
Imam Husain ne 8 Zilhaj ko Makkah kion Chora | Karbala rwangi aur hajj |…




हज़रत अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के फ़ज़ाएल क़लमबन्द करना इन्सान की ताक़त के बाहर है। ख़ुद सरवरे कायनात स. ने इसके मोहाल होने पर नस फ़रमा दी है। आपका इरशाद है कि, अगर तमाम दुनिया के दरिया, समन्दर सियाही बन जायें और दरख़्त क़लम हो जायें और जिन्नो इन्स लिखने और हिसाब करने वाले हों तब भी अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के मुकम्मल फ़ज़ाएल नहीं लिखे जा सकते। (कशफ़ुल गम्मा पृष्ठ 53 व अर हज्जुल मतालिब ) उलेमाए इस्लाम ने भी अकसरियत फ़ज़ाएल का एतेराफ़ किया है और अकसर ने अहातए फ़ज़ाएल से आजेज़ी ज़ाहिर की है। अल्लामा अब्दुल बर ने किताब इस्तियाब जिल्द 2 के पृष्ठ 478 पर तहरीर फ़रमाया है फ़ज़ाएले ला यूहीत बहा किताब आपके फ़ज़ाएल किसी एक किताब में जमा नहीं किए जा सकते। अल्लामा इब्ने हजरे मक्की सवाएके मोहर्रेका और मंज मकीया में लिखते हैं कि मनाकिबे अली व फ़ज़ाएल अकसर मिन अन तुहसा हज़रत अली (अ.स.) के मनाकिब व फ़ज़ाएल हद्द्वे एहसा से बाहर
हैं और सवाएक पृष्ठ 72 पर फ़रमाते हैं कि, फ़ज़ाएले अली वही क़सीरह, अजीताह मशाएतः हत्ता क़ाला अहमद वमा जा लाहद मिनल फ़ज़ाएल माजल अली बेशुमार हैं, बेश बहा हैं, और मशहूर हैं। अहमद इब्ने हम्बल का कहना है कि, अली (अ.स.) के लिये जितने फ़ज़ाएल व मनाकिब मौजद हैं किसी के लिये नहीं हैं। क़ाज़ी इस्माईल, इमामे निसाई और अबू अली नैशापूरी का कहना है कि किसी सहाबी की शान में उम्दा सनदों के साथ वह फ़ज़ाएल वारिद नहीं हुए जो हज़रत अली (अ.स.) की शान में वारिद हुए हैं। अल्लामा मौहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई तहरीर फ़रमाते हैं कि अली (अ.स.) के जो फ़ज़ाएल हैं वह किसी और को नसीब नहीं। रसूल अल्लाह ने आपको आयतुल हुदा, मनारूल ईमान और इमाम अल औलिया फ़रमाया है और इरशाद किया है कि अली का दोस्त मेरा दोस्त है और अली का दुश्मन मेरा दुश्मन है। (मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 57 ) अल्लामा हजर लिखते हैं कि कुरआन मजीद में जहां या अय्योहल लज़ीना आमेनू आया है वहां ईमान दारों से मुराद लिये जाने वालों में अली (अ.स.) का दरजा सबसे पहला है। कुरआने मजीद में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर असहाब की मज़म्मत आई है लेकिन हज़रत अली (अ.स.) के लिये जब भी जिक्र आया है ख़ैर के साथ आया है और अली (अ.स.) की शान में कुरआने मजीद की तीन सौ (300) आयतें नाजिल हुई हैं। (सवाएकै मोहर्रेका पृष्ठ 76 मिस्र में छपी) यही वजह है कि इमाम अल इन्स वल जिन हज़रत अली (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं, इस उम्मत में किसी एक का भी भीक्यास और मुक़ाबेला आले मौहम्मद स. से
