अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 36



‘तुम्हारी बर्बादी हो, तुम लोग ग़िफ़ार के अदमी को मारे दे रहे हो, हालांकि तुम्हारा कारोबार और कारोबारी रास्ता ग़िफ़ार ही से होकर जाता है।’

इस पर लोग मुझे छोड़कर हट गए।

दूसरे दिन सुबह हुई तो मैं फिर वहीं गया और जो कुछ कहा था, आज फिर कहा और लोगों ने फिर कहा, उठो, इस बेदीन की ख़बर लो।

इसके बाद फिर मेरे साथ वहीं हुआ जो कल हो चुका था और आज भी हज़रत अब्बास रज़ि० ही ने मुझे आकर बचाया। वह मुझ पर झुके और वैसी ही बात कही, जैसी कल कही थी।1

4. तुफ़ैल बिन अम्र दौसी—यह सज्जन कवि, सूझ-बूझ के मालिक और क़बीला दौस के सरदार थे। इनके क़बीले को यमन के आस-पास में सरदारी या लगभग सरदारी हासिल थी। वह नुबूवत के ग्यारहवें साल मक्का तशरीफ़ लाए, तो वहां पहुंचने से पहले ही मक्का वालों ने उनका स्वागत किया और बड़े आदर से सत्कार किया, फिर बोले-

ऐ तुफ़ैल ! आप हमारे नगर में पधारे हैं और यह व्यक्ति जो हमारे बीच है, इसने हमें बड़ी उलझनों में डाल रखा है। हमारे भीतर फूट डाल रखी है और हम बिखर कर रह गए हैं। इसकी बातों में जादू-जैसा प्रभाव है कि बेटे और बाप में, भाई और भाई में और मियां-बीवी में फूट डाल देता है। हमें डर लगता है कि जिस आज़माइश में हम घिरे हुए हैं, कहीं वह आप पर और आपकी क़ौम पर भी न आ पड़े। इसलिए आप इससे हरगिज़ बात न करें और इसकी कोई चीज़ न सुनें ।

हज़रत तुफ़ैल का इर्शाद है कि ये लोग मुझे बराबर इसी तरह की बातें समझाते रहे, यहां तक कि मैंने तै कर लिया कि न आपकी कोई चीज़ सुनूंगा, न आपसे बातचीत करूंगा, यहां तक कि जब मैं सुबह को मस्जिदे हराम गया तो कान में रूई ठूंस रखी थी कि कहीं कोई बात आपकी मेरे कान में न पड़ जाए। लेकिन अल्लाह को मंजूर था कि आपकी कुछ बातें मुझे सुना ही दे। चुनांचे मैंने बड़ा अच्छा कलाम सुना, फिर मैंने अपने जी में कहा-

हाय ! मुझ पर मेरी मां की चीख-पुकार ! में तो, खुदा की क़सम ! एक सूझबूझ रखने वाला कवि हूं, मुझ पर बुरा-भला छिपा नहीं रह सकता, फिर क्यों न मैं इस व्यक्ति की बात सुनूं? अगर अच्छी हुई तो कुबूल कर लूंगा, बुरी हुई तो छोड़ दूंगा ।

1. सहीह बुखारी, बाब क़िस्सा ज़मज़म 1/499-500, बाब इस्लाम अबूज़र 1/544-545
यह सोचकर मैं रुक गया और जब आप घर पलटे तो मैं भी पीछे हो लिया। आप अन्दर दाखिल हुए तो मैं भी दाखिल हो गया और आपको अपना आना, लोगों का भय दिलाना, फिर कान में रूई ठूंसना, फिर भी आपकी कुछ बातों का लेना ये सब बातें सविस्तार आपको बताई, फिर अर्ज़ किया कि आप अपनी बात पेश कीजिए। सुन

आपने मुझ पर इस्लाम पेश किया और कुरआन की तिलावत फ़रमाई। ख़ुदा गवाह है, मैंने इससे अच्छी बात और इससे ज़्यादा इंसाफ़ की बात कभी न सुनी थी। चुनांचे मैंने वहीं इस्लाम कुबूल कर लिया और हक़ की गवाही दी।

इसके बाद आपसे अर्ज़ किया कि मेरी कौम में मेरी बात मानी जाती है। मैं उसके पास पलट कर जाऊंगा और उन्हें इस्लाम की दावत दूंगा। इसके बाद आप अल्लाह से दुआ फरमाएं कि वह मुझे कोई निशानी दे दे।

