
8. साद बिन उबादा बिन वलीम,
9. मुन्जिर बिन अम्र बिन खनीस,
औस के नक़ीब 1. उसैद बिन हुजैर बिन समाक,
2. साद बिन खैसमा बिन हारिस,
3. रिफ्राआ बिन अब्दुल मुजिर बिन जुबैर ।
जब इन नक़ीबों को चुन लिया गया, तो इनसे सरदार और ज़िम्मेदार होने की हैसियत से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक और वचन लिया। आपने फ़रमाया-
‘आप लोग अपनी क़ौम के तमाम लोगों के निगरां हैं जैसे हवारी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की ओर से निगरां हुए थे और मैं अपनी क़ौम यानी मुसलमानों का निगरां हूं।’
उन सबने कहा, जी हां। 2
शैतान समझौते का पता देता है
समझौता पूरा हो चुका था और अब लोग बिखरने ही वाले थे कि एक शैतान को इसका पता लग गया। चूंकि यह भेद बिल्कुल अन्तिम क्षणों में खुला था और इतना मौक़ा न था कि यह खबर चुपके से कुरैश को पहुंचा दी जाए और वे अचानक इस सभा में शरीक लोगों पर टूट पड़ें और उन्हें घाटी ही में जा लें, इसलिए इस शैतान ने झट एक ऊंची जगह खड़े होकर पूरी ऊंची आवाज़ से, जो शायद ही कभी सुनी गई हो, यह पुकार लगाई—
‘खेमे वालों ! मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को देखो। इस वक़्त विधप उसके साथ हैं और तुमसे लड़ने के लिए जमा हैं।’
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया-
‘यह इस घाटी का शैतान है। ऐ अल्लाह के दुश्मन ! सुन, अब मैं तेरे लिए जल्द ही फ़ारिग़ हो रहा हूं।’
इसके बाद आपने लोगों से फ़रमाया कि वे अपने डेरों को चले जाएं 13
1. जुबैर ब पर सम्मिलित, कुछ लोगों ने ब की जगह न कहा है यानी जुनैर। कुछ लोगों ने रिफ्राआ के बदले अबुल हैसम बिन तैहान का नाम लिखा है।
2. इब्ने हिशाम 1/443, 444, 446
इब्ने हिशाम, 1/447, जादुल मआद 2/51
कुरैश पर चोट लगाने के लिए अंसार की मुस्तैदी
इस शैतान की आवाज़ सुनकर हज़रत अब्बास बिन उबादा बिन नज़ला ने फ़रमाया-
‘उस ज्ञात की क़सम, जिसने आपको हक़ के साथ भेजा है, आप चाहें तो हम कल मिना वालों पर अपनी तलवारों के साथ टूट पड़ें।’
आपने फ़रमाया, हमें इसका हुक्म नहीं दिया गया है। पस आप लोग अपने डेरों में चले जाएं, इसके बाद लोग वापस जाकर सो गए, यहां तक कि सुबह हो गई ।
यसरिब के सरदारों से क़ुरैश का विरोध
यह ख़बर कुरैश के कानों तक पहुंची तो बड़े दुखी हुए, एक हंगामा मच गया, क्योंकि इस जैसी बैअत का जो परिणाम उनकी जान व माल के ताल्लुक़ से निकल सकता था और जो नतीजे सामने आ सकते थे, इसका उन्हें अच्छी तरह अन्दाज़ा था।
चुनांचे सुबह होते ही उनके सरदार और बड़े चौधरियों के एक बड़े दल ने इस समझौते के खिलाफ़ कड़े विरोध के लिए यसरिब वालों के खेमों का रुख किया और यों अपने दिल की भड़ास निकाली-
‘खज़रज के लोगो ! हमें मालूम हुआ है कि आपके लोग हमारे इस साहब को हमारे बीच से निकाल ले जाने के लिए आए हैं और हमसे लड़ाई करने के लिए उसके हाथ पर बैअत कर रहे हैं, हालांकि कोई अरब क़बीला ऐसा नहीं जिससे लड़ाई करना हमारे लिए इतना ज़्यादा नागवार हो, जितना आप लोगों के लिए है। 2
कुछ लेकिन चूंकि खज़रजी मुश्कि इस बैअत के बारे में सिरे से जानते ही न थे, क्योंकि यह पूरी राज़दारी के साथ रात के अंधेरे में हुई थी, इसलिए इन मुश्रिकों ने अल्लाह की क़सम खा-खाकर यक़ीन दिलाया कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है, हम इस तरह की कोई बात सिरे से जानते ही नहीं ।
अन्ततः यह दल अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल के पास पहुंचा। वह भी कहने लगा, यह झूठ है। ऐसा नहीं हुआ है और यह तो हो ही नहीं सकता कि
1. इब्ने हिशाम 1/448 2. वही, 1/448
मेरी क़ौम मुझे छोड़कर इस तरह काम कर डाले। अगर मैं यसरिब में होता, तो मुझसे मश्विरा किए बिना मेरी क़ौम ऐसा न करती।
बाक़ी रहे मुसलमान, तो उन्होंने कनखियों से एक दूसरे को देखा और चुप साध ली। इनमें से किसी ने हां या नहीं के साथ जुबान ही नहीं खोली। आखिर कुरैश के सरदारों का रुझान यह रहा कि मुश्किों की बात सच है, इसलिए वह नामुराद वापस चले गए
ख़बर पर विश्वास हो जाने के बाद.
