अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 40



“यह तो बहुत ही खूब और बहुत ही अच्छा है। तुम लोग किसी को इस दीन में दाखिल करना चाहते हो, तो क्या करते हो ?”

उन्होंने कहा, ‘आप नहा लें, कपड़े पाक कर लें, फिर हक़ की गवाही दें, फिर दो रक्अत नमाज़ पढ़ें ।’

1 उन्होंने उठ कर ग़ुस्ल (स्नान) किया, कपड़े पाक किए, कलिमा शहादत अदा किया और दो रक्अत नमाज़ पढ़ी, फिर बोले, ‘मेरे पीछे एक और व्यक्ति है अगर वह तुम्हारी पैरवी करने वाला बन जाए, तो उसकी क़ौम का कोई आदमी पीछे न रहेगा और मैं उसको अभी तुम्हारे पास भेज रहा हूं।’

(इशारा साद बिन मुआज़ की ओर था।)

इसके बाद हजरत उसैद ने अपना हथियार उठाया और पलट कर हज़रत साद के पास पहुंचे। वह अपनी क़ौम के साथ महफ़िल में तशरीफ़ रखते थे । (हज़रत उसैद को देखकर) बोले-

‘खुदा की क़सम ! मैं कह रहा हूं कि यह आदमी तुम्हारे पास जो चेहरा लेकर आ रहा है, यह वह चेहरा नहीं है, जिसे लेकर गया था।’

फिर जब हज़रत उसैद महफ़िल के पास आ खड़े हुए तो हज़रत साद ने उनसे पूछा कि तुमने क्या किया ?

उन्होंने कहा, मैंने उन दोनों से बात की, तो खुदा की क़सम ! मुझे कोई हरज तो नहीं नज़र आया। वैसे मैंने उन्हें मना कर दिया है और उन्होंने कहा कि हम वही करेंगे, जो आप चाहेंगे।

और मुझे मालूम हुआ है कि बनी हारिसा के लोग असद बिन जुरारा को क़त्ल करने गए हैं और इसकी वजह यह है कि वे जानते हैं कि असद आपकी खाला का लड़का है, इसलिए वे चाहते हैं कि आपका अहद तोड़ दें ।

यह सुनकर साद गुस्से से भड़क उठे और अपना नेज़ा लेकर सीधे उन दोनों के पास पहुंचे, देखा, तो दोनों इत्मीनान से बैठे हैं। समझ गए कि उसैद का मंशा यह था कि आप भी उनकी बातें सुनें, लेकिन यह उनके पास पहुंचे तो खड़े होकर सख्त-सुस्त कहने लगे, फिर असद बिन जुरारा को सम्बोधित करके बोले-

‘ख़ुदा की क़सम, ऐ अबू उमामा ! अगर मेरे और तेरे बीच रिश्तेदारी का मामला न होता तो तुम मुझसे इसकी उम्मीद न रख सकते थे। हमारे मुहल्ले में ऐसी हरकतें करते हो, जो हमें गवारा नहीं।’

इधर हज़रत असद ने हज़रत मुसअब से पहले ही से कह दिया था कि ख़ुदा की क़सम ! तुम्हारे पास एक ऐसा सरदार आ रहा है जिसके पीछे उसकी पूरी क़ौम है।

अगर उसने तुम्हारी बात मान ली, तो फिर उनमें से कोई भी न पिछड़ेगा।’

इसलिए हज़रत मुस्अब ने हज़रत साद से कहा, क्यों न आप तशरीफ़ रखें और सुनें। अगर कोई बात पसन्द आ गई तो कुबूल कर लें और अगर पसन्द न आई तो हम आपकी नापसंदीदा बात को आपसे दूर ही रखेंगे

हज़रत साद ने कहा, इंसाफ़ की बात कहते हो । इसके बाद अपना नेज़ा गाड़ कर बैठ गए।

हज़रत मुसअब ने उन पर इस्लाम पेश किया और कुरआन की तिलावत की । उनका बयान है कि हमें हज़रत साद के बोलने से पहले ही उनके चेहरे की चमक-दमक से उनके इस्लाम का पता लग गया। इसके बाद उन्होंने जुबान खोली और फ़रमाया, तुम लोग इस्लाम लाते हो, तो क्या करते हो ?

उन्होंने कहा, आप नहा लें, कपड़े पाक कर लें, फिर हक़ की गवाही दें, फिर दो रक्अत नमाज पढ़ें ।

हज़रत साद ने ऐसा ही किया। इसके बाद अपना नेजा उठाया और अपनी क़ौम की महफ़िल में तशरीफ़ लाए।

लोगों ने देखते ही कहा, हम ख़ुदा की क़सम ! कह रहे हैं कि हज़रत साद रज़ि० जो चेहरा लेकर गए थे, उसके बजाए दूसरा ही चेहरा लेकर पलटे हैं।

फिर जब हज़रत साद मज्लिस वालों के पास आकर रुके तो बोले, ‘ऐ बनी अब्दुल अशहल ! तुम लोग अपने अन्दर मेरा मामला कैसा जानते हो ?

