चौदह सितारे पार्ट 95

इमाम हुसैन (अ.स.) की रूखसती

हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद न सरकार है न दरबार न लशकर है न अलमदार, अली असग़र को नन्हीं सी क़ब्र खोद कर दफ़्न फ़रमाते हैं और अकेले हरम के ख़मों की तरफ़ आते हैं और अहले बैत से रूख़सत होते हैं और फ़रमाते हैं ऐ ज़ैनब, ऐ उम्मे कुलसूम, ऐ रूक़य्या, ऐ रबाब, ऐ सकीना अलैकुम मिन्नी अस्सलाम, सलामे अलविदा यह मेरी आख़री रूख़सती है। ऐ बहनों, ऐ बीबियों, ऐ बेटियों बस ख़ुदा हाफ़िज़ो नासिर है और वही हामियों मद्दगार है।

बहन ज़ैनब देखो, हर मुसीबत में हर बला में ख़ुदा को याद रखना, अपने रहीमो ख़ालीक़ को न भूलना। एनाने सब्र को हाथ से न छोड़ना । राहे इलाही में हर एक रेंज व मुसिबत को राहत समझना । रस्सी से हाथ बंधे तो उफ़ न करना, चादर छिने तो ग़म न खाना । अम्मा के सब्र और बाबा के हिल्म के जौहर दिखलाना। नाना रसूल (स.व.व.अ.) तुम्हारे मद्दगार और ख़ुदा तुम्हारा हामी है। हां लुटने के लिये तय्यार हो जाओ। क़ैद होने के लिये कमरों को कस लो। चादरों को अच्छी तरह से ओढ़ लो। मक़नों को मज़मूती से बांध लो। ऐ बहन ज़ैनब यह यतीम बच्चे, यह असीराने अहलेबैत (अ.स.) का काफ़ला बस तुम्हारे साथ है। बीमारे करबला सय्यदे सज्जाद ज़ैनुल आबेदीन को ग़श से जगा दो, होशियार कर

दो। अब तौको ज़जीर पहने और असीर होने का वक़्त आ गया है। बेड़ियां पहन्ने और कांटों पर पैदल चलने का ज़माना क़रीब है। अब जंगल के कांटों भरे रास्ते हैं शाम के बाज़ार हैं और लोगों का हुजूम है, और सहरा नवरदी है। कभी कूफ़ा व तमाशईयों का मजमा है, मां बहनों के नंगे सर हैं और ज़ैनुल आबदीन हैं। यज़ीद और इब्ने ज़ियाद के दरबार में शिम्र के ताज़याने हैं और हमारा लाडला बीमार है। ऐ ज़ैनुल आबेदीन !

प्यासा गला कटाया यह ओहदा है बाप का

पहनो गले में तौक़ यह हिस्सा है आप का

बस हमारे बाद दुनियां के इमाम तुम हो। ऐ जाने पदर इस कश्ती की मल्लाही अब तेरी ज़ात पर है। देखना आपकी मेहनत राएगां ना जाने पाऐ, अन्नाने सब्र व तहम्मुल हाथ से न छूटे। करबला से कूफ़ा और कूफ़े से शाम तक माँ बहनों के साथ, बेड़ियां पहने, तौक़ डाले, नंगे पांव जाओ, सब्रो रज़ा ए इलाही के जौहर दिखलाओ। तौहीद के ख़ुत्बे पढ़ो, हिदायत के रास्ते बताओ। हां हां बेटा देखना बेड़ी पहन कर सिलसिला ए सब्र छूट न जाए। बस हम राहे रज़ा सर से क़ता करने को तैय्यार हैं और तुम अपने पैरों से तय करना । राहे इलाही में ख़ार दार तौक़ को फूलों को हार समझना और इश्के इलाही में लौहे की तप्ती बेड़ियों को मोहब्बते ख़ुदा की जंजीरे जनाना। यह फ़रमाने के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) फटे पुराने कपड़े मांगते हैं, पोशाक के नीचे पहनते हैं, उन्हें भी जगह जगह से चाक फ़रमा देते हैं।
सबब पूछा जाता है तो फ़रमाते हैं कि मेरे शहीद हो जाने के बाद यह ज़ालिम शक़ी मेरा लिबास भी लूटेंगें और कपड़े भी उतारेंगे। शायद यह फटे पुराने कपड़े नीचे देख कर छोड़ दें और इस तरह मेरी लाश बरहनगी से बच जाए। (तारीख़े कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 40 व तबरी पृष्ठ 34)

