इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को खत लिखकर बुलाने वाला ईमाम बुखारी के नजदीक सहाबी ए रसूल है..

🔥 इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को खत लिखकर बुलाने वाला ईमाम बुखारी के नजदीक सहाबी ए रसूल है..🔥

✍️ इमाम इब्ने असीर जजरी ने उस्दुल गाबा और तारीख ए कामिल में, सिब्त इब्ने ज़ौजी ने तजकिरातुल ख्वास में, इमाम अब्दुल बर्र ने अल इसतियाब में, इमाम इब्ने हज़र अस्क़लानी ने ‘अल इसाबा फी तम्यीजुस्सहाबा’ में और इसके अलावा तारीख ए आसम कूफी वगैरह में है कि हुसैन अलैहिस्सलाम को खत लिखकर बुलाने वालों में सुलेमान बिन सुर्द मशहूर था और इसी के घर पर लोगों ने मीटिंग करके उपाय निकाला कि किस तरह से हुसैन अलैहिस्सलाम को यहां बुलाया जाए.??
जैसे कि उस्दुल गाबा में इसके बारे में है कि “ये उन लोगों में है जिन्होंने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को माविया की वफात के बाद कूफा में बुलाया था और जब वो कूफा में आए तो उनके साथ होकर ना लड़े।”
सिब्त इब्ने ज़ौजी ने तजकिरातुल हुफ्फाज़ में और इमाम इब्ने असीर जजरी ने तारीख ए कामिल में लिखा है कि “खत लिखने वालों में सुलेमान बिन सुर्द प्रमुख था और इसके बाद कूफा के बड़े बड़े लोगों ने भी खत लिखे और इसके बाद कूफा से खत कसरत से लिखे जाने लगे।”
इस कमीने सुलेमान बिन सुर्द से बुखारी ने सही बुखारी में पांच जगहों पर रिवायत लिया है और इमाम बुखारी ने ‘अल आदाब उल मुफरद’ में इसे अस्हाबुन्नबी (नबी का सहाबी) कहा है।
इमाम इब्ने जरीर तबरी ने तारीख ए तबरी के 60 हिजरी के बयान में लिखा है कि जब हुसैन अलैहिस्सलाम कूफा पहुंचे तो एक भला शख्स मिला जिसने कहा कि –
“हम आपको खुदा की कसम देते हैं कि अपनी जान का और अपने अहले बैत का ख्याल कीजिए कि इसी जगह से पलट जाएं। कूफा में ना कोई आपका यार-ओ-मददगार है और ना आपके शिया ही.., बल्कि हमें तो खौफ इस बात का है कि वो लोग आपकी मुखालिफत ना करें।”

तबरी ने अम्र बिन साद के खत को नकल किया है जिसमें उसने हुसैन अलैहिस्सलाम से वफा करने और साथ देने का वादा किया मगर जब कर्बला में जंग का आगाज हुआ तो सबसे पहला तीर इसी ने चलाया- अफसोस कि ये भी अहले सुन्नत के नजदीक सहाबी है।
पता चला कि जिस तरह आज मुसलमान के भेष में मुनाफिक छिपे हुए हैं उसी तरह उस समय भी मुनाफिकों ने शियाने-अली का लिबास ओढ़कर हुसैन अलैहिस्सलाम को धोखे से बुलाया और गद्दारी की।
ऐसा नहीं है कि कूफा में सभी एक जैसे थे मगर हुसैन अलैहिस्सलाम का साथ देने वाले बहुत थोड़े से लोग थे जिन्होंने हुसैन अलैहिस्सलाम का साथ देकर अपने शिया होने का हक अदा किया।
वाक्या कर्बला के बाद एक यजीदी सिपाही ने यजीद को शहादते हुसैन का मुबारकबाद देते हुए कहता है-
أَبْشِرْ يَا أَمِيرَ الْمُؤْمِنِينَ بِفَتْحِ اللَّهِ عَلَيْكَ وَنَصْرِهِ، وَرَدَ عَلَيْنَا الْحُسَيْنُ بْنُ عَلِيِّ بْنِ أَبِي طَالِبٍ وَثَمَانِيَةَ عَشَرَ مِنْ أَهْلِ بَيْتِهِ، 🔹وَسِتُّونَ رَجُلًا مِنْ شِيعَتِهِ🔹
👆यह बात इमाम इब्ने कसीर ने अल बिदाया वन निहाया के ग्यारहवीं जिल्द के सफा 556 पर लिखा है, यानि-
“ए यजीद आपको मुबारक हो, आपको फत्ह मिली है। हमने हुसैन को और इनके अहल में से अट्ठारह बंदों को कत्ल किया है और وَسِتُّونَ رَجُلًا مِنْ شِيعَتِهِ
उनके साथ उनके शिया भी कत्ल हुएं।”

आप खुद दिए गए लिंक को क्लिक करके सीधे उस सफे को पढ़ सकते हैं 👇
https://archive.org/details/Albidaya_Wannihaya/bn11/page/n555/mode/1up?view=theater

इसी तरह कूफा के बारे में एक शाफाई आलिमे दीन ‘मुहम्मद बिन उमर शाफाई’
(محمد بن عمر بن مبارك الحميري الحضرمي الشافعي)
अपनी एक किताब में लिखते हैं कि-
وكان آئمة علماء الکوفة الذي صحبوا عمر وعليا كعلقمة والاسود وشریح القاضی وغیرھم ، یرجعون قول عمر علی قول علي.

(الحسام المسلول على منتقصي أصحاب الرسول ,ص 38)
यानि, ‘कूफा में बड़े बड़े फुक्हा रहते थे हजरत उमर की सोहबत में, और हजरत अली की सोहबत में अलकमह, असवद और काजी सुरेह और इसके अलावा अन्य लोग थे लेकिन [वहां के लोग] हज़रत उमर के कौल को हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कौल पर तरजीह (वरीयता, प्रमुखता) देते थे।”

निष्कर्ष यह निकलता है कि पहले कूफा में जो भी लोग थे उनमें से कुछ लोग अली अलैहिस्सलाम के पैरोकार थे तो कुछ हजरत उमर रदी0 को मानने वाले थे मगर वहां की अक्सरियत हजरत उमर के कौल को अली अलैहिस्सलाम के कौल पर प्रमुखता देते थे..इस तरह वहां के शिया का अकीदा था।
किताब के सफे का लिंक 👇
https://archive.org/details/0407-pdf_202101/page/n37/mode/1up?view=theater

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