उन्होंने कहा, आप हमारे सरदार हैं, सबसे अच्छी सूझ-बूझ के मालिक हैं और हमारे रब से बड़े बरकत वाले निगरां हैं।

उन्होंने कहा, अच्छा तो सुनो ! अब तुम्हारे मर्दों और औरतों से मेरी बातचीत हराम है, जब तक कि तुम लोग अल्लाह और उसके रसूल सल्ल० पर ईमान न लाओ ।

उनकी इस बात का यह असर हुआ कि शाम होते-होते इस क़बीले का कोई भी मर्द और कोई भी औरत ऐसी न बची, जो मुसलमान न हो गई हो। सिर्फ़ एक आदमी, जिसका नाम उसेरम था, उसका इस्लाम उहुद की लड़ाई तक स्थगित रहा। फिर उहुद के दिन उसने इस्लाम कुबूल किया और लड़ाई में लड़ता हुआ काम आ गया। उसने अभी अल्लाह के लिए एक सज्दा भी न किया था ।

नबी सल्ल० ने फ़रमाया कि उसने थोड़ा अमल किया और ज़्यादा अच्छा बदला पाया।
हज़रत ‘मुसअब रजि०, हज़रत असद बिन जुरारा रज़ि० ही के घर पर ठहरें रहकर इस्लाम की तब्लीग़ करते रहे, यहां तक कि अंसार का कोई घराना बाक़ी न बचा जिसमें कुछ मर्द और औरतें मुसलमान न हो चुकी हों, सिर्फ़ बनी उमैया बिन जैद और ख़त्मा और वाइल के मकान बाक़ी रह गये थे। प्रसिद्ध कवि कैस बिन असलत इन्हीं का आदमी था और ये लोग उसी की बात मानते थे। इस कवि ने खाई की लड़ाई (05 हि०) तक इन्हें इस्लाम से रोके रखा।

बहरहाल हज के अगले मौसम यानी तेहरवें नबवी के साल के हज का मौसम आने से पहले हज़रत मुसअब बिन उमैर की सफलता की खुशखबरियां लेकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में मक्का तशरीफ़ लाए और आपके यसरिब के क़बीलों के हालात उनकी जंगी और प्रतिरक्षात्मक क्षमताओं और भली योग्यताओं की बातें विस्तार में बताई ।’

इब्ने हिशाम 1/435-438, 2/90 ज़ादुल मआद 2/51

What is a Perfect Wali (Friend of Allah ﷻ) Like?

■ What is a Perfect Wali (Friend of Allah ﷻ) Like?

One sign of a true and perfect wali (a deeply beloved friend of Allah ﷻ) is that he’s not always chasing after what he wants.

Let me qoute a statement of Sidi Ali Jamal Shadhili ق in his Book ‘The meaning of man’:

“Among the attributes of the perfect wali is that he is not inneed of the state in which his Master has established him at the moment, i.e. what he desires, not what emerges from the element of power. It is not what his nafs desires.”

He doesn’t say:

“I want this feeling.”

“I want that spiritual high.”

“I want to be in this mood or that mood.”

Instead, he’s happy and content in whatever state Allah ﷻ places him in.

He doesn’t follow the desires of his nafs (ego/self).

He doesn’t demand power, pleasure, or control.

He just accepts, trusts, and surrenders to what Allah ﷻ chooses for him in that moment.

Now Sidi Ali Jamal Shadhili ق narrated a beautiful story in His Book (The meaning of man)

Some students were sitting with their spiritual guide, Shaykh al-Kamil, Sayyiduna Ahmad al-Yamani ق.

They had gotten into an argument about something deep:

“What’s the real meaning of being a wali (Friend of Allah ﷻ)?”

Each person had their own idea:

One said it’s about miracles.

Another said it’s about spiritual light.

Another said it’s about always feeling close to Allah ﷻ.

But they were all confused and didn’t agree.

So, they went to the Shaykh and said:

“Sayyidi, please, tell us clearly. What is wilaya (true closeness to Allah ﷻ)?”

And the Shaykh gave the most peaceful and simple answer:

❝Wilaya is… when the one who has it sits in the shade, his self doesn’t want to sit in the sun. And when he sits in the sun, his self doesn’t want to sit in the shade.❞

What does that mean?

It means: the true Friend of Allah ﷻ is at peace wherever he is.

If Allah ﷻ puts him in comfort (shade), he doesn’t long for challenge (sun).

If Allah ﷻ puts him in hardship (sun), he doesn’t long for ease (shade).

He is not always wishing for the opposite of what he has.

He doesn’t argue with destiny.

His heart says: ❝Whatever my Lord chooses for me is better than what I would have chosen for myself.❞

That stillness and surrender?
That’s real wilaya.