बहन के रूख़सत फ़रमा कर, बीबीयों को अलविदा कह कर, माँ की कनीज़ फ़िज़्ज़ा, पालने वाली को भी सलाम कर के बाली सकीना सीने पर सोने वाली लाडली बेटी को छाती से लगा कर मुह चूमते और फ़रमाते थे, बेटी तुम को ख़ुदा के सिपुर्द किया। ख़ेमे का परदा उठा, बाहर तशरीफ़ लाए, बहन ने रक़ाब थामी, ज़ुल्जना पर सवार हुए और मैदाने कारज़ार पर रवाना हो गए। (नामूसे इस्लाम)

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) मैदाने जंग में

जब आपके 72 असहाब व अन्सार और बनी हाशिम क़ुरबान गाहे इस्लाम पर चढ़ चुके तो आप ख़ुद अपनी क़ुरबानी पेश करने के लिये मैदाने कारज़ार में आ पहुँचे। लशकरे यज़ीद जो हज़ारों की तादाद में था, अस्हाबे बावफ़ा और बहादुराने बनी हाशिम के हाथों वासीले जहन्नम हो चुका था। इमाम हुसैन (अ.स.) जब मैदान में पहुँचे तो दुश्मनों के लशकर में से तीस हज़ार सवार व पियादे बाक़ी थे यानि सिर्फ़ एक प्यासे को तीस हज़ार दुश्मनों से लड़ना था । (कशफ़ुल ग़म्मा) मैदान पहुँचने के बाद आपने सब से पहले दुश्मनों को मुख़ातिब कर के एक ख़ुत्बा इरशादफ़रमाया। आपने कहा, ऐ ज़ालिमों ! मेरे क़त्ल से बाज़ आओ, मेरे ख़ून से हाथ न रंगो, तुम जानते हो मैं तुम्हारे नबी का नवासा हूँ। मेरे बाबा अली (अ.स.) साबिके इस्लाम हैं, मेरी माँ फ़ात्मा ज़हरा ( स.व.व.अ.) तुम्हारे नबी ( स.व.व.अ.) की बेटी हैं और तुम जानते हो कि मेरे नाना रसूल अल्लाह ( स.व.व.अ.) ने मुझे और मेरे भाई हसन (अ.स.) को सरदारे जवानाने जन्नत फ़रमाया है। अफ़सोस तुम कैसी बुरी क़ौम और कैसी बुरी उम्मत हो कि न तुम को ख़ुदा का ख़ौफ़ है न रसूल (स.व.व.अ.) से शर्म है। तुम अपने नबी की औलादों और अपने रसूल (स.व.व.अ.) की आल का ख़ून बहाते हो और मेरे ख़ूने ना हक़ पर आमादा होते हो, हालांकि न मैंने किसी को क़त्ल किया है न किसी का माल छिना है कि जिसके बदले में तुम मुझको क़त्ल करते हो। मैं तो दुनियां से बे ताअल्लुक़ अपने नाना रसूल ( स.व.व.अ.) की क़ब्र पर मुजाविर बना बैठा था। तुम ने मुझे हिदायत के लिये बुलाया और मुझे न नाना की क़ब्र पर बैठने दिया न ख़ुदा के घर में रहने दिया । सुनो अब भी हो सकता है कि मुझे इसका मौक़ा दे दो कि मैं नाना की क़ब्र पर बैठूं या ख़ाना ए ख़ुदा में पनाह ले लूं। इसके बाद आपने इतमामे हुज्जत के लिये उमरे साद को बुलाया और उससे फ़रमाया, 1. तुम मेरे क़त्ल से बाज़ आओ। 2. मुझे पानी दे दो। 3. अगर यह मन्जूर न हो तो फिर मेरे मुक़ाबले के लिये एक एक शख़्स को भेजो। उसने जवाब दिया आपकी तीसरी दरख्वास्त मन्ज़र की जाती है और आपसे लड़ने के लिये एक एक शख़्स मुक़ाबले में आएगा। ( रौज़तुल शोहदा )




Leave a comment