कर्बला की बहादुर नायिकाएं हैं।

कर्बला की दास्तान दुनिया तक पहुंचाने में ज़ैनब बिन्ते अली की भूमिका पर हम बहुत बार पढ़ चुके हैं। लेकिन कर्बला में कई और ख़वातीन हैं जो इस अज़ीम जंग की बहादुर नायिकाएं हैं। वो न हों तो शायद दिलेरी के कई दस्तख़त तारीख़ में दर्ज हो जाने से रह जाते। इनमें वहब ए क़ल्बी की मां क़मर और बीवी हानिया शामिल हैं।
वहब ए क़लबी मूलतः ईसाई थे। मुसाफिर थे। शादी करके लौट रहे थे। साथ नई ब्याहता और मां थीं। कूफा की सराय में ठहरे हुए थे। न इमाम हुसैन से कोई पुरानी मुलाक़ात और न मुसलमानों के किसी अहसान में दबे हुए। मगर ज़िंदा ज़मीर हैं। बाज़ार में चर्चाएं सुनीं कि लश्कर कर्बला भेजे जा रहे हैं। गवर्नर ने ऐलान किया है कोई लड़ाई लायक़ जवान बस्ती में नज़र न आए। सब के सब मुसलमानों के ख़लीफा की इताअत के वास्ते मैदाने जंग में जाएं।
ये सब सुना तो अफसोस में डूब गए। सराय लौटकर बीवी से कहा अजीब लोग हैं। जिसका कलमा पढ़ रहे हैं उसी के नवासे के क़त्ल पर आमादा हैं। बीवी ने कहा हमें, क्या? हम न इन्हें जानते और न उन्हें। इसपर वहब ने कहा, किसी को जानना न जानना अलग है, लेकिन हक़ और नाहक़ भी तो कुछ होता है? अगर मेरा बस चलता तो हुसैन की हिफाज़त के  लिए अभी कर्बला चला जाता।
बीवी ने गहरी सांस ली और कहा कि आपको हक़ किस तरफ नज़र आता है? ज़ाहिर है, हुसैन की तरफ। हाकिम बेईमान है, वहब ने कहा।
इसपर बीवी ने कहा कि जब इतनी समझ है तो कौन सी बात तुम्हें कर्बला जाने से रोक रही है? मौत का डर?
नहीं। अभी मैं शादी करके लौट रहा हूं। रास्ते में हूं। तुम्हारा क्या होगा?
वही, जो अरब की औरतों का होता है। अगर तुम यहां से लौट गए तो ज़िंदगी भर शर्म, निदामत और अफसोस रहेगा। लड़ते हुए शहीद भी हो गए तो इज़्ज़त से सिर उठाकर रहूंगी।
लेकिन…
लेकिन कुछ नहीं। मैं दोबारा शादी नहीं करूंगी। हश्र में हम दोनों का फिर सामना होगा। वहब के दिल में उमंग उठी मगर एक बार फिर मां का ख़्याल आया। मां को सारी बात बताई। उम्मे वहब ने भी वही जवाब दिया जो हानिया का था। अगर तुम्हें अहसास है कि यहां हक़ और नाहक़ पर लड़ाई है तो फिर ये जंग लड़ना तुमपर फर्ज़ है। अगर तुम यहां से पीठ दिखाकर भागे तो फिर लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे?
यहां से तीनों मां बेटे कूफियों के एक क़ाफिले में शामिल होकर कर्बला पहुंचे।
कर्बला में वहब ने शुजाअत के जौहर दिखाए। बेहतरीन तलवारबाज़ थे। आमने-सामने की लड़ाई में कोई न टिकता था। दुश्मन ने देखा तो घेरकर मारने का मंसूबा बनाया। दुश्मनों की भीड़ में घिरे वहब पर किसी न पीछे से वार किया। सिर धड़ से अलग हो गया।
तबरी, इमाम सुयुति, और इब्ने असीर की तारीख़ के अलावा अबु मक़नाफ का मक़तल बताता है कि शिम्र ने वहब का कटा सिर हुसैन के लश्कर की तरफ फेंका। दूर खड़ी मां ये मंज़र देख रही थी। भाग कर बेटे का सिर उठा लिया। उम्मे वहब ने अपने इकलौते बेटे का सिर ये कहते दुश्मन की तरफ वापस फेंक दिया कि सदक़ा की हुई चीज़ें वापस नहीं ली जातीं।
दुनिया ने वहब की शुजाअत देखी लेकिन क़र और हानिया के त्याग, वफा, और हिम्मत की दूसरी मिसाल आसानी से नहीं मिलती। वहब का परिवार इस बात की भी दलील है कि हक़ और नाहक़ की पहचान के लिए मज़हब की बंदिश नहीं है। वहब का क़त्ल करने वाले लश्कर की कमान जिस अम्र (उमर) के हाथ है उसके बाप साद बिन अबी वक़ास अशरा ए मुबश्शेरा के सहाबी हैं। रसूल ए करीम (सअ) के क़रीबी लोगों में गिने जाते हैं। कूफा शहर उनका बसाया है तो इराक़ के सम्मानजनक व्यक्ति हैं। माविया और यज़ीद से रिश्तेदारी के बावजूद इमाम अली (अस) के मुक़ाबिल आने से बचते रहे हैं। लेकिन बेटे ने रै की जागीर के वादे पर अपनी और अपने बाप की इज़्ज़त नीलाम कर दी।
दूसरी तरफ वहब है जो मुसलमान नहीं है लेकिन दिल में जज़्बा ए ईमान लिए घूम रहा है। पहचानने की सलाहियत है कि हक़ किधर है। जानते हैं हक़-नाहक़ के मसले पर जान से गुज़र जाना इंसानी फरीज़ा है। वहब का या उनके बाप का नबी ए करीम (सअ) से सामना नहीं हुआ। लेकिन जब क़िस्मत ने मौक़ा दिया, उसने हक़ का रास्ता चुन लिया। नबी से क़रीबी का दावा करने वाला अम्र हक़ और नाहक़ न पहचान पाया। दुनियावी फायदे के लिए नबी के बच्चों के क़त्ल की लानत अपने गले में लटका कर जहन्नम चला गया।
इससे ये भी साबित होता है कि दीन पांच वक़्त के सज्दों, नबी से क़ुरबत के दावों या फिर दाढ़ी-टोपी के दिखावों में नहीं है। दीन अमल में है, किरदार में है और आख़िरी सांस तक हक़ के रास्ते पर टिके रहने में है।

#LessonsOfKarbala

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