इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की इबादत और अजादारी-

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की इबादत और अजादारी-

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के विसाल के बाद, लोग आपके खादिमों और कनीज़ के पास गए और सवाल करने लगे कि, “हमें सीरत ए इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के मुताल्लिक कुछ बताओ।”, कनीज़ ने पूछा, “तफ्सील से बताऊँ या मुख़्तसर सा?”, लोगों ने कहा, “मुख़्तसर-मुख़्तसर सा बता दो।”, कहने लगी, “मैं आका की ख़िदमत में तीस साल से हूँ लेकिन कभी मैंने उनके लिए दिन का खाना बनाया है और ना ही रात में बिस्तर लगाया है।”, लोगों ने कहा, “हम समझे नहीं ।”, कहने लगी, “मैं तीस साल तक इमाम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में रही, दिन के वक्त आप रोज़ा रखा करते थे, जिन दिनों में रोज़ा हराम होता हैन दिनों में आप रोज़ा भले ही ना रखते थे लेकिन दिन के वक्त खाना भी नहीं खाते थे लिहाजा मैंने आप इमाम अलैहिस्सलाम के लिए कभी दिन में खाना ना बनाया। रात के वक्त आप अलैहिस्सलाम इबादत में मशगूल रहते तो नमाज़ें अदा करते लिहाजा आपके लिए कभी बिस्तर लगाने की नौबत नहीं आई । “

इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि, “हमारे घर के पीछे एक बाग था जिसमें खजूर के पाँच सौ दरख़्त थे, मेरे बाबा हर दरख्त के नीचे दो रकात नमाज़ अदा करते थे और फजर पढ़ने के बाद तक आपकी इतनी हिम्मत नहीं बचती थी की चलकर आ सकें तो बैठे-बैठे ही बिस्तर तक आ जाते। “

इमाम सज्जाद को यूँ ही ज़ैनुल आबिदीन नहीं कहा जाता बल्कि आप अलैहिस्सलाम ने ऐसी इबादत की है की जिसकी मिसाल मिल पाना मुमकिन नहीं। चाहे बीमारी का आलम हो, जलते हुए खेमे हों, घर का घर लुटने का दर्द हो, अहलेबैत अलैहिस्सलाम की चादर छिनने का ग़म हो, चाहे नाका की पुश्त पर हों या कैदखाने में, चाहे बेड़ियों और तौक में जकड़े हुए सफर शाम में हों, आप इमाम अलैहिस्सलाम ने कभी भी इबादत तर्क नहीं की और हमेशा अपने रब को सजदे करते रहे।

अब अगर बात करें मातम और अज़ादारी की तो इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं, “इस उम्मत में इतना कोई नहीं रोया होगा जितना फातिमा सलामुल्लाह अलैहा और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम रोए हैं। मदीना वालों को मुहर्रम का महीना शुरू होने का पता चाँद देखकर नहीं बल्कि इमाम सज्जाद के घर से आने वाली रोने की आवाजों को सुनकर लगता था।”

इमाम अलैहिस्सलाम जब गुज़रते तो कसाई अपने – अपने जिब्ह किए जानवरों और कच्चे गोश्त को ढक देते थे और अगर गलती से खुला रह जाता तो इमाम अलैहिस्सलाम रोने लग जाते और पूछते की क्या जिबह करने से पहले इसे दाना-पानी दिया था?, क्या खंजर को तेज़ कर लिया था, इस बात का ख़याल रखा था या नहीं की कोई और जानवर तो नहीं देख रहा?, जब जवाब में कसाई कहते की जी हाँ इमाम अलैहिस्सलाम हम मुसलमान हैं, इन सारी बातों का ध्यान रखते हैं। इमाम अलैहिस्सलाम करबला की तरफ रुख करके रोने लग जाते और फरमाते, “अस्सलाम ओ अलैका या अबा अब्दिल्लाह ! ऐ मेरे बाबा, मुसलमान जानवरों को ज़िब्ह करते वक्त तो शरियत याद रखते हैं लेकिन मेरे बाबा को शहीद करते वक्त कुछ याद ना रख सके।, रिवायतों में यहाँ तक आता है की जब-जब भी आप इमाम अलैहिस्सलाम वुजु करते तब इस बात पर रोते की मैंने तो पानी से वुज़ु कर लिया लेकिन मेरे बाबा को वुजु के लिए तक पानी मयस्सर ना किया गया और वो तयम्मुम करके नमाज़ अदा करते रहे।

