चौदह सितारे इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) पार्ट- 6

किताब जफ़र व जामेअ

किताब जफ़रो जामोआ के मुताअल्लिक़ उलेमा के बयानात मुख़्तलिफ़ हैं। मौलवी वहीदुज़्ज़मा हैदराबादी अपनी किताब अनवारूल लुग़ता के पारा 5 पृष्ठ 15 पर लिखते हैं कि आं हज़रत (स अ व व ) ने अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) को दो किताबें लिखवा दीं थीं।

‘‘ एक जफ़र दूसरी जामेए ’’ एक किताब तो बकरी की खाल पर थी , दूसरी भेड़ की खाल पर और उसमे क़यामत तक जितनी बातें होने वाली थीं वह सब मुजमिलन लिखवा दी थीं। सय्यद शरीफ़ ने शरह मवाफ़िक़ में नक़ल किया है कि जफ़र और जामए दो किताबें हैं जो हज़रत अली (अ.स.) के पास थीं। इनमें अज़ रूए क़वाएद , इल्मे हुरूफ़ व तकसीर बड़े बड़े हवादिस का बयान था जो क़यामत तक होने वाले थे और आपकी औलाद मे जो इमाम गुज़रे वह इन्हीं किताबों को देख कर अकसर उमूर की ख़बर देते थे।

किताब बहरे मुहीत में है कि इल्मे जफ़र और इल्मे तकसीर एक ही हैं , यानी सायल के सवाल के हुरूफ़ में तसर्रूफ़ और तग़य्युर कर के सवाल का जवाब निकालना।

अल्लामा शिब्लंजी अपनी किताब नूरूल अबसार के पृष्ठ 133 पर बा हवाला हयातुल हैवान दमीरी लिखते हैं कि इब्ने क़तीबा ने किताबे अदब अल कातिब में लिखा है कि किताब अल जफ़र हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की लिखी हुई है। इसमें वह तमाम चीज़ें हैं जो क़यामत तक दुनियां में रूनूमा होंगी।

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई अपनी किताब मतालेबुस सूऊल के पृष्ठ 214 में किताब अल जफ़र का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि ‘‘ होआमन कलामेह ’’ यह किताब आप ही की तसनीफ़ है। यही इबारत बिल्कुल इसी तरह शवाहेदुन नबूवत मुल्ला जामी के पृष्ठ 187 प्रकाशित लखनऊ 1905 में भी मौजूद है। तारीख़ से मालूम होता है कि आप जफ़र व जामेए के अलावा जफ़रे अहमर व जफ़रे अबयज़ और मुसहफ़े फ़ात्मा के भी मालिक थे और आप को ख़ुदा ने इल्मे ग़ाबिर व मज़बूर नुक़त व नक़र से बहरावर फ़रमाया था। अल्लामा जामी शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 187 में और अल्लामा अरबली कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 97 में फ़रमातें हैं कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाया करते थे , हमें आईन्दा और गुज़िश्ता का इल्म और इल्हाम की सलाहियत और मलायका की बातें सुन्ने की ताक़त दी गई है। मेरे ख़्याल में यही आलिमे इल्मे लदुन्नी होने की दलील है जो जानशीने पैग़म्बर (स अ व व ) होने के सुबूत में पेश किया जा सकता है।

साहेबे मजमाउल बैहरैन इसकी ताईद करते हुए लिखते हैं कि जफ़र व जामया में क़यामत तक होने वाले सारे वाक़ेयात मुन्दरिज हैं। यहां तक कि इस में ख़राश लग जाने की भी सज़ा का ज़िक्र है और एक ताज़याना बल्कि आधा ताज़याना (कोड़ा) का भी हुक्म मौजूद है।