मक्का के सरदार लगभग इस यक़ीन के साथ पलटे थे कि यह खबर ग़लत है, लेकिन उसकी कुरेद में वे बराबर लगे रहे, अन्ततः उन्हें यह निश्चित रूप से मालूम हो गया कि खबर सही है और बैअत हो चुकी है, लेकिन यह पता उस वक़्त चला जब हज वाले अपने-अपने वतन रवाना हो चुके थे, इसलिए उनके सवारों ने तेज़ रफ़्तारी से यसरिब वालों का पीछा किया, लेकिन मौक़ा निकल चुका था।
अलबत्ता उन्होंने ‘साद बिन उबादा और मुन्ज़िर बिन अम्र को देख लिया और उन्हें जा खदेड़ा, लेकिन मुन्ज़िर ज़्यादा तेज़ रफ़्तार साबित हुए और निकल भागे, अलबत्ता साद बिन उबादा पकड़ लिए गए और उनका हाथ गरदन के पीछे उन्हीं के कजावे की रस्सी से बांध दिया गया, फिर उन्हें मारते-पीटते और बाल नोचते हुए मक्का ले जाया गया, लेकिन वहां मुतइम बिन अदी और हारिस बिन हर्ब बिन उमैया ने आकर छुड़ा दिया, क्योंकि इन दोनों के जो क़ाफिले मदीने से गुज़रते थे, वे हज़रत साद रजि० ही की पनाह में गुज़रते थे ।
इधर अंसार उनकी गिरफ़्तारी के बाद आपस में मश्विरा कर रहे थे कि क्यों न धावा बोल दिया जाए, मगर इतने में वह दिखाई पड़ गए। इसके बाद तमाम लोग खैरियत से मदीना पहुंच गए।”
कहते हैं। इस बैअत पर एक ऐसी फ़िज़ा में अमल शुरू हुआ जिसमें मुहब्बत, वफ़ादारी, ईमान वालों के आपसी सहयोग व सहायता, आपसी विश्वास और साहस, धैर्य और वीरता की भावनाएं छाई हुई थीं। चुनांचे यसरिबी मुसलमानों के दिल अपने कमज़ोर मक्की भाइयों की मुहब्बत से लबालब भरे हुए थे। उनके अन्दर इन भाइयों की हिमायत का जोश था और उन पर जुल्म करने वालों पर ग़म व गुस्सा था।
यही अक़बा की दूसरी बैअत है, जिसे अक़बा की बड़ी बैअत
1. ज़ादुल मआद 2/51-52, इब्ने हिशाम 1/448-450
उनके सीने अपने उस भाई की मुहब्बत से भरे हुए थे, जिसे देखे बिना सिर्फ़ अल्लाह की खातिर अपना भाई क़रार दे लिया था।
ये भावनाएं किसी सामयिक कारण का नतीजा न थीं, जो दिन गुज़रने के साथ-साथ खत्म हो जाती हैं, बल्कि इसका स्रोत अल्लाह पर ईमान, रसूल पर ईमान और किताब पर ईमान था, यानी वह ईमान जो जुल्म व ज़्यादती की किसी बड़ी से बड़ी ताक़त के सामने झुकता नहीं, वह ईमान कि जब उसकी ठंडी हवाएं चलती हैं, तो अक़ीदा व अमल में अनोखी बातें सामने आती हैं। उसी ईमान की बदौलत मुसलमानों के समय के चेहरे पर ऐसे-ऐसे कारनामे अंकित किए और ऐसी-ऐसी निशानियां छोड़ीं कि उनकी नज़ीर अब तक किसी दौर में नहीं मिल सकी है और संभवत: भविष्य में भी न मिल सकेगी।