लोगों ने देखा की इमाम अलैहिस्सलाम नमाज़ अदा कर चुके और बाद नमाज़, आप रोने लगे, लोगों ने पूछा कि, “या इमाम, क्या हुआ, आप रोने क्यों लग गए?”, आप इमाम अलैहिस्सलाम फरमाने लगे कि, “ये ही तो वो सज्दा है की जिस सज्दे में मेरे बाबा के खुश्क

गले पर खंजर चलाया गया था।”, हज के दौरान खाना ए काबा के सामने गए तो गश खाकर बेहोश हो गए और जब होश में लाया गया तो आप अलैहिस्सलाम ने फरमाया, “ये ही तो वो काबा है की जिसकी इज़्ज़त ओ तहारत को बचाए रखने के लिए मेरे बाबा ने कुर्बानी दी है।”, हद तो ये है की जब कभी इमाम अलैहिस्सलाम पानी को देखते तो बेइंतिहा रोते और फरमाते, “हाय, ये वो पानी है की जिससे सभी इंसान, परिंदे, जानवर, दरिंदे तो पी सकते है लेकिन मेरे बाबा पर हराम करार कर दिया गया था । “

चौदह सितारे पार्ट 85

तरके वतन का फ़ैसला करने के बाद आप, इमाम हसन (अ. स.) और मज़ारे जनाबे सय्यदा (स.अ.व.व.) पर तशरीफ़ ले गये। भाई से रूख़सत हुए और मां को सलाम किया क़ब्र से जवाबे सलाम आया। नाना के रौज़े पर रुख़्सते आखिर के लिये तशरीफ़ ले गये, रोते रोते सो गये, सरवरे कायनात (स.अ.व.व.) ने जवाब में सब्र की तलक़ीन की और फ़रमाया बेटा हम तुम्हारे इन्तेज़ार में हैं।

उलेमा का बयान है कि इमाम हुसैन (अ.स.) 28 रजब 60 हिजरी यौमे सेह शम्बा ब इरादा ए मक्का रवाना हुए। अल्लामा इब्ने हजर मक्की का कहना है कि 66 ” नफ़रूल मकता ख़ौफ़न अला नफ़सहू इमाम हुसैन (अ.स.) जान के ख़ौफ़ से मक्के को तशरीफ़ ले गये। (सवाएके मोहर्रेका पृष्ठ 47 ) आपके साथ तमाम मुद्देराते इस्मत व तहारत और छोटे छोटे बच्चे थे। अलबत्ता आपकी एक सहाबज़ादी जिनका नाम फ़ात्मा सुग़रा था और जिनकी उम्र उस वक़्त 7 साल थी, बवहे अलालते शदीद हमराह न जा सकीं। इमाम हुसैन (अ. स.) ने आपकी तीमारदारी के लिये हज़रत अब्बास की मां जनाबे उम्मुल बनीन को मदीने ही में छोड़ दिया था और कुछ फ़रिज़ा ए खिदमत उम्मुल मोमेनीन जनाबे उम्मे सलमा के सिपुर्द कर दिया था। आप तीन शाबान 60 हिजरी यौमे जुमा को मक्के मोअज़्ज़मा पहुँच गये। आपके पहुँचते ही वालिये मक्का सईद इब्ने आस मक्का से भाग कर मदीने चला गया और वहां से यज़ीद को मक्के के तमाम हालात लिखे और बताया कि लोगों का रूझान इमाम हुसैन (अ.स.) की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है कि जिसका जवाब
नहीं । यज़ीद ने यह ख़बर पाते ही मक्के में क़त्ले हुसैन (अ.स.) की साज़िश पर ग़ौर करना शुरू कर दिया।

