अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 28

दारे अरक़म (अरक़म का घर)

यह मकान सरकशों की निगाहों और उनकी मज्लिसों से दूर सफ़ा पहाड़ के दामन में अलग-थलग स्थित था। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसे इस उद्देश्य के लिए चुन लिया कि यहां मुसलमानों के साथ ख़ुफ़िया तौर पर जमा हों। चुनांचे आप यहां इत्मीनान से बैठकर मुसलमानों पर अल्लाह की आयतें तिलावत फ़रमाते, उनका मन उज्जवल करते और उन्हें किताब व हिक्मत सिखाते और मुसलमान सुख-शान्ति के साथ अपनी इबादत और दीनी आमाल अंजाम देते और अल्लाह की उतारी हुई वह्य सीखते । जो आदमी इस्लाम लाना चाहता, वह भी यहां आकर खामोशी से मुसलमान हो जाता और ज़ुल्म और बदला लेने पर उतरे हुए सरकशों को इसकी ख़बर न होती ।

यह बात निश्चित है कि अगर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसके बजाए मुसलमानों के साथ खुल्लम खुल्ला इकट्ठा होते तो मुश्कि अपनी पूरी ताक़त के साथ इस बात की कोशिश करते कि आप मन को पाक करने और किताब व सुन्नत का जो काम करना चाहते हैं, उसे न होने दें। इसके नतीजे में दोनों फ़रीक़ों के दर्मियान संघर्ष हो सकता था।

चुनांचे इब्ने इस्हाक़ का बयान है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा किराम घाटियों में इकट्ठा होकर नमाज़ पढ़ा करते थे। एक बार कुरैश के कुछ दुश्मनों ने देख लिया तो गाली-गलोच और लड़ाई-झगड़े पर उतर आए। जवाब में हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रज़ि० ने एक व्यक्ति को ऐसी चोट लगाई कि उसका खून बह पड़ा और यह पहलाखून था जो इस्लाम में बहाया गया। 1

मालूम है अगर इस तरह का टकराव बार-बार होता और लम्बा खिंच जाता, तो मुसलमानों के खात्मे की नौबत आ सकती थी, इसलिए हिक्मत का तक़ाज़ा यही था कि काम परदे के पीछे किया जाए, चुनांचे आम सहाबा किराम रज़ि० अपना सलाम, अपनी इबादत, अपनी तब्लीग़ और अपने लोगों के मीटिंगें सब कुछ छिप-छिपाकर करते थे, अलबत्ता अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तब्लीग़ का काम भी मुश्किों के सामने खुल्लम-खुल्ला अंजाम देते थे और इबादत का काम भी। कोई चीज़ आपको इससे रोक नहीं सकती थी, फिर भी आप मुसलमानों के साथ खुद उनकी मस्लहत देखते हुए खुफिया तौर पर जमा होते थे। इधर अरक़म बिन अबी अरक़म मख्ज़ूमी का मकान सफ़ा पहाड़ी पर दुश्मनों और विरोधियों की निगाहों और उनकी मजिल्सों से दूर अलग-थलग वाक़े था, इसलिए आपने पांचवीं सन् नुबूवत में उसी मकान को अपनी दावत और मुसलमानों के साथ अपने जमा होने का सेन्टर बना लिया ।12

हल्शा की पहली हिजरत

अत्याचार और दमन का उल्लिखित चक्र नबूवत के चौथे साल के दर्मियान या आखिर में शुरू हुआ था और शुरू में मामूली था, पर दिन ब दिन और माह ब माह बढ़ता गया, यहां तक कि नबूवत के पांचवें साल का बीच आते-आते अपनी चरम सीमा को पहुंच गया, यहां तक कि मुसलमानों के लिए मक्का में रहना दूभर हो गया और उन्हें इन बराबर किये जा रहे जुल्म व सितम से मुक्ति पाने के उपाय सोचने पर मजबूर होना पड़ा। इन्हीं संगीन और अंधेरे की हालत में सूरः जुमर उतरी और उसमें हिजरत की ओर इशारा किया और बताया गया कि अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है-

‘जिन लोगों ने इस दुनिया में अच्छाई की, उनके लिए अच्छाई है और अल्लाह की ज़मीन विशाल है। सब करने वालों को उनका बदला बेहिसाब दिया जाएगा।’ (39: 10)

इधर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मालूम था कि असहमा नजाशी हब्शा का एक न्यायप्रिय बादशाह है। वहां किसी पर जुल्म नहीं होता। इसलिए आपने मुसलमानों को हुक्म दिया कि वे फ़िल्मों से अपने दीन की

इब्ने हिशाम 1/263, 2. मुख्तसरुस्सीर:, मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब, पृ० 61

रक्षा के लिए हब्शा हिजरत कर जाएं। इसके बाद एक तैशुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम रजि० के पहले गिरोह ने हब्शा की ओर हिजरत की। इस गिरोह में 12 मर्द और चार औरतें थीं। हज़रत उस्मान बिन अफ्फ़ान रज़ि० उनके अमीर (सरदार) थे और उनके साथ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की साहबज़ादी (सुपुत्री) हज़रत रुकैया भी थीं। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके बारे में फ़रमाया कि हज़रत इब्राहीम और हज़रत लूत अलै० के बाद यह पहला घराना है, जिसने अल्लाह की राह में हिजरत की 12