आपने दुआ फ़रमाई ।

हज़रत तुफैल रज़ि० को जो निशानी मिली, वह यह थी कि जब वह अपनी क़ौम के क़रीब पहुंचे, तो अल्लाह ने उनके चेहरे पर चिराग़ जैसी रोशनी पैदा कर दी।

उन्होंने कहा, ऐ अल्लाह ! चेहरे के बजाए किसी और जगह ? मुझे अंदेशा है कि लोग इसे मुस्ला (चेहरे का विकृत होना) कहेंगे ।

चुनांचे यह रोशनी उनके डंडे में पलट गई। फिर उन्होंने अपने बाप और अपनी बीवी को इस्लाम की दावत दी और वे दोनों मुसलमान हो गए, लेकिन क़ौम ने इस्लाम अपनाने में देर की।

फिर भी हज़रत तुफ़ैल रज़ि० बराबर कोशिशें करते रहे, यहां तक कि खंदक़ की लड़ाई के बाद’, जब उन्होंने हिजरत फ़रमाई, तो उनके साथ उनकी क़ौम के सत्तर या अस्सी परिवार थे।

हज़रत तुफ़ैल रज़ि० ने इस्लाम में बड़े अहम कारनामे अंजाम देकर यमामा की लड़ाई में शहीद होने का पद प्राप्त किया 12

ज़िमाद अज़्दी—यह यमन के रहने वाले और क़बीला अज्दशनूआ के एक व्यक्ति थे । झाड़-फूंक करना और भूत-प्रेत उतारना उनका काम था। मक्का आए

1. बल्कि हुदैबिया के समझौते के बाद, क्योंकि जब वह मदीना तशरीफ़ लाए, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ख़बर में थे। देखिए इब्ने हिशाम 1/385 2. इब्ने हिशाम 1/182-185,

तो वहां के मूर्खों से सुना कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पागल हैं। सोचा, क्यों न उस व्यक्ति के पास चलूं ? हो सकता है अल्लाह मेरे ही हाथों उसे सेहत दे दे।

चुनांचे आपसे मुलाक़ात की, और कहा-

‘ऐ मुहम्मद! मैं भूत-प्रेत उतारने के लिए झाड़-फूंक किया करता हूं, क्या आपको भी इसकी जरूरत है ?’

आपने जवाब में फ़रमाया-

‘यक़ीनन सारी तारीफ़ अल्लाह के लिए है, हम उसी की तारीफ करते हैं और उसी से मदद चाहते हैं, जिसे अल्लाह हिदायत दे दे, उसे कोई गुमराह नहीं कर सकता, और जिसे अल्लाह भटका दे, उसे कोई हिदायत नहीं दे सकता और मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं। वह अकेला है, उसका कोई शरीक नहीं और मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद उसके बन्दे और रसूल हैं। ‘अम्मा बादु’

ज़ियाद ने कहा, ज़रा अपने ये कलिमे मुझे फिर सुना दीजिए। आपने तीन बार दोहराया। इसके बाद ज़ियाद ने कहा—

‘मैं काहिनों, जादूरगरों और कवियों की बात सुन चुका हूं, लेकिन मैंने आपके इन जैसे कलिमे कहीं नहीं सुने। ये तो समुद्र की अथाह गहराई को पहुंचे हुए हैं। लाइए, अपना हाथ बढ़ाइए। आपसे इस्लाम पर बैअत करूं।’ इसके बाद उन्होंने बैअत कर ली।1

यस्स्रिब की छः भाग्यवान आत्माएं

सन् 11 नबवी (जुलाई 620 ई०) के हज के मौसम में इस्लामी दावत को कुछ काम के बीज मिले, जो देखते-देखते छतनार पेड़ों में बदल गए और उनकी सुगन्धित और घनी छांवों में बैठकर मुसलमानों ने वर्षों के ज़ुल्म व सितम की तपन से राहत व नजात पाई, यहां तक कि घटनाओं की दिशा बदल गई और इतिहास की धारा मुड़ गई ।

मक्के वालों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को झुठलाने और लोगों को अल्लाह की राह से रोकने का जो बेड़ा उठा रखा था, उस सिलसिले में नबी सल्ल० की रणनीति थी कि आप रात के अंधेरों में क़बीलों के पास तशरीफ़ ले जाते, ताकि मक्का का कोई मुश्कि रुकावट न डाल सके।