किताबे अलहिलीचिया

अल्लामा मजलिसी ने किताब बेहारूल अनवार की जिल्द 2 में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की किताब अलहिलीचिया को मुकम्मल तौर पर नक़ल फ़रमाया है। इस किताब के तसनीफ़ करने की ज़रूरत यूं महसूस हुई कि एक हिन्दुस्तानी फ़लसफ़ी हज़रत की खि़दमत मे हाज़िर हुआ और उसने आलीयात और मा बादत तबीआत पर हज़रत से तबादला ए ख़्यालात करना चाहा। हज़रत ने उससे निहायत मुकम्मल गुफ़्तुगू की और इल्मे कलाम से उसूल पर दहरियत और मादीयत को फ़ना कर छोड़ा , उसे आखि़र में कहना पड़ा कि आपने अपने दावे को इस तरह साबित फ़रमा दिया है कि अरबाबे अक़ल को माने बग़ैर चारा नहीं। तवारीख़ से मालूम होता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने हिन्दी फ़लसफ़ी से जो गुफ़्तुगू की थी उसे किताब की शक्ल में जमा कर के बाबे अहले बैत के मशहूर मुताकल्लिम जनाब मुफ़ज़ल बिन उमर अल जाफ़ी के पास भेज दिया था और यह लिखा था कि ,

‘‘ ऐ मुफ़ज़ल मैंने तुम्हारे लिये एक किताब लिखी है जिसमें मुन्करीने ख़ुदा की रद की है और उसके लिखने की वजह यह हुई कि मेरे पास हिन्दुस्तान से एक तबीब (फ़लसफ़ी) आया था और उसने मुझसे मुबाहेसा किया था। मैंने जो जवाब उसे दिया था , उसी को क़लम बन्द कर के तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। ’’

 

 

हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ स ) के फ़लक़ वक़ार शार्गिद

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के शार्गिदों का शुमार मुश्किल है। बहुत मुम्किन है कि आईन्दा सिलसिला ए तहरीर में आपके बाज़ शार्गिदों का ज़िक्र आता जाय। आम मुवर्रेख़ीन ने बाज़ नामों को ख़ुसूसी तौर पर पेश कर के आपकी शार्गिदी की सिल्क में पिरो कर उन्हें मोअज़्ज़ज़ बताया है। मतालेबुस सूऊल , सवाएक़े मोहर्रेक़ा , नूरूल अबसार वग़ैरा में इमाम अबू हनीफ़ा , यहीया बिन सईद अन्सारी , इब्ने जरीह , इमाम मालिक इब्ने अनस , इमाम सुफ़ियान सूरी , सुफ़ियान बिन अयनिया , अय्यूब सजिस्तानी वग़ैरा का आपके शार्गिदों में ख़ास तौर पर ज़िक्र है। तारीख़ इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पृष्ठ 130 और ख़ैरूद्दीन ज़र कली की अल्ल आलाम पृष्ठ 183 प्रकाशित मिस्र मोहम्मद फ़रीद वजदी की इदारा मायफ़ल क़ुरआन की जिल्द 3 पृष्ठ 109 प्रकाशित मिस्र में है ‘‘ वा काना तलमीना अबू मूसा जाबिर बिन हय्यान अल सूफ़ी अल तरसूसी ’’ आपके शार्गिदों में जाबिर बिन हय्यान सूफ़ी तरसूसी भी हैं। आपके बाज़ शार्गिदों की जलालत क़द्र और उनकी तसानीफ़ और इल्मी खि़दमात पर रौशनी डालनी तो बे इन्तेहा दुशवार है। इस लिये इस मक़ाम पर सिर्फ़ जाबिर बिन हय्यान तरसूसी जो कि इन्तेहाई बा कमाल होने के बवजूद शार्गिदे इमाम की हैसियत से अवाम की नज़रों से पोशीदा हैं , का ज़िक्र किया जाता है।

 

इमामुल कीमिया जनाबे जाबिर इब्ने हय्यान तरसूसी

आपका पूरा नाम अबू मूसा जाबिर बिन हय्यान बिन अब्दुल समद अल सूफ़ी अल तरसूसी अल कूफ़ी है। आप 742 ई 0 में पैदा हुए और 803 ई 0 में इन्तेक़ाल फ़रमा गए। बाज़ मोहक़्क़ेक़ीन ने आपकी वफ़ात 813 ई 0 बताई है लेकिन इब्ने नदीम ने 777 ई 0 लिखा है।

इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक हिस्ट्र में है कि उस्तादे आज़म जाबिर बिन हय्यान बिन अब्दुल्लाह , अब्दुल समद कूफ़ै में पैदा हुए। वह तूसी उल नस्ल थे और आज़ाद नामी क़बीले से ताअल्लुक़ रखते थे , ख़्यालात में सूफ़ी थे और यमन के रहने वाले थे। अवाएल उम्र में इल्मे तबीआत की तालीम अच्छी तरह हासिल कर ली और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) इब्ने इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) की फ़ैज़े सोहबत से इमाम उल फ़न हो गए।

