

इधर सहाबा किराम रजि० का यह हाल था कि वे आपकी ओर पूरी तरह कान लगाए रखते और जो आदेश आता, उससे अपने आपको जोड़कर खुशी महसूस करते, जैसा कि इर्शाद है-

‘जब उन पर अल्लाह की आयतें तिलावत की जाती हैं, तो उनके ईमान को बढ़ा देती हैं।’ (8:2)

चूंकि इन तमाम समस्याओं का विवरण देना हमारे सामने नहीं है, इसलिए -हम इस पर ज़रूरत के मुताबिक़ बातें करेंगे।

अर-रहीकुल मख़्तूम

बहरहाल यही सबसे बड़ी समस्या थी, जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने मुसलमानों के ताल्लुक़ से थी और बड़े पैमाने पर यही इस्लामी दावत और मुहम्मदी रिसालत का अभिप्राय भी था, लेकिन यह कोई हंगामी समस्या न थी, बल्कि हमेशा की और मुस्तकिल समस्या थी, अलबत्ता इसके अलावा कुछ दूसरी समस्याएं भी थीं, जो फ़ौरी ध्यान चाहती थीं। संक्षेप में उनकी स्थिति स्पष्ट की जा रही है।

मुसलमानों की जमाअत में दो तरह के लोग थे-

एक वे जो खुद अपनी ज़मीन, अपने मकान और अपने मालों के साथ रह रहे थे और इस बारे में उनको इससे ज़्यादा चिन्ता न थी, जितनी किसी आदमी को अपने घर वालों में अम्न व सुकून के साथ रहते हुए करनी पड़ती है। यह अंसार का गिरोह था और इनमें पीढ़ियों से आपस में बड़ी ज़ोरदार दुश्मनियां और नफ़रतें चली आ रही थी।

इसके पहलू ब पहलू दूसरा गिरोह मुहाजिरों का था, जो उन सारी सुविधाओं से महरूम था और लुट-पिटकर किसी न किसी तरह अल्लाह भरोसे मदीने पहुंच गया था। इनके पास न तो रहने के लिए कोई ठिकाना था, न पेट पालने के लिए कोई काम और न सिरे से किसी क़िस्म का कोई माल, जिस पर उनकी अर्थव्यवस्था खड़ी हो सके।

फिर इन पनाह लेने वाले मुहाजिरों की तायदाद कोई मामूली भी न थी और उनमें हर दिन बढ़ौतरी ही हो रही थी, क्योंकि एलान कर दिया गया था कि जो कोई अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान रखता है, वह हिजरत करके मदीना आ जाए और मालूम है कि मदीने में न कोई बड़ी दौलत है, न आमदनी के साधन, चुनांचे मदीने का आर्थिक सन्तुलन बिगड़ गया, और इसी तंगी-तुर्शी में इस्लाम दुश्मन ताक़तों ने भी मदीना का लगभग आर्थिक बहिष्कार कर दिया, जिससे आयात बन्द हो गया और स्थिति बहुत ज़्यादा संगीन हो गई।

  1. दूसरी क़ौम यानी मदीने के असल मुश्कि निवासियों का हाल यह था कि उन्हें मुसलमानों पर कोई बालादस्ती (श्रेष्ठता हासिल न थी। कुछ मुश्कि शक व शुबहे में पड़े हुए थे और अपने बाप-दादा के दीन को छोड़ देने में संकोच कर रहे थे, लेकिन इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ़ अपने दिल में

कोई दुश्मनी और दांव-घात नहीं रख रहे थे। इस तरह के लोग थोड़े दिनों बाद हो गए और खालिस और पक्के मुसलमान हो गए।
ही मुसलमान के रसूल

इसके ख़िलाफ़ कुछ ऐसे मुश्कि थे जो अपने सीने में अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों के खिलाफ सख्त कीना और दुश्मनी छिपाए हुए थे, लेकिन उन्हें मुक़ाबले में आने की जुर्रत न थी, बल्कि हालात को सामने रखते हुए आपसे मुहब्बत और खुलूस ज़ाहिर करने पर मजबूर थे। इनमें सबसे आगे अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल था, यह वह व्यक्ति जिसे बुआस की लड़ाई के बाद अपना सरदार बनाने पर औस व खज़रज ने सहमति दिखाई थी, हालांकि इससे पहले दोनों फ़रीक़ किसी के सरदार से सहमत नहीं हुए थे, लेकिन अब इसके लिए मूंगों का ताज तैयार किया जा रहा था, ताकि उसके सर पर शाही ताज रखकर उसकी बाक़ायदा बादशाही का एलान कर दिया जाए, यानी यह व्यक्ति मदीने का बादशाह होने ही वाला था कि अचानक अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आना-जाना हो गया और लोगों का रुख उसके बजाए आपकी ओर हो गया।

उसे एहसास था कि आप ही ने उसकी बादशाही छीनी है, इसलिए वह अपने दिल में आपके ख़िलाफ़ कड़ी दुश्मनी छिपाए हुए था। इसके बावजूद जब उसने बद्र की लड़ाई के बाद देखा कि हालात उसके मुताबिक़ नहीं हैं और वह शिर्क पर क़ायम रहकर अब दुनिया के फ़ायदों से भी महरूम हुआ चाहता है, तो उसने जाहिर में इस्लाम कुबूल करने का एलान कर दिया, लेकिन वह अब भी अन्दर से काफ़िर ही था। इसीलिए जब भी उसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों के खिलाफ़ किसी शरारत का मौक़ा मिलता, तो वह हरगिज़ न चूकता।

उसके साथी आमतौर से वे सरदार थे, जो उसकी बादशाही की छत्रछाया में बड़े-बड़े पदों की प्राप्ति की आशा लिए बैठे थे, पर अब उन्हें इससे महरूम हो जाना पड़ा था। ये लोग उस व्यक्ति के कामों में शरीक थे और उसकी योजनाओं लागू करने में उसकी मदद करते थे और इस मक़सद के लिए कभी-कभी नवजवानों और भोले-भाले मुसलमानों को भी तेज़ी से अपना साथी बना लेते थे । के (ग) तीसरी क़ौम यहूदी थी, जैसा कि गुज़र चुका है। ये लोग अशूरी और रूमी जुल्म व जब से भाग कर हिजाज़

में शरण लिए हुए थे।

ये वास्तव में इब्रानी थे, लेकिन हिजाज़ में शरण लेने के बाद उनका खान-पान, भाषा, और सभ्यता आदि बिल्कुल अरबी रंग में रंग गई थी, यहां तक कि उनके क़बीलों और लोगों के नाम भी अरबी हो गए थे और यहां तक कि


Leave a comment