नहीं किया जा सकता और इन लोगों की बराबरी जिनको बराबर नेमतें दी गईं उन अफ़राद से नही की जा सकती जो नेमत देने वाले थे और नेमतें देते रहे। आले रसूल स. दीन की निव और यक़ीन के खम्बे हैं। (सल सबीले फ़साहत तरजुमा नहजुल बलाग़ा पृष्ठ 27) बे शक हुज़ूरे विलायत का यह फ़रमान बिलकुल दुरूस्त है कि आले मौहम्मद स. की बराबरी नहीं की जा सकती क्यों कि हुज़ूर रसूले करीम स. ने इरशाद फ़रमा दिया है कि मेरी आल मेरे अलावा सारी कायनात से बेहतर और अफ़ज़ल है और हदीसे कफ़ो फ़ात्मा स. ने इसकी वजाहत कर दी कि आले रसूल स. का दरजा अम्बिया से बाला तर है। इन्हीं हज़रात की मोहब्बत का हुक्म ख़ुदा वन्दे आलम ने क़ुरआने मजीद में दिया है और उनकी मोहब्बत से सवाल किया जाना मुसल्लम है। इनके लिये दुनिया की मस्जिदें अपने घर के मानिन्द हैं। ( दुरेमन्शर व मतालेबुल सवेल पृष्ठ 59 ) अहले बैत में हज़रत अली (अ.स.) का पहला दरजा है, और यह मानी हुई बात है कि जो फ़ज़ीलत अली (अ.स.) की है इसमें तमाम आइम्मा मुशतरक हैं। आपको ख़ुदा ने क़सीमे नारो जन्नत बनाया है। (सवाएक़े मोहर्रेका पृष्ठ 73) आपके हुक्म के बग़ैर कोई जन्नत में नही लेजा सकता। अल्लामा हजरे मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अबू बकर ने इरशाद फ़रमाया है कि मैंने रसूल अल्लाह स. को यह कहते सुना है कि, कोई शख़्स भी सिरात पर से गुज़र कर जन्नत में जा न सकेगा जब तक अली (अ.स.) का दिया हुआ परवानाए जन्नत उसके पास न होगा । (सवाएके मोहर्रेका पृष्ठ 75 मिस्र में छपी) आपको हक़ के साथ और हक़ को आपके साथ होने की बशारत दी गई है। आपको रसूले अकरम स. ने मवाख़ात के मौके पर अपना भाई क़रार दिया है। आपके लिये दो बार आफ़ताब पलटा, शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 87 में है कि जंगे ख़ैबर के सिलसिले में सहाबा के मक़ाम पर ( वही ) का नज़ूल होने लगा और सरे मुबारके रसूल स. अली (अ.स.) के ज़ानू पर था और आफ़ताब गुरूब हो गया था उस वक़्त आपने अली (अ.स.) को हुक्म दिया कि आफ़ताब को पलटा कर नमाज़ अदा करें चुनांचे आफ़ताब डूबने के बाद पलटा और अली (अ.स.) ने नमाज़ अदा की। इसी किताब के पृष्ठ 176 पर और किताब सफ़ीनातुल बिहार जिल्द 1 पृष्ठ 57 व मजमुए बहरैन पृष्ठ 232 में है कि वफ़ाते रसूल स. के बाद हज़रत अली (अ.स.) बाबुल जाते वक़्त जब फ़रात के क़रीब पहुँचे तो असहाब की नमाज़े अस्र क़ज़ा हो गई, आपने आफ़ताब को हुक्म दिया कि पलट आए चुनांचे वह पलटा और असहाब ने नमाज़े अस्र अदा की। नसीमुल रियाज़, शरह शिफ़ा क़ाज़ी अयाज़ वगैरह में है कि एक मरतबा आपका एक ज़ाकिर आपके जिक्र में मशगूल था कि नमाज़े अस्र क़ज़ा हो गई, उसने कहा कि ऐ आफ़ताब पलट आ कि मैं उसका जिक्र कर रहा जिसके लिये तू दो बार पलट चुका है चुनांचे आफ़ताब पलटा और उसने नमाज़े अस्र अदा की। शवाहेदुन नबूवत के पृष्ठ 219 में है कि अली (अ.स.) मुजस्सम हक़ थे और उनकी ज़बान पर हक़ ही जारी होता था। इमामे शाफ़ेई इरशाद फ़रमाते
थे जो मुसलमान अपनी नमाज़ में उन पर दुरूद न भेजे उसकी नमाज़ सही नहीं है।
मौलाना ज़फ़र अली खाँ का एक शेर और उसकी रद
मौलाना ज़फ़र अली खाँ मरहूम एडीटर ज़मींदार लाहौर का एक अजीबो ग़रीब शेर एक दरसी किताब (हमारी उद्) मुसन्नेफ़ा हारून रशीद में हमारी नज़र से गुज़रा शेर यह है।