तारीख़ के देखने से मालूम होता है कि जाबिर बिन हय्यान ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की अज़मत का एतराफ़ करते हुए कहा है कि सारी कायनात में कोई ऐसा नहीं जो इमाम की तरह सारे उलूम पर बोल सके।

तारीख़े आइम्मा में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तसनीफ़ात का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने एक किताब कीमीया , जफ़र रमल पर लिखी थी। हज़रत के शार्गिद व मशहूर मारूफ़ कीमिया गर जाबिर बिन हय्यान जो यूरोप में जबर के नाम से मशहूर हैं , जिनको जाबिर सूफ़ी का लक़ब दिया गया था और जुनूनन मिस्री की तरह वह भी इल्मे बातिन से ज़ौक़ रखते थे। इन जाबिर बिन हय्यान ने हज़ारों वरक़ की एक किताब तालीफ़ की थी जिसमें हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रिसालों को जमा किया था। अल्लामा इब्ने ख़लकान किताब दफ़ियात इला अयान जिल्द 1 पृष्ठ 130 प्रकाशित मिस्र में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के मक़ालात इल्मे कीमिया और इल्मे जफ़र व फ़ाल में मौजूद हैं और आपके शार्गिद थे जाबिर बिन हय्यान सूफ़ी तरसूसी जिन्होंने हज़ार वरक़ की एक किताब तालीफ़ की थी जिसमें इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रिसालों को जमा किया था। अल्लामा ख़ैरूद्दीन ज़रकली ने भी अल आलाम जिल्द 1 पृष्ठ 182 प्रकाशित मिस्र में यही कुछ लिखा है। इसके बाद तहरीर किया है कि उनकी बेशुमार तसानीफ़ हैं जिनका ज़िक्र इब्ने नदीम ने अपनी फ़ेहरिस्त में किया है। अल्लामा मोहम्मद फ़रीद वजदी ने दायरा ए मआरेफ़ुल क़ुरआन अल राबे अशर की जिल्द 3 पृष्ठ 109 प्रकाशित मिस्र में भी लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रसायल को जमा कर के एक किताब हज़ार सफ़हे की तालीफ़ की थी। अल्लामा इब्ने ख़ल्दून ने भी मुक़दमा ए इब्ने ख़ल्दून मतबूआ मिस्र पृष्ठ 385 में इल्मे कीमिया का ज़िक्र करते हुए जाबिर बिन हय्यान का ज़िक्र किया है और फ़ाज़िल हंसवी ने अपनी ज़ख़ीम तसनीफ़ किताब और किताब ख़ाना ग़ैर मतबूआ में बा हवाला ए मुक़द्दमा इब्ने ख़ल्दून पृष्ठ 579 प्रकाशित मिस्र लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान इल्मे कीमिया के ईजाद करने वालों का इमाम है बल्कि इस इल्म के माहेरीन ने इसको जाबिर से इस हद तक मख़सूस कर दिया है कि इस इल्म का नाम ‘‘ इल्मे जाबिर ’’ रख दिया है।(अल जव्वाद शुमारा 11 जिल्द 1 पृष्ठ 9 )

मुवर्रिख़ इब्नुल क़त्फ़ी लिखते हैं कि जाबिर बिन हय्यान को इल्मे तबीआत और कीमिया में तक़द्दुम हासिल है। इन उलूम में उसने शोहरा ए आफ़ाक़ किताबें तालीफ़ की हैं। इनके अलावा उलूमे फ़लसफ़ा वग़ैरा में शरफ़े कमाल पर फ़ाएज़ थे और यह तमाम कमालात से भर पूर होना इल्मे बातिन की पैरवी का नतीजा था। मुलाहेज़ा हो ,(तबक़ातुल उमम , पृष्ठ 95 व अख़बारूल हुक्मा पृष्ठ 111 प्रकाशित मिस्र)

