अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 29

हब्शा की दूसरी हिजरत

इसके बाद उन मुहाजिरों पर खास तौर पर और मुसलमानों पर आम तौर पर कुरैश का अन्याय और अत्याचार और बढ़ गया और उनके परिवार वालों ने उन्हें खूब सताया, क्योंकि कुरैश को उनके साथ नजाशी के सद्व्यवहार की जो खबर मिली थी, उस पर वे बहुत रुष्ट थे। मजबूर होकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सहाबा किराम रजि० को फिर हब्शा की हिजरत का मश्विरा दिया, लेकिन यह दूसरी हिजरत पहली हिजरत के मुक़ाबले में ज़्यादा परेशानियों और कठिनाइयों से भरी हुई थी, क्योंकि इस बार कुरैश पहले ही से चौकन्ना थे और ऐसी किसी कोशिश को विफल करने का संकल्प किए हुए थे, लेकिन मुसलमान उनसे कहीं ज़्यादा मुस्तैद साबित हुए और अल्लाह ने उनके लिए सफ़र आसान बना दिया, चुनांचे वे कुरैश की पकड़ में आने से पहले ही हब्श के बादशाह के पास पहुंच गए।

इस बार कुल 82 या 83 मर्दों ने हिजरत की। (हज़रत अम्मार की हिजरत में मतभेद है) और अठारह या उन्नीस औरतों ने । अल्लामा मंसूरपुरी ने पूरे विश्वास के साथ औरतों की तायदाद अठारह लिखी है। 3

हब्शा के मुहाजिरों के विरुद्ध कुरैश का षड्यंत्र

मुश्किों को बड़ा दुख था कि मुसलमान अपनी जान और अपना दीन बचाकर एक शांतिपूर्ण जगह पहुंच गए हैं, इसलिए उन्होंने अम्र बिन आस और अब्दुल्लाह बिन रबीआ को, जो गहरी सूझ-बूझ के मालिक थे और अभी मुसलमान नहीं हुए थे, दूत बनाकर एक अहम मुहिम पर भेजने को सोचा और इन दोनों को नजाशी और बितरीक़ों (दरबारियों) की सेवा में भेंट और उपहार देने के लिए हब्शा रवाना किया। इन दोनों ने पहले हब्शा पहुंचकर बितरीक़ों को उपहार दिए, फिर उन्हें अपनी वे दलीलें बताईं, जिनको आधार बनाकर वे मुसलमानों को हब्शा से निकलवाना चाहते थे। जब बितरीक़ों ने इसे मान लिया कि वे नजाशी

1. ज़ादुल मआद 1/24, 2/44, इब्ने हिशाम 1/364
जादुल मआद 1/24,

2 वही, रहमतुल लिल आलमीन

को मुसलमानों के निकाल देने का मश्विरा देंगे तो ये दोनों नजाशी के दरबार में हाज़िर हुए और भेंट उपहार देकर अपनी बात इस तरह रखी-

‘ऐ बादशाह ! आपके देश मे हमारे कुछ नासमझ नवजवान भाग आए हैं, उन्होंने अपनी क़ौम का धर्म छोड़ दिया है, लेकिन आपके दीन में भी दाखिल नहीं हुए हैं, बल्कि एक नया दीन गढ़ लिया है, जिसे न हम जानते हैं, न आप। हमें आपकी सेवा में उन्हीं के बारे में उनके मां-बाप, चचा और कुंबे-क़बीले के सरदारों ने भेजा है। अभिप्राय यह है कि आप इन्हें उनके पास वापस भेज दें, क्योंकि वे लोग उन पर सबसे ऊंची निगाह रखते हैं और उनकी कमज़ोरी और खराबी को बेहतर तौर पर समझते हैं।

जब ये दोनों अपना उद्देश्य पेश कर चुके तो बितरीक़ों ने कहा, ‘बादशाह सलामत ! ये दोनों ठीक ही कह रहे हैं। आप इन जवानों को इन दोनों के सुपुर्द कर दें। ये दोनों इन्हें इनकी क़ौम और इनके देश में वापस पहुंचा देंगे।’

लेकिन नजाशी ने सोचा कि इस विवाद को गहराई में जाकर समझना और उनके तमाम पहलुओं को सुनना-जानना ज़रूरी है। चुनांचे उसने मुसलमानों को बुला भेजा ।

मुसलमान यह तै करके उसके दरबार में आए कि हम सच ही बोलेंगे, चाहे नतीजा कुछ भी हो। जब मुसलमान आ गए तो नजाशी ने पूछा-

