
*आशूर (दसवीं मुहर्रम) का रोज़ा*
*(सुन्नत या बिदअत?)*
जैसे ही नवासा ए रसूल स. हज़रत इमाम हुसैन (अ) के क़याम व शहादत का महीना, मोहर्रम शुरु होता है वैसे ही एक ख़ास सोच के लोग इस याद और तज़करे को कमरंग करने की कोशिशें शुरु कर देते हैं। कभी रोने (जो सुन्नते रसूल स. है) की मुख़ालेफ़त की जाती है, तो कभी आशूर के रोज़े की इतना प्रचार किया जाता है जिस से ऐसा महसूस होता है कि 10 मोहर्रम 61 हिजरी में कोई हादसा हुआ ही नहीं था। बल्कि सिर्फ़ बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का दिन है और बाज़ इस्लामी देश तो इस का एलान और प्रचार सरकारी पैमाने पर करते हैं और दलील के तौर पर किताब सहीह बुख़ारी वग़ैरा की हदीसें पेश की जाती हैं, अभी कुछ साल पहले की बात है कि सऊदी अरब की न्यूज़ एजंसी ने अपने एक बयान में अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद आले शैख़ की जानिब से एलान किया था कि पैग़म्बरे अकरम (स) से रिवायत हुई है कि: हज़रत (स) आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का शौक़ दिलाते थे, क्योंकि आशूरा वह दिन है जिस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने मूसा और उनकी क़ौम को फ़िरऔन और उसकी क़ौम से नजात दी थी लेहाज़ा हर मुसलमान मर्द और औरत पर मुस्तहब है कि 10 मोहर्रम को ख़ुदा के शुकराने के तौर पर रोज़ा रखें।
तअज्जुब है! हमने सऊदी सरकार का कोई बयान हादसा ए आशूरा के बारे में न पढ़ा जिस में नवासा ए रसूल (स) की दिलसोज़ शहादत पर रंज व अलम और ग़म का इज़हार किया गया हो, नबी ए इस्लाम (स) की पैरवी का दावा करने के बावजूद भी अपने नबी (स) के नवासे से इतनी बेरुख़ी! और बनी इस्राईल की नजात की यादगार से इतनी दिलचस्पी!?
अगर नबी (स) और उनकी क़ौम की नजात पर रोज़ा रखना मुस्तहब है तो फिर जिस दिन जनाबे इब्राहीम (अ) को ख़ुदा ने नमरुद की आग से नजात दी उस दिन भी रोज़ा रखना चाहिए, जिस दिन जनाबे नूह (अ) की कश्ती कोहे जूदी पर ठहरी और उन्हें इनके साथियों समीत डूबने से नजात मिली उस दिन भी रोज़ा रखना मुस्तहब होना चाहिए, और यह दिन वह था जब सूरज बुर्जे हमल में जाता है जो ईसवी कलेंडर में 21 मार्च को होता है, रसूल अल्लाह (स) अगर जनाबे मूसा (अ) और उनके साथियों की नजात पर शुकराने का रोज़ा रखेंगे तो फिर दीगर अम्बिया अलैहिमुस्सलाम की नजात पर भी रोज़ा रखा होगा, अगर रखा होगा तो 21 मार्च को रोज़ा रखने का प्रचार इस पैमाने पर क्यों नहीं किया जाता, यह रोज़े भी तो सुन्नत कहलाएंगे?