पयामे इस्लाम जिल्द 7 पृष्ठ 15 में है कि वही ख़ुश क़िस्मत मुसलमान है जिसे हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शार्गिदी का शरफ़ हासिल था। इसके मुताअल्लिक़ जनवरी 25 ई 0 में साईंस प्रोग्ररेस नवीशता ए जे 0 होलम यार्ड एम 0 ए 0 एफ़ 0 आई 0 सी 0 आफ़ीसरे आला शोबा ए र्साइंस कफ़टेन कालेज ब्ररिस्टल ने लिखा है कि इल्मे कीमिया के मुतअल्लिक़ ज़माना ए वस्ता की अकसर तसानीफ़ मिलती हैं। जिसमें ‘‘ गेबर ’’ का ज़िक्र आता है और आम तौर पर गेबर या जेबर दर अस्ल ‘‘ जाबिर ’’ हैं। चुनान्चे जहां कहीं भी लातीनी कुतुब में गेबर का ज़िक्र आता है वहां मुराद अरबी माहिरे कीमिया जाबिर बिन हय्यान ही है। जिसे जे के बजाय गे आसानी से समझ में आ जाता है , लातानी में (जे) से मिलती जुल्ती आवाज़ और बाज़ इलाक़ों मसलन मिस्र वग़ैरा में (जे) को अब भी बतौर (जी) यानी गाफ़ इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा ख़लीफ़ा हारून के ज़माने में साईंस कमेस्ट्री वग़ैरा का चरचा बहुत हो चुका है और इस इल्म के जानने वाले दुनिया के गोशे गोशे से खिंच कर दरबारे खि़लाफ़त से मुन्सलिक हो रहे थे। जाबिर इब्ने हय्यान का ज़माना भी कमो बेश इसी दौर में था। पिछले 20, 25, साल में इंगलिस्तान और जर्मनी में जाबिर के मुतअल्लिक़ बहुत सी तहक़ीक़ात हुई हैं। लातीनी ज़बाना में इल्मे कीमिया के मुताअल्लिक़ चंद कुतुब सैकड़ों साल से इस मुफ़क्किर के नाम से मन्सूब हैं। जिसमें मख़सूस 1. समा , 2. बरफ़ेकशन , 3. डी इन्वेस्टीगेशन परफ़ेक्शन , 4. डी इन्वेस्टीगेशन वर टेलेक्स , 5. टीटा बहन , लेकिन इन किताबों के मुताअल्लिक़ अब तक उक तूलानी बहस है और इस वक़्त तक मुफ़क़्के़रीने योरोप इन्हें अपने यहां की पैदावार बताते हैं। इस लिये उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस होती है। जाबिर को हर्फ़ (जी) (गाफ़) गेबर से पुकारें और बजाय अरबी नस्ल के उसे यूरोपियन साबित करें। हांलाकि समा के कई प्रकाशित शुदा ऐडीशनों में गेबर को अरब ही कहा गया है। रसल के अंगे्रज़ी तरजुमे में उसे एक मशहूर अरबी शाहज़ादा और मन्तक़ी कहा गया है।

1541 ई 0 में की नूरन बर्ग कि एडिशन में वह सिर्फ़ अरब है। इसी तरह और बहुत से क़ल्मी नुसख़े ऐसे मिल जाते हैं जिनमें कहीं उसे ईरानियों के बादशाह से याद किया गया है किसी जगह उसे शाह बन्द कहा गया है। इन इख़्तेलाफ़ात से समझ में आता है कि जाबिर बर्रे आज़म एशिया से न था बल्कि इस्लामी अरब का एक चमकता सितारा था।

इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक कैमिस्ट्री के मुताबिक़ जाफ़र बर मक्की के ज़रिये से जाबिर बिन हय्यान का ख़लीफ़ा हारून रशीद के दरबार में आना जाना शुरू हो गया चुनान्चे उन्होंने ख़लीफ़ा के नाम से इल्मे कीमिया में एक किताब लिखी जिसका नाम ‘‘ शुगूफ़ा ’’ रखा। इस किताब में उसने इल्मे कीमिया के जली व ख़फ़ी पहलूओं के मुताअल्लिक़ निहायत मुख़्तसर तरीक़े , निहायत सुथरा तरीक़े अमल और अजीबो ग़रीब तजरबात बयान किये। जाबिर की वजह से ही कुस्तुनतुनया से दूसरी दफ़ा यूनानी कुतुब बड़ी तादात में लाई गई।

