
मुशकिल कुशा की मुशकिल
कुशाई एक रवायत में है कि एक दिन हज़रत अली (अ.स.) मदीने की एक गली से गुज़र रहे थे, नागाह आपकी निगाह अपने एक मोमिन पर पड़ी देखा कि उसे एक शख़्स बुरी तरह गिरफ़्त में लिये हुए है। हज़रत उसके क़रीब गये और उस से पूछा यह क्या मामेला है? उस मोमिन ने कहा, मौला मैं इस मर्दे मुनाफिक़ के एक हज़ार सात सौ (1700) दीनार का क़जदार इसने मुझे पकड़ रखा है और इतनी मोहलत भी नहीं देता कि मैं यहाँ से जा कर कोई बन्दोबस्त करूं | हज़रत ने फ़रमाया कि तू ज़मीन की रूख़ कर और जो पत्थर वग़ैरह इस वक़्त तेरे हाथ आयें उन्हें उठा ले। चुनान्चे उसने ऐसा ही किया, जब उसने उठा कर देखा तो वह सब सोने के थे।

हज़रत ने फ़रमाया कि इसका क़र्ज़ा अदा करने के बाद जो बचे उसे अपने काम में ला। रावी कहता है कि दूसरे दिन जिब्राईल के कहने से हज़रत रसूले करीम स. ने इस वाक़े को असहाब के मजमे में बयान फ़रमाया ।
एक मशलूल की शिफ़ा याबी
अब्दुल्लाह बिन अब्बास का बयान है कि एक रोज़ नमाज़े सुब्ह के बाद हज़रत रसूले करीम स. मस्जिदे मदीना में बैठे हुए सलमान, अबूज़र मिक़दाद और हुज़ैफ़ा से महवे गुफ़्तुगू थे कि नागाह मस्जिद के बाहर एक गुलगुला उठा, शोर सुन कर लोग मस्जिद के बाहर गये, तो देखा कि चालीस आदमी खड़े हैं जो मुसल्लाह हैं और उनके आगे एक निहायत ख़ूबसूरत नौजवान शख़्स हैं। हुज़ैफ़ा ने रसूले ख़ुदा को हालात से आगाह किया, आपने फ़रमाया कि उन लोगों को मेरे पास लाओ। वह आ गये, तो हज़रत ने फ़रमाया कि अली बिन अबी तालिब को बुला लाओ । हुज़ैफ़ा गये, अमीरुल मोमेनीन ने फ़रमाया कि ऐ हुज़ैफ़ा मुझे इल्म है कि एक गिरोह क़ौमे आद से आया है, मुझे उनकी हाजत भी मालूम है। उसके बाद आप हाजिरे खिदमते रसूले करीम ( स.व.व.अ.) हुए। आं ने हज़रत अली (अ.स.) से उनका सामना कराया। हज़रत अली (अ.स.) ने उस मरदे ख़ूबरू से कहा कि ऐ हज्जाज बिन खल्जा बिन अबिल असफ़ बिन सईद बिन मम्ता बिन अलाक़ बिन वहब बिन सअब बता तेरी क्या हाजत है। उसने जब अपना नाम और पूरा शजरा सुना तो
हैरान रह गया और कहा कि हुज़ूर मेरे भाई को शिकार का बड़ा शौक है। उसने एक दिन जंगल में शिकार खेलते हुए एक जानवर के पीछे घोड़ा डाला और उस पर तीर चलाया, इसके फ़ौरन बाद उसका निस्फ़ बदन शल हो गया। बड़े इलाज किये मगर कोई फ़ायदा न हुआ, आपने फ़रमाया कि उसे मेरे सामने ला । वह एक ऊँट पर लाया गया। हज़रत ने उसे हुक्म दिया कि उठ बैठ चुनान्चे वह तन्दरूस्त हो कर उठ बैठा। यह देख कर वह और उसके क़बीले के सत्तर हज़ार (70,000) नुस मुसलमान हो गये।

वफ़ाते रसूल स. के बाद अली (अ.स.) का ख़ुतबा
किताब नहजुल बलाग़ाह जिल्द 1 पृष्ठ 432 प्रकाशित मिस्र में है बुजुरगाने असहाबे मौहम्मद स. ने जो हाफिज़े क़ुरआन व सुन्नते नबवी थे जान लिया था कि मैं कभी एक साअत के लिये भी फ़रमाने ख़ुदा और रसूल स. दूर नहीं हुआ और पैग़म्बरे अकरम स. की ख़ातिर कभी अपनी जान की परवा नहीं की । जब दिलेरों ने राहे फ़रार इख़्तेयार की और बड़े बड़े पहलवान पीछे हट आये, इस शुजाअत और जवां मरदी के बाएस जो ख़ुदा ने मुझे अता की है मैंने जंग की और रसूले ख़ुदा स. की क़ब्ज़े रूह इस हालत में हुई कि आपका सरे मुबारक मेरे सीने पर था। इनकी जान मेरे ही हाथों पर बदन से जुदा हुई। चुनान्चे मैंने अपने हाथ ( रूह निकलने के बाद) अपने चेहरे पर मले। मैंने ही आं हज़रत स. के जसदे अतहर को गुस्ल दिया और फ़रिश्तों ने मेरी इस काम में मदद की । पस बैते नबवी और उसके एतराफ़ से गिरयाओ जारी की सदा बलन्द हुई। फ़रिश्तों का एक गिरोह जाता था तो दूसरा आ जाता था। उनकी नमाज़े जनाज़ा का हमहमा मेरे कानों से जुदा नहीं हुआ यहां तक कि आपको आख़री आराम गाह में रख दिया गया। पस आं हज़रत की हयात व ममात में उनसे मेरे मुक़ाबले में कौन सज़ावार था। जो कोई इसका अदआ करता है वह सही नहीं कहता ।
(तरजुमा नहजुल बलागा, रईस अहमद जाफ़री जिल्द 1 पृष्ठ 1200 प्रकाशित लाहौर)
इसी किताब के पृष्ठ 1303 पर है कि मेरे माँ बाप आप पर क़ुरबान ऐ रसूले ख़ुदा स. आपकी वफ़ात से नबूवत ऐहकामे इलाही और अख़बारे आसमानी का सिलसिला मुनÇता हो गया। जो दूसरे पैग़म्बारों की वफ़ात पर कभी नहीं हुआ था। आपकी ख़ुसुसियत यगानगत यह भी थी कि दूसरी मुसीबतों से आपने तसल्ली दे दी क्यों कि आपकी मुसीबत हर मुसीबत से बालातर है और दुनिया से रहलत फ़रमाने की बिना पर आपको यह उमूमियत व ख़ुसूसियत हासिल है कि आपके मातम में तमाम लोग यकसां दर्दमन्द और सीना फिग़ार हैं।