इमाम हुसैन (अ.स.) मक्के मोअज़्ज़मा 4 माह शाबान, रमज़ान, शव्वाल, ज़ीक़ाद मुक़ीम रहे। यज़ीद जो बहर सूरत इमाम हुसैन (अ.स.) को क़त्ल करना चाहता था। उसने यह ख़्याल करते हुए कि हुसैन (अ.स.) अगर मदीने से बच कर निकल गये हैं तो मक्का में क़त्ल हो जायें और मक्के से बच निकलें तो कूफ़ा पहुँच कर शहीद हो सकें। यह इन्तेज़ाम किया कि कूफ़े से 12,000 (बारह हज़ार) ख़ुतूत दौराने क़याम मक्के में पहुँचवाये क्यों कि दुश्मनों को यक़ीन था कि हुसैन (अ.स.) कूफ़े में आसानी से क़त्ल किये जा सकेंगे। न यहां के बाशिन्दों में अक़िदे का सवाल है और न अक़ीदत का। यह फ़ौजी लोग हैं इनकी अक्लें भी मोटी होती हैं। यही वजह है कि शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) से क़ब्ल जब तक जितने अफ़सर भेजे गये वह महज़ इस ग़र्ज़ से भेजे जाते रहे कि हुसैन (अ.स.) को कूफ़े ले जायें। (कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 68) और एक अज़ीम लशकर मक्के में शहीद किये जाने के लिये इरसाल किया और तीस 30 ख़्वारजियों को हाजियों के लिबास में ख़ास तौर पर भिजवा दिया जिसका क़ायद उमर इब्ने साअद था । ( नासेखुल तवारीख़ जिल्द 6 पृष्ठ 21, मुन्तखिब तरीही ख़ुलासेतुल मसाएब, पृष्ठ 150, ज़िकरूल अब्बास 122)

अब्दुल हमीद ख़ान एडीटर मौलवी लिखते हैं कि ” इसके अलावा एक साज़िश यह भी की गई कि अय्यामे हज में 300 शामियों को भेज दिया गया कि वह
गिरोहे हुज्जाज में शामिल हो जायें और जहां जिस हाल में भी हज़रत इमाम हुसैन ” (अ. स.) को पायें क़त्ल कर डालें। (शहीदे आज़म पृष्ठ 71) ख़ुतूत जो कूफ़े से आये थे उन्हें शरई रंग दिया गया था और वह ऐसे लोगों के नाम से भेजे गये थे जिनसे इमाम हुसैन (अ.स.) मुतारिफ़ थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस का कहना है कि यह ख़ुतूत “” ” मन कुल तायफ़तः व जमा अता हर तायफ़ा और जमाअत की तरफ़ से भीजवाए गये थे। ( इसरारूयल शहादतैन पृष्ठ 27 )

अल्लामा इब्ने हजर का कहना है कि ख़ुतूत भेजने वाले आम अहले कूफ़ा थे। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 117) इब्ने जरीर का बयान है कि इस ज़माने में कूफ़े में एक घर के अलावा कोई शिया न था । ( तबरी)

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिये कूफ़े के हालात जानने के लिये जनाबे मुस्लिम इब्ने अक़ील को कूफ़े से रवाना कर दिया।

हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील

हज़रत मुस्लिम (अ. स.) हुक्मे इमाम पाते ही सफ़र के लिये रवाना हो गये। शहर से बाहर निकलते ही आपने देखा कि एक सय्यद ने एक आहू (हिरन) का शिकार किया है और उसे छुरी से ज़िब्हा कर डाला। दिल में ख़्याल पैदा हुआ कि इस वाक़ेए को इमाम हुसैन (अ. स.) से बयान करूं तो बेहतर होगा। इमाम हुसैन (अ.स.) की खिदमत में हाज़िर हुए और वाक़िया बयान किया। आपने दुआये
कामयाबी दी और रवानगी में उजलत की तरफ़ इशारा किया। जनाबे मुस्लिम इमाम हुसैन (अ.स.) के हाथों और पैरों का बोसा दे कर बा चश्में गिरया मक्के से रवाना हो गये। मुस्लिम इब्ने अक़ील के दो बेटे थे। मोहम्मद और इब्राहीम, एक की उम्र 7 साल दूसरे की 8 साल थी । यह दोनों बेटे बारवायत मदीना ए मुनव्वरा में थे। हज़रत मुस्लिम मक्के से रवाना हो कर मदीना पहुँचे और वहां पहुँच कर रौज़ा ए रसूल (स.व.व.अ.) पर नमाज़ अदा की और ज़्यारत वग़ैरा से फ़राग़त हासिल कर के अपने घर वारिद हुए। रात गुज़री सुबह के वक़्त अपने बच्चों को ले कर दो रहबरों समैत जंगल के रास्ते से कूफ़ा रवाना हुए। रास्ते में शिद्दते अतश की वजह से इन्तेक़ाल कर गये। आप जिस वक़्त कूफ़ा पहुँचे और वहा जनाबे मुख़्तार इब्ने अबी उबैदा सक़ाफ़ी के मकान पर क़याम फ़रमा हुए। थोड़े दिनों में अट्ठारा हज़ार (18,000) कूफ़ियों ने आपकी बैअत कर ली। इसके बाद बैअत करने वालों की तादाद 30,000 ( तीस हज़ार) हो गई। इसी के दौरान यज़ीद ने अब्दुल्लाह इब्ने ज़ियाद को बसरा लिखा कि कूफ़े में इमाम हुसैन (अ.स.) का एक भाई मुस्लिम नामी पहुँच गया है तू जल्द से जल्द वहां पहुँच कर नोमान इब्ने बशीर से हुकूमते कूफ़ा का चार्ज ले ले और मुस्लिम का सर मेरे पास भेज दे। इब्ने ज़ियाद पहली फ़ुरसत में कूफ़े पहुँच गया। इसने दाखिले के वक़्त ऐसी शक्ल बनाई कि लोग समझे कि इमाम हुसैन (अ.स.) आ गये हैं लेकिन मुस्लिम इब्ने उमर बहाली ने पुकार कर कहा कि यह इब्ने ज़ियाद है।

हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील को जब इब्ने ज़ियाद की रसीदगी कूफ़े की इत्तेला मिली तो आप ख़ाना ए मुख़्तार से हट कर हानी इब्ने उरवा के मकान में चले गये। इब्ने ज़ियाद ने माक़िल नामी ग़ुलाम के ज़रिए जनाबे मुस्लिम की क़याम गाह का पता लगा लिया। उसे जब यह मालूम हुआ कि मुस्लिम हानि बिन उरवा मकान में हैं तो हानी को बुलवा भेजा और पूछा कि तुमने मुस्लिम इब्ने अक़ील की हिमायत का बिड़ा उठाया है और वह तुम्हारे घर में हैं? जनाबे हानी ने पहले तो इन्कार कर दिया लेकिन जब माक़िल जासूस सामने लाया गया तो आपने फ़रमाया कि ऐ अमीर ! हम मुस्लिम को अपने घर बुला कर नहीं लाये बल्कि वह ख़ुद आ गये हैं। इब्ने ज़ियाद ने कहा, अच्छा जो सूरत भी हो तुम मुस्लिम को हमारे हवाले करो। जनाबे हानी ने जवाब दिया कि यह बिल्कुल ना मुम्किन है। यह सुन कर इब्ने ज़ियाद ने हुक्म दिया कि हानी को क़ैद कर दिया जाये। जनाबे हानी ने फ़रमाया कि मैं हर मुसिबत को बर्दाश्त करूंगा लेकिन मेहमान को तुम्हारे सिपुर्द न करूंगा। मुख़्तसर यह कि जनाबे हानी जिनकी उम्र 90 साल की थी, को खम्बे में बंधवा कर पांच सौ (500) कोड़े मारने का हुक्म दिया गया । जनाबे हानी बेहोश हो गये। उसके बाद उनका सर काट कर तने मुबारक को दार पर लटका दिया गया।

जब हज़रत मुस्लिम को जनाबे हानी की गिरफ़्तारी का इल्म हुआ तो आप अपने साथियो को ले कर बाहर निकल गये । दुश्मन से घमासान जंग हुई लेकिन