‘यह कौन-सा दीन है जिसकी बुनियाद पर तुम अपनी क़ौम से अलग हो गए? और मेरे धर्म में भी दाखिल नहीं हुए और न इन समुदायों ही में से किसी के धर्म को अपनाया ? “

मुसलमानों के नुमाइंदे हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब ने कहा-

‘ऐ बादशाह ! हम ऐसी क़ौम थे, जो अज्ञानता में पड़ी हुई थी। हम बुत पूजते थे, मुरदार खाते थे, कुकर्म करते थे, नातेदारों से नाते तोड़ते थे, पड़ोसियों से दुर्व्यवहार करते थे और हम में से ताक़तवर कमज़ोर को खा रहा था। हम इसी हालत में थे कि अल्लाह ने हम ही में से एक रसूल भेजा। उसका श्रेष्ठ वंश का होना, उसकी सच्चाई, अमानतदारी और पाकदामनी हमें पहले से मालूम थी। उसने हमें अल्लाह की ओर बुलाया और समझाया कि हम सिर्फ़ एक अल्लाह को मानें और उसी की इबादत करें और उसके सिवा जिन पत्थरों और बुतों को हमारे बाप-दादा पूजते थे, उन्हें छोड़ दें। उसने हमें सच बोलने, अमानत अदा करने, रिश्ते-नाते जोड़ने, पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करने और कुकर्मों से और खून बहाने से बचने का हुक्म दिया और बेहयाई में पड़ने, झूठ बोलने, यतीम का माल खाने और पाकदामन औरतों पर झूठी तोहमत लगाने से मना किया। उसने

हमें यह भी हुक्म दिया कि हम सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करें, उसके साथ किसी को शरीक न करें, उसने हमें नमाज़, रोज़ा और ज़कात का हुक्म दिया।’

इसी तरह हज़रत जाफ़र रज़ि० ने इस्लाम के काम गिनाए, फिर कहा-

‘हमने उस पैग़म्बर को सच्चा माना, उस पर ईमान लाए और उसके लाए हुए खुदाई दीन का पालन किया, उसकी पैरवी की, चुनांचे हमने सिर्फ़ अल्लाह की इबादत की, उसके साथ किसी को शरीक नहीं किया और जिन बातों को उस पैग़म्बर ने हराम बताया उन्हें हराम माना और जिनको हलाल बताया, उन्हें हलाल जाना। इस पर हमारी क़ौम हमसे बिगड़ गई, उसने हम पर ज़ुल्म व सितम किया और हमें हमारे दीन से फेरने के लिए फ़िले और सज़ाओं से दो चार किया, ताकि हम अल्लाह की इबादत छोड़कर बुतपरस्ती की ओर पलट जाएं और जिन गन्दी चीज़ों को हलाल समझते थे, उन्हें फिर हलाल समझने लगें। जब उन्होंने हम पर अत्याचार के पहाड़ तोड़ दिए, जीना दूभर कर दिया, ज़मीन तंग कर दी और हमारे और हमारे दीन के बीच रोक बनकर खड़े हो गए तो हमने आपके देश का रास्ता पकड़ा और दूसरों पर प्रमुखता देते हुए आपकी शरण में रहना पसन्द किया और यह आशा की कि ऐ बादशाह ! आपके पास हमारे साथ अन्याय न किया जाएगा।’ नजाशी ने कहा, ‘वह पैग़म्बर जो कुछ लाए हैं, उसमें से कुछ

तुम्हारे पास है ?’ हज़रत जाफ़र ने कहा, ‘हां!’ ने

नजाशी ने कहा, ‘तनिक मुझे भी पढ़ कर सुनाओ।’

हज़रत जाफ़र ने सूरः मरयम की शुरू की आयतें तिलावत फ़रमाई। नजाशी इतना रोया कि उसकी दाढ़ी भीग गई। नजाशी के तमाम पादरी भी हज़रत जाफ़र की तिलावत सुनकर इतना रोए कि उनकी किताबें भीग गईं।

फिर नजाशी ने कहा कि यह कलाम और वह कलाम जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम लेकर आए थे, दोनों एक ही शमादान (ज्योति पुंज) से निकले हुए हैं ।

इसके बाद नजाशी ने अम्र बिन आस और अब्दुल्लाह बिन रबीआ को सम्बोधित करके कहा कि तुम दोनों चले जाओ। मैं इन लोगों को तुम्हारे सुपुर्द नहीं कर सकता और न यहां इनके खिलाफ़ कोई चाल चली जा सकती है।

इस हुक्म पर वे दोनों वहां से निकल गए, लेकिन फिर अम्र बिन आस ने अब्दुल्लाह बिन रबीआ से कहा, ‘ख़ुदा की क़सम ! कल इनके बारे में ऐसी बातें लाऊंगा कि उनकी हरियाली की जड़ काट कर रख दूंगा।