ये लोग रात के अंधेरे में चुपके से निकलकर अपनी नई मंजिल की ओर रवाना हुए। रहस्य में रखने से अभिप्राय यह था कि कुरैश को इसका ज्ञान न हो सके। जाना लाल सागर की बन्दरगाह शुऐबा की ओर था। सौभाग्य कि वहां दो व्यापारिक नावें मौजूद थीं, जो उन्हें अपनी शरण में लेकर समुद्र पार हब्शा चली गईं। कुरैश को बाद में उनके जाने का पता चला, फिर भी उन्होंने पीछा किया और तट पर पहुंचे, लेकिन सहाबा किराम आगे जा चुके थे, इसलिए विफल वापस आ गए।

इधर मुसलमानों ने हब्शा पहुंचकर बड़े चैन की सांस ली,

मुसलमानों के साथ मुश्किों का सज्दा और मुहाजिरों की वापसी

लेकिन उसी वर्ष रमज़ान शरीफ़ में यह घटना घटी कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक बार हरम तशरीफ़ ले गए। वहां कुरैश की बहुत बड़ी भीड़ थी। उनके सरदार और बड़े-बड़े लोग जमा थे। आपने एकदम अचानक खड़े होकर सूरः नज्म पढ़ना शुरू कर दिया। इन दुश्मनों ने इससे पहले आम तौर से कुरआन सुना न था, क्योंकि कुरआन के सिलसिले में उनकी स्थाई नीति यह थी कि

‘इस कुरआन को मत सुनो और इसमें बाधा डालो, (ऊधम मचाओ) ताकि तुम छा जाओ।’ (41:26)

लेकिन जब नबी सल्ल० ने अचानक इस सूरः की तिलावत शुरू कर दी और उनके कानों में एक अकथनीय और महानता लिए हुए कलामे इलाही की आवाज़

1. देखिए अस्सुननुल कुबए: बैहक़ी 9/9

2. जादुल मआद 1/24,

3. जादुल मआद 1/24

पड़ी, तो उन्हें कुछ होश न रहा। सब के सब तल्लीन होकर सुनने लगे, किसी के दिल में और कोई विचार ही न आया, यहां तक कि जब आपने सूरः के अन्त में दिल हिला देने वाली आयतें पढ़कर अल्लाह का यह हुक्म सुनाया कि-

‘अल्लाह के लिए सज्दा करो और उसकी इबादत करो।’

(53: 62)

और उसके साथ ही सज्दा फ़रमाया तो किसी को अपने आप पर काबू न रहा और सब के सब सज्दे में गिर पड़े। सच तो यह है कि इस मौके पर सत्य की महत्ता व महानता ने घमंडी और उपहास करने वाले विरोधियों की हठधर्मी का परदा चाक कर दिया था, इसलिए उन्हें अपने आप पर काबू न रह गया था और वे बे-अख्तियार सज्दे में गिर पड़े थे।

लेकिन बाद में जब उन्हें एहसास हुआ कि कलामे इलाही की महानता ने उनकी लगाम मोड़ दी और वे ठीक वही काम कर बैठे, जिसे मिटाने और खत्म करने के लिए उन्होंने एड़ी से चोटी तक का जोर लगा रखा था और इसके साथ ही इस घटना के समय ग़ैर-मौजूद मुश्किों ने उन पर हर ओर से लानत-मलामत की बौछार शुरू की, तो उनके हाथ के तोते उड़ गए और उन्होंने अपनी जान छुड़ाने के लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर यह आरोप लगाया और झूठ गढ़ा कि आपने उनके बुतों का उल्लेख मान-सम्मान के साथ करते हुए यह कहा था कि –

‘ये श्रेष्ठतर देवियां हैं और इनकी शफाअत (सिफ़ारिश की उम्मीद की जाती है ।’

हालांकि यह खुला झूठ था, जो सिर्फ इसलिए गढ़ लिया गया था, ताकि नबी सल्ल० के साथ सज्दा करने की जो ‘ग़लती’ हो गई है, उसके लिए एक ‘समुचित’ बहाना ढूंढा जा सके और ज़ाहिर है कि जो लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर हमेशा झूठ गढ़ते और आपके खिलाफ़ हमेशा निराधार बातें करते रहे थे, वे अपना दामन बचाने के लिए इस तरह का झूठ क्यों न गढ़ते ।

बहरहाल मुश्रिकों के सज्दा करने की ख़बर हब्शा के मुहाजिरों को भी मालूम हुई, लेकिन अपनी सही स्थिति से हटकर, यानी उन्हें यह मालूम हुआ कि कुरैश मुसलमान हो गए हैं। चुनांचे उन्होंने शव्वाल के महीने में मक्का वापसी का रास्ता लिया, लेकिन जब इतने क़रीब आ गए कि मक्का एक दिन से भी कम

1. सहीह बुखारी में इस सज्दे की घटना इब्ने मसऊद और इब्ने अब्बास रज़ि० से संक्षिप्त में बयान की गई है। देखिए बाब सज्दतुन्नज्म और बाब सुजूदुल मुस्लिमीन वल मुश्किीन 1/146, और बाब मालकियन्नबीय व अस्हाबुहू बिमक्क-त 1/543

दूरी पर रह गया तो सही स्थिति मालूम हुई। इसके बाद कुछ लोग तो सीधे हब्शा पलट गये और कुछ लोग छिप-छिपाकर या कुरैश के किसी आदमी की शरण लेकर मक्के में दाखिल हुए

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