चौदह सितारे  हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन पार्ट 3

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) के बचपन का एक वाकैया अल्लामा मजलिसी रक़मतराज़ है कि एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) जब कि आपका बचपन था बीमार हुये। हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) ने फ़रमाया, बेटा ! अब तुम्हारी तबीयत कैसी है और तुम कोई चीज़ चाहते हो तो बयान करो ताकि मैं तुम्हारी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उसे फ़राहम करने की कोशिश करूँ। आप ने अर्ज़ कि बाबा जान अब ख़ुदा के फ़ज़ल से अच्छा हूँ। मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ यह है कि ख़ुदा वन्दे आलम मेरा शुमार उन लोगों में करे जो परवरदिगारे आलम के क़ज़ा व क़दर के ख़िलाफ़ कोई ख़्वाहिश नहीं रखते। यह सुन कर इमाम हुसैन (अ.स.) खुश व मसरूर हो गये और फ़रमाने लगे बेटा तुम ने बड़ा मसर्रत अफ़ज़ा और मारेफ़त ख़ेज़ जवाब दिया है। तुम्हारा जवाब बिल्कुल हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के जवाब से मिलता जुलता है। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को जब मिनजनीक़ में रख कर आग की तरफ़ फेंका गया था और आप फ़ज़ा में होते हुए आग की तरफ़ जा “E ” रहे थे तो हज़रत जिब्राईल (अ. स.) ने आप से पूछा था हल्लक हाजतः आपकी 66 कोई हाजत व ख़्वाहिश है? उस वक़्त उन्होंने जवाब दिया था, नाअम इमा इलैका फ़ला ” बेशक मुझे हाजत है लेकिन तुम से नहीं, अपने पालने वाले से है। (बेहारूल अनवार जिल्द 11 पृष्ठ 21 प्रकाशित ईरान)

आपके अहदे हयात के बादशाहाने वक़्त

आपकी विलादत बादशाहे दीनो ईमान हज़रत अली (अ.स.) के अहदे असमत में हुई। फिर इमाम हसन (अ.स.) का ज़माना रहा, फिर बनी उमय्या की ख़ालिस दुनियावी हुकूमत हो गई। सुलेह इमाम हसन (अ.स.) के बाद फिर 60 हिजरी तक माविया बिन अब सुफ़ियान बादशाह रहा। उसके बाद उसका फ़ासिक़ व फ़ाजिर बेटा यज़ीद 64 हिजरी तक हुक्मरां रहा। 64 हिजरी में माविया बिन यज़ीद बिन माविया और मरवान बिन हकम हाकिम रहे। 64 हिजरी में वलीद बिन अब्दुल मलिक ने हुक्मरानी की और उसी ने 94 हिजरी में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) को ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया। (तारीखे आइम्मा पृष्ठ 392 व सवाएके मोहर्रेका पृष्ठ 12 व नूरूल अबसार पृष्ठ 128)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) का अहदे तफ़ूलियत और हज्जे बैतुल्लाह

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि इब्राहीम बिन अदहम का बयान है कि मैं एक मरतबा हज के लिये जाता हुआ क़ज़ाए हाजत की ख़ातिर क़ाफ़िले से पीछे रह गया। अभी थोड़ी ही देर गुज़री थी कि मैंने एक नौ उम्र लड़के को इस जंगल में सफ़रे पामा देखा। उसे देख कर फिर ऐसी हालत में कि वह पैदल चल रहा था और उसके साथ कोई सामान न था और न उसका कोई साथी था। मैं हैरान हो गया फ़ौरन उसकी खिदमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ। 66 साहब ज़ादे ” यह लक़ो दक़ सहरा और तुम बिल्कुल तने तन्हा, यह मामेला क्या है ज़रा मुझे बताओ? तो सही कि तुम्हारा ज़ादे राह और तुम्हारा राहेला कहां है और तुम कहां जा रहे हो? इस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया ।