1. सहीह मुस्लिम, मिश्कातुल मसाबीह, बाब अलामातुन्नुबूवः 2/525

इसी रणनीति के अनुसार एक रात आप, हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ि० और हज़रत अली रज़ि० को साथ लेकर निकले। बनू जुहल और बनू शैबान बिन सालबा के डेरों से गुज़रे, तो उनसे इस्लाम के बारे में बातचीत की। उन्होंने जवाब तो उम्मीदों भरा दिया, लेकिन इस्लाम कुबूल करने के बारे में कोई क़तई फ़ैसला न किया। इस मौक़े पर हज़रत अबूबक्र रज़ियल्लाहु अन्हु और अबू जुल के एक आदमी के बीच वंश-क्रम के बारे में बड़ा दिलचस्प सवाल व जवाब भी हुआ। दोनों ही वंश-विशेषज्ञ थे।

इसके बाद रसूलुल्लाह सल्ल० मिना की घाटी से गुज़रे, तो कुछ लोगों को आपस में बातचीत करते सुना ।

आपने सीधे उनका सीधा रुख किया और उनके पास जा पहुंचे। ये यसरिब के छः जवान थे और सबके सब क़बीला खज़रज से रखते थे। नाम ये हैं- – ताल्लुक़

1. असअद बिन ज़ुरारा (क़बीला बनी नज्जार)

2. औफ़ बिन हारिस बिन रिफ्राआ (इब्ने अफ़रा क़बीला बनी नज्जार) 3. राफ़ेअ बिन मालिक बिन अजलान (क़बीला बनी जुरैक़)

4. कुतबा बिन आमिर बिन हदीदा (क़बीला बनी सलमा)

5. उक़्बा बिन आमिर बिन नाबी (क़बीला बनी हराम बिन काब)

6. हारिस बिन अब्दुल्लाह बिन रिआब (क़बीला बनी उबैद बिनग़नम)

यह यसरिब वालों का सौभाग्य था कि वे मदीना के अपने मित्र यहूदियों से सुना करते थे कि उस ज़माने में एक नबी भेजा जाने वाला है और अब जल्द ही वह ज़ाहिर होगा। हम उसकी पैरवी करके उसके साथ तुम्हें आदे इरम की तरह क़त्ल कर डालेंगे। 2

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके पास पहुंचकर मालूम किया कि आप कौन लोग हैं ?

उन्होंने कहा, हम खज़रज क़बीले से ताल्लुक रखते हैं।

आपने फ़रमाया, यानी यहूदियों के मित्र ।

बोले, हां ।

फ़रमाया, फिर क्यों न आप लोग बैठें, कुछ बातचीत की जाए।

1. देखिए मुख्तसरुत्तवारीख : अब्दुल्लाह, पृ० 150-151 2. ज़ादुल मआद 2/50, इब्ने हिशाम 1/429, 541

वे लोग बैठ गए।
आपने उनके सामने इस्लाम की सच्चाई बयान की, उन्हें अल्लाह की ओर बुलाया और कुरआन की तिलावत फ़रमाई ।

उन्होंने आपस में एक दूसरे से कहा, भाई, देखो, यह तो वही नवी मालूम होते हैं, जिनका हवाला देकर यहूदी तुम्हें धमकियां दिया करते हैं, इसलिए यहूदी तुमसे आगे न जाने पाएं।

इसके बाद उन्होंने तुरन्त आपकी दावत मान ली और मुसलमान हो गए।

ये यसरिब के बुद्धिमान लोग थे। हाल ही में जो लड़ाई हो चुकी थी और जिसके धुएं अब तक फ़िज़ा को अंधेरा बनाए हुए थे। इस लड़ाई ने उन्हें चूर-चूर कर दिया था, इसलिए उन्होंने सही ही यह उम्मीद कर रखी थी कि आपकी दावत, लड़ाई के अन्त का ज़रिया बनेगी, चुनांचे उन्होंने कहा-

‘हम अपनी क़ौम को इस हाल में छोड़कर आए थे कि किसी और क़ौम में उनके जैसी दुश्मनी और वैर-भाव नहीं पाई जाती। उम्मीद है कि अल्लाह आपके ज़रिए उन्हें एक कर देगा। हम वहां जाकर लोगों को आपके उद्देश्य की ओर बुलाएंगे और यह दीन जो हमने खुद कुबूल कर लिया है, उन पर भी पेश करेंगे। अगर अल्लाह ने आप पर उनको एक कर दिया, तो फिर आपसे बढ़कर कोई और सम्माननीय न होगा।’

