चौदह सितारे पार्ट 71

सुलह

मुवरिख, मआसिर अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि अमीरे शाम को हज़रते इमाम हसन (अ.स.) की फ़ौज की हालत और लोगों की बेवफ़ाई का हाल मालूम हो चुका था इस लिये वह समझते थे कि इमाम हसन (अ.स.) के लिये जंग मुम्किन नहीं है मगर इसके साथ यह भी यक़ीन रखते थे कि हज़रत इमाम हसन (अ. स.) कितने ही बेबस और बेकस हों मगर अली (अ.स.) व फ़ात्मा ( स.व.व.अ.) के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे हैं इस लिये वह ऐसे शराएत पर हरगिज़ सुलह न
करेंगे जो हक़ परस्ती के खिलाफ़ हों और जिनसे बातिल की हिमायत होती हो। इसको नज़र में रखते हुए उन्होंने एक तरफ़ तो आपके साथियों अब्दुल्लाह इब्ने आमिर के ज़रिये पैग़ाम दिलवाया कि अपनी जान के पीछे न पड़ो और खूंरेज़ी न होनें दों इस सिलसिले में कुछ लोगों को रिशवतें भी दी गई और कुछ बुज़दिलों को अपनी तादाद की ज़्यादती से ख़ौफ़ ज़दा किया गया और दूसरी तरफ़ हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के पास पैग़ाम भेजा कि आप जिन शरारत पर कहें उन्हीं शरारत पर सुलह के लिये तय्यार हूं।

इमाम हसन (अ.स.) यक़ीनन अपने साथियों की ग़द्दारी देखते हुए जंग करना मुनासिब न समझते थे लेकिन इसी के साथ साथ यह ज़रूर पेशे नज़र था कि ऐसी सूरत पैदा हो कि बातिल की तक़वियत का धब्बा मेरे दामन पर न आने पाये। इस ज़माने को हुकूमत व इक़तेदार की हवस तो कभी थी ही नहीं उन्हें तो मतलब इससे था कि मख़लूके ख़ुदा की बेहतरी हो और हुदूदे इलाही का इजरा हो । अब अमीरे माविया ने जो आप से मुंह मांगे शरायत पर सुलह करने के लिये आमदगी ज़ाहिर की तो अब मुसालेहत से इन्कार करना शख़्सी इक़तेदार की ख़्वाहिश के अलावा और कुछ नहीं क़रार पा सकता था और यह की अमीरे शाम सुलह की शरायत पर अमल न करेंगे। बात की बात थी जब तक सुलह न होती यह अंजाम सामने कहां से आ सकता था और हुज्जतें तमाम क्यों कर हो सकती थीं फिर भी
आख़री जवाब देने से क़ब्ल आपने साथ वालों को जमा कर लिया और तक़रीर फ़रमाई।

आगाह रहो कि तुम में वह खूं रेज़ लड़ाईयां हो चुकि हैं जिनमें बहुत लोग क़त्ल हुए कुछ मक़तूल सिफ़्फ़ीन में हुए जिनके लिये आज तक रो रहे हो और कुछ मक़तूल नहरवान के जिनका मुआवेज़ा तलब कर रहे हो। अब अगर तुम मौत पर राज़ी हो तो हम इस पैग़ामे सुलह को क़बूल न करें और उनसे अल्लाह के भरोसे पर तलवारों से फ़ैसला करें और अगर ज़िन्दगी को अज़ीज़ रखते हो तो हम उसको क़बूल कर लें और तुम्हारी मरज़ी पर अमल करें। जवाम मे लोगों ने हर तरफ़ से पुकारना शुरू किया कि हम ज़िन्दगी चाहते हैं। आप सुलह कर लिजिये। इसी का नतीजा था कि आपने सुलह के शरायत मुरत्तब कर के मआद के पास रवाना किये। (तरजुमा इब्ने खल्दून)

शरारते सुलह

इस सुलह

ना के शरात हसबे ज़ैल थे

1. यह कि माविया हुकूमते इस्लाम में, किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल ( स.व.व.अ.) पर अमल करेगे ।

2. यह कि माविया को अपने बाद किसी को ख़लीफ़ा नामजद करने का हक़ न

होगा।
3. यह कि शाम व ईराक़ व हिजाज़ व यमन सब जगह के लोगों के लिये अमान होगी ।

4. यह कि हज़रत अली (अ.स.) के असहाब और शिया जहां भी हैं उनके जान व माल और नामूस और औलाद महफ़ूज़ रहेंगे।