हैं किरनें एक ही मशल की अबु बक्रो, उमर उस्मानो अली।
हम मरतबा हैं, याराने नबी, कुछ फ़कर नहीं इन चारों में ।। इस शेर में अगर मशल से मुराद नबी स. की ज़ात ली गई है तो असहाब का उनकी किरन होना इन्तेहाई बईद है क्यों कि वह नूरी और जौहरी थे और यह माद्दी हैं। वह मुजस्सम ईमान थे और उन लोगों ने 38, 39, 40 साल कुफ़ में गुज़ारे हैं। उन्होंने कभी बुत परस्ती नहीं की और उन्होंने अपने उम्र के बड़े हिस्से बुत परस्ती में गुज़ार कर इस्लाम क़ुबूल किया था औश्र अगर मशअल से मुराद बूवत ली गई है और उसकी किरने उनकी इमामत और खिलाफ़त को क़रार दिया है तो यह भी दुरूस्त नही है क्यो कि रसूल स. की नबूवत मिन जानिब अल्लाह थी और उनकी खिलाफ़त की बुनियाद इज्माए नाकिस पर क़ायम हुई थी। इस शेर के दूसरे मिस्रे में चारों को हम मरतबा कहा गया है और रसूल स. का यार बताया
गया है। हो सकता है कि तीनों हज़रात रसूल स. के यार रहे हों लेकिन हज़रत अली (अ.स.) हरगिज़ रसूल स. के यार नहीं थे बल्कि दामाद और भाई थे। अब रह गया चारों का हम मरतबा होना यह तो हो सकता है कि तीनों हम मरतबा हों और था भी कि तीनों हज़रात हर हैसियत से एक दूसरे के बराबर थे लेकिन हज़रत अली (अ.स.) का उनके बराबर होना यह उनका आपके हम मरतबा होना समझ से बाहर है क्यों कि यह चालीस साल बुत परस्ती के बाद मुसलमान हुए थे और अली (अ.स.) पैदा ही मोमिन और मुसलमान हुए। इन लोगों ने मुद्दतों बुतपरस्ती की और अली (अ.स.) ने एक सेकेण्ड भी बुत नहीं पूजा। इसी लिये करम अल्लाहो वजहा कहा जाता है। यह फ़ात्मा स. के शौहर थे। इनमें से किसी को यह शरफ़ नसीब नहीं हुआ। वह लोग आम इन्सानों की तरह ख़ल्क़ हुए और अली मिसले नबी स. नूर से पैदा हुये। इसके अलावा खुद ख़ुदा वन्दे आलम ने अली (अ.स.) के अफ़ज़ल ही होने की नहीं बल्कि बेमिस्ल होने की नस (सनद) फ़रमा दी है। मुलाहेज़ा हों:-
(अहया अल उलूम, ग़ज़ाली सफ़सीर साअल्बी व तफ़सीरे कबीर जिल्द 2 पृष्ठ 283)
इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी ने हज़रत अली (अ.स.) को अम्बिया के बराबर और तमाम सहाबा से अफ़ज़ल तहरीर किया है।
(अरबईन फ़ी उसूल अल दीन, दारे हज अल मतालिब, पृष्ठ 455)
सरवरे कायनात स. ने अली (अ.स.) को अपनी नज़ीर बताया है।
(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454)
है। इन्ही ख़ुसूसीयात की बिना पर अली (अ.स.) को मेयारे ईमान क़रार दिया गया
अल्लामा तिरमिज़ी और इमामे नेसाई ने बुग़ज़े अली (अ.स.) से मुनाफिक़ को पहचानने का उसूल बताया है और बाज़ ने अफ़ज़लियते अली (अ.स.) पर एतेक़ाद ज़रूरी क़रार दिया है और अल्लामा अब्दुल बर ने एस्तेयाब में सहाबा, ताबईन वग़ैरा की फ़ेहरिस्त पेश की है जो अली (अ.स.) को अफ़ज़ल सहाबा मानते थे और शायद इसकी वजह यह होगी कि तमाम लोग जानते थे कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अली (अ.स.) के सिवा किसी के क़ल्ब को ईमान की कसौटी पर नहीं कसा । (एज़ालतुल ख़फ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 256)