मन्तिक़ में अल्लामा ए दहर मशहूर हो गया और 90 साल से कुछ ज़्यादा उम्र में उसने तीन हज़ार किताबें लिखीं और इन किताबों में से वह बाज़ पर नाज़ करता था। अपनी किसी तसनीफ़ के बारे में उसने लिखा है कि रूए ज़मीन पर हमारी इस किताब के मिस्ल एक किताब भी नहीं है न आज तक ऐसी किताब लिखी गई है और न क़यामत तक लिखी जायेगी।(सरफ़राज़ 2 दिसम्बर 1952 0 )

फ़ाज़िल हंसवी अपनी किताब ‘‘ किताब व किताब ख़ाना ’’ में लिखते हैं कि जाबिर के इन्तेक़ाल के दो बरस बाद इज़्ज़ उद दौला इब्ने मुइज़्ज़ उद दौला के अहद में कूफ़े के शारेह बाबुश शाम के क़रीब जाबिर की तजरूबे गाह का इन्केशाफ़ हो चुका है। जिसको खोदने के बाद बाज़ क़दीमी मख़तूतात ब्रिटिश मियूज़ियम में अब तक मौजूद हैं। जिनमें से किताब उल ख़वास क़ाबिले ज़िक्र है। इसी तरह फ़ुस्ते वस्ता में बाज़ किताबों का तरजुमा लातीनी में किया गया। इन किताबों के अलावा इन अनुवादों के सिबअईन भी हैं जो नाक़िसों ना तमाम है।

‘‘ इसी तरह अल बहस अनल कमाल ’’ का तरजुमा भी लातीनी में किया जा चुका है। यह किताब लातीनी ज़बान में कीमिया पर यूरोप की ज़बान में सब से पहली किताब है। इसी तरह और दूसरी किताबें भी अनुवादित हुई हैं। जाबिर ने कीमिया के अलावा तबीयात , हैय्यत इल्मे रोया , मन्तिक़ , तिब और दूसरे उलूम पर भी किताबें लिखीं। इसकी एक किताब समीयत पर भी है जो कुत्बे ख़ाना ए तैमूरिया क़ाहेरा मिस्र में मौजूद है। इनमें चन्द ऐसे मक़ालात को जो बहुत मुफ़ीद थे बाद करह हुरूफ़ ने रिसाला ए मक़ततफ़ जिल्द 58. 59 में शाया किये हैं। मुलाहेज़ा हो ,(मोअज्जमुल मतबूआत अल अरबिया अल मोअर्रेबा जिल्द 3 हरफ़ जीम पृष्ठ 665 )

जबिर ब हैसियत एक तबीबी के काम करता था लेकिन इसकी तिब्बी तसानीफ़ हम तक न पहुंच सकीं। हालां कि इस मक़ाले का लिखने वाला यानी डाक्टर माक्स मी यरहाफ़ ने जाबिर की किताब को जो समूूम पर है हाल ही में मालूम कर लिया।

जाबिर की एक किताब जिसको मय मतन अरबी और तरजुमा फ़्रानसीसी पोल कराओ मुशर्तरक ने 1935 ई 0 में शाया किया है ऐसी भी है जिसमें उसने तारीख़ इन्तेशार आराद अक़ाएद व अफ़कार हिन्दी यूनानी और इन तग़य्यूरात का ज़िक्र किया है जो मुसलमानों ने किए हैं। इस किताब का नाम ‘‘ एख़राज माफ़िल क़ूव्वत इल्ल फ़ेल ’’ है।(अल जवाद जिल्द 10 पृष्ठ 9 प्रकाशित बनारस)