5. यह कि माविया हसन इब्ने अली (अ.स.) और उनके भाई हुसैन इब्ने अली (अ.स.) ख़ानदाने रसूल (स.व.व.अ.) में से किसी को भी कोई नुक़सान या हलाक करने की कोशिश न करेगे और न ख़ुफ़िया तौर पर और न ऐलानियां और उनमें से किसी को किसी जगह धमकाया और डराया न जायेगा ।

6. यह कि जनाबे अमीरल मोमेनीन (अ.स.) की शान में कलमाते नाज़ेबा जो अब तक मस्जिदे जामा और कुनूते नमाज़ में इस्तेमाल होते रहे हैं वह तर्क कर दिये जायें आख़िरी शर्त की मंजूरी में माविया को उज़ हुआ तो यह तय पाया कि कम अज़ कम जिस मौके पर इमाम हसन (अ.स.) मौजूद हों, उस जगह ऐसा न किया जाये। यह मुआहेदा रबीउल अव्वल या जमादिउल अव्वल 41 हिजरी को अमल में आया।

सुलह नामे पर दस्तख़त

25 रबीउल अव्वल को कूफ़े के क़रीब मुक़ामे अम्बारे में फ़रीक़ैन का इज्तेमा हुआ और सुलह नामे पर दोनों के दस्तख़त हुए और गवाहियां सब्त हुईं। (निहायतुल
अरब फ़ी मारेफ़तुन निसाब अल अरब पृष्ठ 80 ) इसके बाद माविया ने अपने लिये आम बैयत का ऐलान कर दिया और साल का नाम सुन्नतुल जमाअत रखा फिर इमाम हसन (अ.स.) को ख़ुतबा देने पर मजबूर किया। आप मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये 66 और इरशाद फ़रमाया, ऐ लोगों ख़ुदाए तआला ने हम में से अव्वल के ज़रिए से तुम्हारी हिदायत की और आखिर के ज़रिये से तुम्हें खूं रेज़ी से बचाया। माविया ने इस अम्र में मुझसे झगड़ा किया जिसका मैं इस से ज़्यादा मुस्तहक़ हूं लेकिन मैंने लोगों की खूं रेज़ी की निसबत इस अम्र का तर्क कर देना बेहतर समझा। तुम रंज व मलाल न करों कि मैंने हुकूमत इसके न अहद को दे दी, और उसके हक़ को जाय नाहक़ पर रखा मेरी नियत इस मामले में सिर्फ़ उम्मत की भलाई है। यहां तक फ़रमाने पाय थे कि माविया ने कहा बस ऐ हज़रत ज़्यादा फ़रमाने की ज़रूरत नहीं है। ( तारीख़ ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 325)

तकमीले सुलह के बाद इमाम हसन (अ. स.) ने सब्र व इस्तेकलाल व नफ़्स की बलन्दी के साथ उन तमाम नाख़ुशगवार हालात के बरदाश्त किया और मोहायदे पर सख़्ती से क़ायम रहे, मगर इधर यह हुआ कि अमीरे शाम ने जंग के ख़त्म होते ही और सियासी इक़तेदार के मज़बूत होते ही ईराक़ में दाखिल हो कर नख़ीले में जिसे कूफ़े की सरहद समझना चाहिये क़याम किया और जुमे के ख़ुत्बे के बाद ऐलान किया कि मेरा मक़सद जंग से यह न था कि तुम लोग नमाज़ पढ़ने लगो, रोज़े रखने लगो, हज करो या ज़कात अदा करो, यह सब तुम तो करते ही हो मेरा
मक़सद तो यह था कि मेरी हुकूमत तुम पर मुसल्लम हो जाय और यह मेरा मक़सद हसन (अ.स.) के उस मुहायदे के बाद पूरा हो गया और बावजूद तुम लोगो की नगवारी के मैं कामयाब हो गया । रह गये वह शरायत जो मैंने हसन (अ. स.) के साथ किये हैं वह सब मेरे पैरों के नीचे हैं। इनका पूरा करना या न करना मेरे हाथ की बात है। यह सुन कर मजमे में एक सन्नाटा छा गया, मगर अब किस में दम था कि उसके खिलाफ़ ज़बान खोलता |




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