कतीर इब्ने शहाब, मोहम्मद इब्ने अशअस, शिम्र इब्ने ज़िलजौशन, शीस इब्ने रबी के बहकाने और ख़ौफ़ दिलाने से सब डर गये। यहां तक कि नमाज़े मग़रबैन में आपके हमराह सिर्फ़ 30 आदमी थे और जब आपने नमाज़ तमाम की तो कोई भी साथ न था। आपने चाहा कि कूफ़े से बाहर जा कर कहीं रात गुज़ार लें, मगर मोहम्मद इब्ने कसीर ने कहा कि कूफ़े के तमाम रास्ते बन्द हैं आप मेरे मकान में जा ठहरिये। इब्ने ज़ियाद ने बाप और बेटे दोनों को तलब किया और दरबार में निहायत सख़्त और सुस्त कहा। उस वक़्त उनके साथी मोहम्मद इब्ने कसीर और दरबारियों में सख़्त जंग हुई। बिल आखिर यह बाप और बेटे दोनों शहीद हो गये।

हज़रत मुस्लिम को जब मोहम्मद कसीर की शहादत की इत्तेला मिली तो वह उनके घर से बाहर बरामद हुए। मुस्लिम यह चाहते थे कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाये कि मैं कूफ़े से बाहर चला जाऊँ और इसी कोशिश में घोड़े पर सवार हो कर कूफ़े के हर दरवाज़े पर गये लेकिन किसी दरवाज़े से रास्ता न मिला, क्यों कि हर जगह दो दो हज़ार सिपाहियों का पहरा था, नागाह सुबह हो गई और मुस्लिम नाचार अपना घोड़ा शारए आम पर छोड़ कर एक कूचे में घुस गये और वहां की एक बोसिदा मस्जिद में छुपे रहे। इब्ने ज़ियाद को जैसे यह मालूम था कि कूफ़े ही में मुस्लिम कहीं रू पोश हैं। उसने ऐलान करा दिया कि जो मुस्लिम को गिरफ़्तार कर के लायेगा या उनका सर दरबार में पहुँचायेगा तो उसे काफ़ी माल दिया

जायेगा।




How Allah loves Wali Allah:

Hazrat Abu Hurairah رضي الله عنه narrates that the Prophet Muhammad ﷺ said:

“When Allah ﷻ loves a servant, He calls out to Hazrat Jibra’il عليه السلام, saying, ‘Allah loves so-and-so, so you should love him too.’ Then, Hazrat Jibra’il عليه السلام loves him.

After that, Hazrat Jibra’il calls out to the inhabitants of the heavens, saying, ‘Allah loves so-and-so, so you should love him too.’ Consequently, the inhabitants of the heavens also begin to love him.

Then, acceptance (maqbooliyat) is placed in the hearts of the people on earth for him.”

References:

Sahih Bukhari, Kitabul Adab, Baab: Al Mikati Minalihi Ta’ala, Hadith: 5693

Note: This hadith is often listed as #6040 in various editions.

Sahih Bukhari, Vol. 9, Pg. 351, Kitab No 97, Kitabut Tawheed, Hadith: 7485

Sahih Bukhari, Vol. 4, Pg. 276, Kitab No 59, Kitab Baadil Khalk, Hadith: 3209

Sahih Muslim, Vol. 6, Pg. 496, Kitab No 45, Kitabul Birr Walsala Wal Adab, Hadith: 2637

Al Muwatta Imam Malik, Vol. 2, Pg. 953, Hadith: 1747

Jamai Tirmizi, Kitab Tafseer, Hadith: 3161

Musnad E Ahmad, Vol. 2, Pg. 509, Hadith: 10623

Imam Abu Nua’yim, Hilyatul Aulia, Vol. 7, Pg. 141

Imam Bayhaqi, Shoebul Imaan, Kitabuz Zuhad, Vol. 2, Pg. 301, Hadith: 805

Imam Nawawi, Riyadusalaheen, Vol. 1, Pg. 525, Kitab No: 01, Kitab Al Mukadama, Hadith: 387

Imam Nawawi, 40 Hadith E Qudsi, Pg. 65, Hadith No: 24

अल्लाह ने हमें किनसे मुहब्बत का हुक्म दिया

https://youtube.com/shorts/8vs5kUE2UnI?si=k25G5G4Fpn433hgV

सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह अल्लाह ने हमें किनसे मुहब्बत का हुक्म दिया है हुज़ूर ने फ़रमाया : अली, ज़हरा, हसन और हुसैन से….!

इमाम शाफ़ई ने फ़रमाया: ऐ अहलेबैत ए रसूल आप की अज़्मत के लिए ये काफ़ी है के जो आप पर दुरूद न पढ़े उसकी नमाज़ नही होती