प्रोफ़ेसर रसकार की रद मेरे बयान से यह यक़ीनन वाज़ेह हो गया कि मुवर्रेख़ीन इस पर मुत्तफ़िक़ है कि जाबिर बिन हय्यान इस्लाम का मोअजि़्ज़ कीमिया गर हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का शार्गिद था। लेकिन मिस्टर प्रोफ़ेसर रसकार ने इल्मे कीमिया के बारे में जो रिसाला शाया किया है उसमें जाबिर इब्ने हय्यान के उन दावों को ग़लत और जाली बताया है जो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शार्गिदी की तरफ़ मन्सूब है। इसकी दलील यह है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को इल्मे कीमिया और साईंस से क्या वास्ता और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की हैसियत का इमाम पारे , गन्धक , खटाई और फुकनी के इस्तेमाल में मसरूफ़ हो यह कैसे हो सकता है। मैं मौसूफ़ के जवाब में कहता हूँ कि मौसूफ़ ने कोई माक़ूल वजह इन्कार की बयान नहीं फ़रमाई। तारीख़ों को सुबूत पेश करना सुबूत के लिये काफ़ी है और उनके इन्कार से अदम शर्मिंन्दगी की दलील नहीं क़ायम की जा सकती। यह कब ज़ुरूरी है कि जाबिर बिन हय्यान जैसे ज़की व ज़ेहीन शार्गिद को बच्चों की तरह बैठ कर अमल कर के दिखाया हो। ज़ैहीन तालिबुल इल्मों को ज़बानी तालीम दी जाती है और अगर इसी तरह तालीम दी हो जिस तरह एतेराज़ करने वालों का ख़्याल है , तब भी कोई हर्ज नहीं है।

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) जैसा उस्ताद उलूम को फ़ैलाने के लिये पारा और गन्धक , खटाई और फुकनी में कुछ देर मसरूफ़ रह सकता है और यह कोई एतेराज़ की बात नहीं हो सकती , मुम्किन है कि हज़रत ने जुमला उलूम के उसूल तालीम फ़रमा दिये हों और जाबिर ने उन्हें वसअत दे दी हो। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हो , किताब मनाक़िब में है कि हज़रत अली फ़रमाते हैं , अल मनी रसूल अल्लाह (स अ व व ) अलीफ़ बाब , आं हज़रत (स अ व व ) ने मुझे उलूम के एक हज़ार बाब तालीम फ़रमाये और मैंने हर बाब से हज़ार हज़ार बाब खुद पैदा किये। किताब मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 58 में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने इल्मे नहो के उसूल अबु असवद दवेली को तालीम फ़रमाये फिर उसने तमाम तफ़सीलात मुकम्मल किये , हो सकता है कि इसी उसूल पर जाबिर को तालीम दी गई हो।

जाबिर बिन हय्यान की वफ़ात इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक कैमिस्ट्री से मालूम होता है कि जाबिर बिन हय्यान की उम्र 90 साल से कुछ ज़्यादा थी। मिस्टर जाफ़र बारहवी ने उनकी विलादत और वफ़ात के बारे में सरफ़राज़ 17 नवम्बर 1952 ई 0 में जो कुछ तहरीर किया है उसी को नक़ल करते हुए मिस्टर क़मर रज़ा ने पयामे इस्लाम जिल्द 7 पृष्ठ 15, 16, 26 जुलाई 1953 ई 0 में लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान 722 ई 0 में पैदा हुए और उन्होंने 803 ई 0 में इन्तेक़ाल किया और बाज़ का कहना है कि 813 ई 0 तक ज़िन्दा रहे। इसके बाद लिखते हैं कि इब्ने नदीम ने उनकी वफ़ात 777 ई 0 में बताई है और मेरे नज़दीक यही ठीक है। मेरी समझ में नहीं आता कि मौसूफ़ ने इब्ने नदीम के फ़ैसले को क्यों कर तसलीम कर लिया , इस लिये कि अगर विलादत का सन् सही है तो फिर इब्ने नदीम का बयान मानने लायक़ नहीं क्यों कि अगर वह 722 ई 0 में पैदा हुए थे और 777 ई 0 में वफ़ात पा गये तो गोया उनकी उम्र सिर्फ़ 55 साल की हुई जो इतने साहेबे कमाल के लिये क़रीने क़यास नहीं है। मेरे नज़दीक़ इन्साईकिलो पीडिया वाले की तहक़ीक़ सही है वह 90 साल से कुछ ज़्यादा उनकी उम्र बताता है जो हिसाब के एतेबार से सही है क्यों कि विलादत 722 ई 0 और वफ़ा 813 ई 0 में तसलीम करने के बाद उनकी उम्र 91 साल होती है और यह उम्र ऐसे बा कमाल के लिये होनी मुनासिब है।

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