अब्दुल्लाह बिन रबीआ ने कहा, नहीं, ऐसा न करना। इन लोगों ने अगरचे हमारे

खिलाफ़ कुछ किया है, लेकिन हैं बहरहाल हमारे अपने ही कुंबे-क़बीले के लोग मगर अम्र बिन आस अपनी राय पर अड़े रहे। 1

अगला दिन आया, तो अम्र बिन आस ने नजाशी से कहा, ऐ बादशाह ! ये लोग ईसा बिन मरयम के बारे में एक बड़ी बात कहते हैं।

इस पर नजाशी ने मुसलमानों को फिर बुला भेजा। वह पूछना चाहता था कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में मुसलमान क्या कहते हैं ?

इस बार मुसलमानों को घबराहट हुई, लेकिन उन्होंने तै किया कि सच ही बोलेंगे, नतीजा भले ही कुछ निकले। चुनांचे जब मुसलमान नजाशी के दरबार में हाज़िर हुए और उसने सवाल किया, तो हज़रत जाफ़र रज़ि० ने फ़रमाया-

‘हम ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में वही बात कहते हैं, जो हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लेकर आए हैं, यानी हज़रत ईसा अल्लाह के बन्दे, उसके रसूल, उसकी रूह और उसका वह कलिमा हैं, जिसे अल्लाह ने कुंवारी पाकदामन हज़रत मरयम अलैहस्सलाम की ओर डाला था।’

इस पर नजाशी ने ज़मीन से एक तिनका उठाया और बोला, ‘खुदा की क़सम ! जो कुछ तुमने कहा है, हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम उससे इस तिनके के बराबर भी बढ़कर न थे। इस पर बितरीक़ों ने ‘हुंह’ की आवाज़ लगाई। नजाशी ने कहा, ‘अगरचे तुम लोग ‘हुंह’ कहो ।’

इसके बाद नजाशी ने मुसलमानों से कहा, ‘जाओ, तुम लोग मेरे राज्य में सुख-शान्ति से रहो। जो तुम्हें गाली देगा, उस पर जुर्माना लगाया जाएगा। मुझे गवारा नहीं कि तुम में से मैं किसी आदमी को सताऊं और उसके बदले मुझे सोने का पहाड़ मिल जाए।’

इसके बाद उसने अपने दरबारियों को सम्बोधित करके कहा, ‘इन दोनों को इनके उपहार वापस कर दो। मुझे इनकी कोई ज़रूरत नहीं। ख़ुदा की क़सम ! अल्लाह ने जब मुझे मेरा देश वापस किया था, तो मुझसे कोई रिश्वत नहीं ली थी कि मैं उसकी राह में रिश्वत लूं। साथ ही अल्लाह ने मेरे बारे में लोगों की बात स्वीकार न की थी कि मैं अल्लाह के बारे में लोगों की बात मानूं ।’

हज़रत उम्मे सलमा रजि०, जिन्होंने इस घटना का उल्लेख किया है, कहती हैं, इसके बाद वे दोनों अपने भेंट-उपहार लिए बे-आबरू होकर वापस चले गये और हम नजाशी के पास एक अच्छे देश में एक अच्छे पड़ोसी की छत्र-छाया में ठहरे रहे ।

इब्ने हिशाम (संक्षिप्त किया गया) 1/334-338

यह इब्ने इस्हाक़ की रिवायत है। दूसरे सीरत के रचनाकारों का मत है कि नजाशी के दरबार में हज़रत अम्र बिन आस की हाज़िरी बद्र की लड़ाई के बाद हुई थी। कुछ लोगों ने दोनों में ताल-मेल पैदा करने की यह शक्ल निकाली है कि हज़रत अम्र बिन आस नजाशी के दरबार में मुसलमानों की वापसी के लिए दो बार गए थे, लेकिन बद्र की लड़ाई के बाद की हाज़िरी के ताल्लुक़ से हज़रत जाफ़र रज़ि० और नजाशी के बीच सवाल व जवाब का जो विवरण दिया जाता है, वह लगभग वही है जो इब्ने इस्हाक़ ने हब्शा की हिजरत के बाद की हाज़िरी के सिलसिले में बयान की हैं। फिर इन सवालों के विषयों पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि नजाशी के पास यह मामला अभी पहली बार आया था, इसलिए प्रमुखता इस बात को प्राप्त है कि मुसलमानों को वापस लाने की कोशिश केवल एक बार हुई थी और वह हब्शा की हिजरत के बाद थी।

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