अब आईये किताब सहीह बुख़ारी की उन रिवायतों पर तहक़ीक़ी निगाह डालते हैं जिनको बुनयाद बनाकर आशूर के रोज़े का प्रचार किया जाता है।
जनाबे आएशा से बुख़ारी में एक रिवायत इस तरह है कि: आशूर के दिन ज़माना ए जाहेलियत में क़ुरैश रोज़ा रखते थे, रसूले ख़ुदा (स) भी इस रोज़ (आशूर) को रोज़ा रखते थे और जिस वक़्त आप मदीना तशरीफ़ लाए तो आशूर के रोजे़ को उसी तरह बाक़ी रखा और दूसरों को भी हुक्म दिया, यहाँ तक कि माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद हज़रत (स) ने आशूर का रोज़ा छोड़ दिया और हुक्म दिया कि जो चाहे आशूर के दिन रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 250, हदीस 2002, किताब अलसौम, बाब 69 बाब सीयामे यौमे आशूरा, मुहक्किक़ मुहम्मद ज़ुहैर बिन नासिर अल नासिर, नाशिर दारुल तौक़ अल नजात, पहला एडीशन 1422 हिजरी)
मज़कूरा रिवायत के सिलसिला ए सनद में हश्शाम बिन उरवाह मौजूद है जिसकी वजह से सिलसिला ए सनद में इशकाल पैदा हो गया है क्योंकि इब्ने क़त्तान ने हश्शाम बिन उरवाह के बारे में कहा है कि: यह (हश्शाम बिन उरवाह) मत्न (मैटर) को बदल डालता था और ग़लत को सहीह में मिला दिया करता था।
अल्लामा ज़हबी ने कहा है कि यह कुछ महफ़ूज़ बातों को भूल जाया करता था या उसमें शक हो जाता था। (मीज़ानुल एतदाल, जिल्द 4, पेज 301, तहक़ीक़ अली मुहम्मद अलबहावी, नाशिर दारुल मारेफ़त लिलतबाअत वन्नश्र, बैरुत, लेबनान, 1963 ई)
इसके अलावा यह रिवायत सहीह बुख़ारी ही की दूसरी रिवायतों से तनाक़ुज़ (टकराव) रखती है और टकरा रही है, जैसे सहीह बुख़ारी में अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से एक रिवायत है कि: जब रसूले ख़ुदा (स) ने मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई और मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदियों को देखा कि आशूर के दिन रोज़ा रखे हुए हैं तो आप (स) ने फ़रमाया कि यह रोज़ा (उन्होंने) क्यों रखा है? जवाब मिला: यह ख़ुशी का दिन है क्योंकि इस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने बनी इस्राईल को दुश्मनों से नजात दी थी लेहाज़ा मूसा और उनकी क़ौम इस दिन रोज़ा रखती है, हज़रत स. ने फ़रमाया कि मैं मूसा की पैरवी करने में बनी इस्राईल से ज़ियादा सज़ावार (हक़दार) हूँ लेहाज़ा हज़रत (स) ने आशूर को रोज़ा रखने का हुक्म दिया कि (मुसलमान भी) इस दिन रोज़ा रखे। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 251, हदीस 2004)
पहली रिवायत तो यह कह रही है कि पैग़म्बरे इस्लाम स. और क़ुरैश ज़माना ए जाहेलियत से ही रोज़े आशूर को रोज़ा रखते चले आ रहे हैं और ज़हूरे इस्लाम के 13 साल बाद तक भी मक्का में यह रोज़ा रखा और हिजरत के बाद मदीना में रमज़ान के रोज़े वाजिब हुए इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुसलमानों को इख़्तियार दिया कि चाहें तो आशूर को रोज़ा रख लें और चाहें तो न रखें, लेकिन सहीह बुख़ारी की मज़कूरा दूसरी रिवायत कहती है कि रसूले ख़ुदा (स) ने जिस वक़्त मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई तो न सिर्फ़ यह कि आप आशूर को रोज़ा नहीं रखते थे बल्कि आपको इसके बारे में कोई इत्तला भी नहीं थी और जब आपने यहूदियों को रोज़ा रखते हुए देखा तो तअज्जुब के साथ इस रोज़े के बारे में सवाल किया, आप स. ने जवाब में सुना के यहूद जनाबे मूसा और बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में इस दिन रोज़ा रखते हैं, तो रसूले ख़ुदा ने फ़रमाया किः अगर ऐसा है तो मैं अपने आपको कुफ़्फ़ारे मक्का के हाथों से नजात पाने की ख़ुशी में मूसा से ज़ियादा सज़ावार (हक़दार) समझता हूँ कि इस दिन रोज़ा रखूँ, इसके बाद से न सिर्फ़ यह कि हज़रत (स) ने ख़ुद रोज़ा रखा बल्कि दूसरों को भी इसका हुक्म दिया