इसके बाद जब ये लोग मदीना वापस हुए तो अपने साथ इस्लाम का पैग़ाम भी ले गए। चुनांचे वहां घर-घर रसूलुल्लाह सल्ल० की चर्चा फैल गाई।’

हज़रत आइशा रज़ि० से निकाह

इसी साल शव्वाल सन् 11 नबवी में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज़रत आइशा रज़ि० से निकाह फ़रमाया।
फिर हिजरत के पहले साल शव्वाल ही के महीने में मदीना के अन्दर उनकी विदाई हुई।


1. इब्ने हिशाम 1/428, 430 2. तलकोहुल फडूम, पृ० 10, सहीह बुखारी 1/550

Is Every Desire in the Heart from Allah ﷻ?

■ Is Every Desire in the Heart from Allah ﷻ?

Well, the answer is as soft and as sharp as love itself:

If your desire is pulling you towards Allah ﷻ, then yes—it’s from Him, it’s His gift, a spark from His own light. But if that desire is pulling you away from Allah ﷻ, towards ego, comfort, worldly distractions—then it’s likely from your nafs (ego-self).

❝The direction of your desire tells you the direction of your soul.❞

So look where your desire is headed.

If it longs to stay here, to build castles in the sand, to seek comforts and applause and soft pillows—ah, then beware, that desire is your veil (hijab), not your path. It will harm you, not help you, because it’s rooted in your lower self, not your higher yearning.

But—if your desire is to walk the path of Light, to be near your Lord, to ask for His nearness, His mercy, His beauty—then rejoice! That desire is Divine in origin. It’s Him, calling you back home.

📖 Allah ﷻ says in the Qur’an:

“Some among you desire this world, and some among you desire the Hereafter.”

(سورة آل عمران: 152)

So, my dear readers, watch your heart. Watch its dreams. Don’t fear the existence of desires—they come and go like winds. But treat them like you’re walking through a garden. Choose only those desires that won’t destroy your soul. Pick only the flowers that won’t poison your spirit.

Because remember, we are not staying here forever. This world is just a stopover. So if your heart wants to build a forever-home here… be careful. Don’t let your desire become your downfall. Don’t make your comfort your cage.

Choose the desires that lead you to Allah ﷻ:

— The desire to harm no one.
— The desire to ease someone’s pain.
— The desire to walk towards the Divine.
— The desire to truly know yourself.

The great lovers of Allah ﷻ, the real travelers of this sacred path, they were people of one single desire—just one.

Their hearts weren’t scattered all over the world. They had one dream, and everything else they sacrificed at its feet.

Let me tell you a sweet little example:

Imagine a person gets so absorbed in playing chess that they forget to eat. The body needs food, of course, but the mind is so focused on the game that even hunger becomes a background noise. That’s what happens when your soul becomes absorbed in longing for Allah ﷻ. Every other desire starts falling quiet. The desire for Him becomes louder than all others. That’s when you’re on the right track.

But be careful—don’t just say, “Oh, Allah ﷻ placed this desire in me, so it must be good!” That can be dangerous.

Let me give you another sweet example:

Someone sneaks into a mango orchard and starts plucking mangoes and eating them. The owner shows up and says, “Hey! What are you doing?”

And the mango thief replies, “This is Allah’s orchard, and I’m Allah’s servant, so I’m eating what my Lord made.”

The owner says, “True! And I’m also Allah’s servant… with a stick!”

WHACK!

Just because something feels like a desire doesn’t mean it’s justified. Your desire should not harm someone else’s. Your journey shouldn’t block someone else’s path. You want to stay? That’s fine. But don’t let your desire to rest become a stone in the way of someone else who’s walking.

Balance your desires.
Balance your stops and starts.

Keep watching which desire is leading where.

Don’t let a worldly desire cancel a Divine one.

And don’t let a selfish desire stop a sacred one.

Remember:

❝The best desire is the one whose fruit is Allah ﷻ Himself.❞

May your heart be filled only with those dreams that lead you to Light. May your soul long for Him more than the world. And may all your scattered wants melt into that one holy yearning:

To reach Him, to please Him, to be with Him.

اَللّٰهُمَّ صَلِّ عَلَىٰ مُحَمَّدٍ وَّعَلَىٰ اٰلِ مُحَمَّدٍ