ज़ादी तक़वा व राहलती रजाली व क़सादी मौलाया

मेरा ज़ादे राह तक़वा और परहेज़गारी है मेरी सवारी मेरे दोनों पैर हैं और मेरा मक़सूद मेरा पालने वाला है और मैं हज के लिये जा रहा हूँ। मैंने कहा कि आप तो बिल्कुल कमसिन हैं, हज आप पर वाजिब नहीं है। उस नौ ख़ेज़ ने जवाब दिया। बेशक तुम्हारा कहना दुरूस्त है लेकिन ऐ शेख मैं देखता हूँ कि मुझसे छोटे छोटे बच्चे भी मर जाते हैं इस लिये हज को ज़रूरी समझता हूँ कि कहीं ऐसा न हो कि इस फ़रीज़े की अदाएगी से पहले मर जाऊँ । मैंने पूछा ऐ साहब जादे तुम ने
खाने का क्या इंतेज़ाम किया है देख रहा हूँ कि तुम्हारे साथ खाने का कोई इन्तेज़ाम नहीं है। उसने जवाब दिया । ऐ शेख जब तुम किसी के यहां मेहमान जाते हो तो खाना अपने हमराह ले जाते हो? मैंने कहा नहीं। फिर उसने फ़रमाया सुनो, मैं तो ख़ुदा का मेहमान हो कर जा रहा हूँ खाने का इन्तेज़ाम उसके ज़िम्मे है। मैंने कहा इतने लम्बे सफ़र को पैदल क्यो कर तय करोगे। उसने जवाब दिया कि मेरा काम कोशिश करना है और ख़ुदा का काम मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना है।

हम अभी बाहमी गुफ़्तुगू में ही मसरूफ़ थे कि नागाह एक ख़ूब सूरत जवान सफ़ैद लिबास पहने हुये आ पहुँचा और उसने इस नौ ख़ेज़ को गले से लगा लिया। यह देख कर मैंने उस जवाने राना से दरयाफ़्त किया यह नौ उम्र फ़रज़न्द कौन है? उस नौजवान ने कहा कि यह हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) बिन इमाम हुसैन (अ.स.) बिन अली इब्ने अबी तालिब (अ. स.) हैं। यह सुन कर मैं उस जवाने राना के पास से इमाम की खिदमत में हाज़िर हुआ और माज़रत ख़्वाही के बाद उनसे पूछा कि यह खूब सूरत जवान जिन्होंने आपको गले से लगाया यह कौन हैं ? उन्होंने फ़रमाया यह हज़रते खिज्र नबी (अ. स.) हैं। उनका फ़र्ज़ है कि रोज़ाना हमारी ज़्यारत के लिये आया करें। उसके बाद मैंने फिर सवाल किया और कहा कि आखिर आप इस अज़ीम और तवील सफ़र को बिला ज़ाद और राहेला क्यों कर तय करेंगे। तो आपने फ़रमाया कि मैं ज़ाद और राहेला सब कुछ रखता और वह यह चार चीज़े हैं। 1. दुनिया अपनी तमाम मौजूदात समेत खुदा की

ममलेकत है। 2. सारी मख़्लूक़ अल्लाह के बन्दे हैं। 3. असबाब और अरज़ाक़ ख़ुदा के हाथ में हैं। 4. क़ज़ाए खुदा हर ज़मीन में नाफ़िज़ है। यह सुन कर मैंने कहा ख़ुदा की क़सम आप ही का ज़ाद व राहेला सही तौर पर मुक़द्दस हस्तियों का सामाने सफ़र है। (दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 437 )

उलेमा का बयान है कि आपने सारी उम्र में 25 ( पच्चीस) हज पा पियादा किये हैं। आपने सवारी पर जब भी सफ़र किया है अपने जानवर को एक कोड़ा भी नहीं मारा।

आपका हुलिया ए मुबारक

इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि आपका रंग गन्दुम गूँ (सांवला) और क़द मियाना था। आप दुबले पतले क़िस्म के इंसान थे। (नूरूल अबसार पृष्ठ 126 व अख़बारूल अव्वल पृष्ठ 109)

मुल्ला मुबीन तहरीर फ़रमाते हैं कि आप हुसनो जमाल, सूरतो कमाल में निहायत ही मुम्ताज़ थे। आपके चेहरे मुबारक पर जब किसी की नज़र पड़ती थी तो वह आपका एहतेराम करने और आपकी ताज़ीम करने पर मजबूर हो जाता था। (वसीलतुन नजात पृष्ठ 219)
मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई रक़मतराज़ हैं कि आप साफ़ कपड़े पहनते थे और जब रास्ता चलते थे तो निहायत ख़ुशू के साथ राह रवी में आपके हाथ ज़ानू से बाहर नहीं जाते थे। (मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 226 व पृष्ठ 264)

𝐅𝐀𝐋𝐒𝐄 𝐇𝐎𝐍𝐎𝐑

𝐅𝐀𝐋𝐒𝐄 𝐇𝐎𝐍𝐎𝐑

•Maulana Jalaludin Rumi (ra)

One night, Jalaluddin Rumi, may Allah have mercy on him, invited his teacher, Sheikh Shamsuddin Tabrizi, to his home.

The Murshid (spiritual guide), Shamsuddin, accepted the invitation and came to Rumi’s house.

After all the dinner dishes were ready, Shams said to Rumi, “Can you provide me with a drink?” (meaning wine/alcohol).

Rumi was shocked to hear this, “Does the teacher also drink?”

“Yes,” Shams replied.

Rumi was still surprised, “Sorry, I didn’t know this.”

“Now you know. So, provide it.”

“At this time of night, where can I get wine?”

“Tell one of your servants to buy it.”

“My honor in front of my servants will be lost.”

“In that case, go out yourself to buy the wine.”

“The whole city knows me. How can I go out and buy a drink?”

“If you are truly my student, you must provide what I ask. Without a drink, tonight I will not eat, will not talk, and cannot sleep.”

Out of love for his teacher, Rumi eventually put on his cloak, hid a bottle under it, and walked toward the Christian quarter.

Until he entered the quarter, no one thought anything of him. However, once he entered the Christian neighborhood, some people were surprised and began to follow him.

They saw Rumi enter a tavern. He was seen buying a bottle of drink, then he hid it under his cloak and walked out.

People continued to follow him, and their numbers grew. Finally, Rumi arrived in front of the mosque where he was the imam for the town.

Suddenly, one of those following him shouted, “O people, Sheikh Jalaluddin Rumi, who leads your prayers every day, has just gone to the Christian neighborhood and bought alcohol!”

The person said this while uncovering Rumi’s cloak. The crowd saw the bottle Rumi was holding. “The man who claims to be an ascetic, and whom you follow, bought alcohol and is bringing it home!” the person shouted provocatively.

The people became enraged and began spitting on Rumi’s face and beating him until his turban slipped down to his neck.

Seeing Rumi remain silent without defending himself, the crowd became more convinced that they had been deceived by Rumi’s teachings of asceticism and piety.

They no longer felt any compassion and continued to beat Rumi, with some even intending to kill him.

Suddenly, the voice of Shams Tabrizi was heard, “O shameless people!

You have accused a scholar and jurist of drinking alcohol. Know that what is in that bottle is vinegar for cooking.”

One of them challenged this, saying, “That’s not vinegar, it’s alcohol. I saw with my own eyes Rumi buying it at the tavern.”

Then Shams took the bottle and opened the cap. He poured a bit of the liquid onto the hands of the people so they could smell it.

They were shocked because it was indeed vinegar.

It turns out that before going to Rumi’s house, the teacher had stopped by the tavern and instructed the shopkeeper to give Rumi a bottle filled with vinegar if he came to buy alcohol.

The people then beat their own heads in regret and bowed at Rumi’s feet.

They crowded around to apologize and kissed Rumi’s hands until, one by one, they slowly left.

Rumi said to Shams, “Tonight, you’ve dragged me into a big problem, to the point where I had to tarnish my own honor and reputation in front of my followers. What was the meaning of all this?”

“So that you understand that the honor of the people and the prestige you take pride in is nothing but an illusion.

Do you think the respect of ordinary people like them is something eternal?

You saw for yourself, just because of the suspicion over one bottle of drink, all that respect vanished, and they spat on you, beat you, and nearly killed you.

Is this the honor you’ve been so proud of and fought for, which disappeared in an instant?”

“From today, stop seeking honor from fellow humans and rely on the One who is not shaken by time and is not broken by the changes of the ages.

He, the Almighty, knows who is truly honorable and who seeks only false honor.

From now on, rely only on Allah, the Most High.” He knows who is truly honorable from those who are false.”

अहलेबैत से मुहब्बत की दरयाफ्त

मुहिब्बे तबरी ने एक रिवायत नकल फरमाई है कि हुज़ूर नबी ए करीम ﷺ  ने फरमाया

“अल्लाह तआला ने तुम (उम्मती) पर जो मेरा अज़्र मुकर्रर किया है वह मेरे अहलेबैत से मुहब्बत करना है। और में कल तुमसे उनके बारे में दरयाफ्त करूंगा।”

📚 सवाइके मुहर्रका  सफ़ा 753

मौला अली عَلَیهِ‌السَّلام बैतुल्लाह की तरह हैं

मौला अली عَلَیهِ‌السَّلام बैतुल्लाह की तरह हैं

इमाम इब्ने असीर जजरी ने उस्दुल ग़ाबा की चौथी जिल्द में सफ़ाह नं 106 पर रिवायत नकल की है कि
عبد الله بن أحمد بن عبد القاهر ، أنبأنا : أبو غالب محمد بن الحسن الباقلاني اجازة ، أنبأنا : أبو علي بن شاذان ، أنبأنا : عبد الباقي بن قانع ، حدثنا : محمد بن زكريا العلائي ، حدثنا : العباس بن بكار ، عن شريك ، عن سلمة ، عن الصنايجي ، عن علي ، قال : قال رسول الله (ص) :
“أنت بمنزلة الكعبة تؤتى ولا تأتي فإن أتاك هؤلاء القوم فسلموها إليك يعني الخلافة ، فأقبل منهم وإن لم يأتوك فلا تأتهم حتى يأتوك.”
आप भी इस रिवायत को सफ़ाह नं 106 पर देखें 👇
https://archive.org/details/usdulghaaba/usdulghaaba-04/page/n105/mode/1up?view=theater
इसका उर्दू तर्जुमा हाफ़िज़ी बुक डिपो देवबंद (सहारनपुर) से हुआ है, इसके चौथी जिल्द के सफ़ाह नंबर 612 पर है कि
“रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:- ऐ अली, तुम क़ाबा की मिस्ल हो कि लोग उसके पास आते हैं वोह किसी के पास नहीं जाता और हां..अगर क़ौम तुम्हारे पास आएं और खिलाफ़त तुम्हारे हवाले करें तो कबूल कर लेना और अगर वोह तुम्हारे पास ना आएं तो तुम उनके पास मत जाना! यहां तक कि वोह खुद तुम्हारे पास आएंगे।”

इमाम इब्ने असाकिर ने तारीख ऐ मदीना ऐ दमिश्क की जिल्द नंबर 42 में सफ़ाह नंबर 355 और 356 पर रकम नं 4933 के तहत दूसरी सनद के साथ रिवायत नकल की है कि:-
أخبرنا : أبو منصور عبد الرحمن بن محمد بن عبد الواحد ، أنبأنا : أبو بكر الخطيب ، أنبأنا : أبو طاهر إبراهيم بن محمد بن عمر بن يحيى العلوي ، أنبأنا : أبو المفضل محمد بن عبد الله بن محمد الشيباني ، أنبأنا : محمد بن محمود بن بنت الأشج الكندي الكوفي نزيل أسكران سنة ثماني عشرة وثلاثمائة ، أنبأنا : محمد ابن عنبس بن هشام الناشري ، أنبأنا : إسحاق بن يزيد ، حدثني : عبد المؤمن بن القاسم ، عن صالح بن ميثم ، عن يديم بن العلاء كذا ، عن أبي ذر ، قال : قال رسول الله (ص) مثل علي فيكم – أو قال : في هذه الأمة – كمثل الكعبة المستورة النظر اليها عبادة ، والحج اليها فريضة.
ऐहले’हदीस आलिम उबैदुल्ला अमृतसरी हनफ़ी ने “अर्जहुल- मतालिब” के सफ़ाह नंबर 480 पर लिखा है कि:-
… عن ابن عباس ، قال : قال رسول الله (ص) لعلي (ع) : أنت بمنزلة الكعبة تؤتى ولا تأتي ، أخرجه الديلمي.

इसके अलावा इमाम कंदौजी हनफ़ी ने यनाबिएल मवद्दत की दूसरी जिल्द में सफ़ाह नंबर 182 पर लिखा है:-
… روى من طريق الديلمي ، قال : قال رسول الله (ص) يا علي أنت بمنزلة الكعبة.

इन सभी हदीसों का मफ़हूम यही है कि नबी करीम ﷺ के मुताबिक मौला अली عَلَیهِ‌السَّلام बैतुल्लाह (यानि क़ाबा शरीफ़) की तरह हैं। 👇