
आपकी परवरिश
आपकी परवरिश रसूले अकरम स. ने की। पैदा होते ही गोद में लिया, मुँह में ज़बा नदी और दूध के बजाए लोआबे दहने रसूल स. से सेराब हो कर लहमोका लहमी के हक़दार बने । (सहरते हलबीता जिल्द 1 पृष्ठ 268) इसी दौरान में जब कि आप सरवरे कायनात के ज़ेरे साया आरजी तौर पर परवरिश पा रहे थे मक्के में शदीद कहर पड़ा, अबू तालिब की चूँकि औलादे ज़्यादा थीं इस लिये हज़रते अब्बास और सरवरे कायनात स. उनके पास तशरीफ़ ले गये और उनको राज़ी कर के हज़रत अली (अ.स.) को मुस्तकिल तौर पर अपने पास ले आये और अब्बास ने भी जाफ़रे तय्यार को ले लिया। हज़रत अली (अ.स.) सरवरे कायनात स. के पास दिन रात रहने लगे। हुज़ूरे अकरम स. ने तमाम नेमाते इलाही से बहरावर कर लिया और हर किस्म की तालीमात से भरपूर बना दिया यहां तक कि अली नामे ख़ुदा कुव्वते बाज़ू बन कर यौमे बेसत 27 रजब को कुल्ले ईमान की सूरत में उभरे और हुज़ूर की ताईद कर के इस्लाम का सिक्का बिठा दिया।
इज़हारे ईमान मुसलमानो में अक्सर यह बहस छिड़ जाती है कि सब से पहले इस्लाम कौन लाया और इस सिलसिले में हज़रत अली (अ.स.) का नाम भी आ जाता है हांलाकि आप इस मौजूए बहस से अलग हैं क्योंकि ज़ेरे बहस वह लाये जा सकते हैं जो या तो मुसलमान ही न रहे हों और तमाम उम्र र्शिको बुत परस्ती में गुज़ारी हो जैसे हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर, हज़रत उस्मान वग़ैरा या मुसलमान
तो रहें हों और दीने इब्राहीम पर चलते रहें हों लेकिन इस्लाम ज़ाहिर न कर सके हों जैसे हज़रते हमज़ा, हज़रते जाफ़रे तय्यार और अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब (अ. स.) वग़ैरा ऐसी सूरत में इन हज़रात के लिये कहा जायेगा कि इस्लाम क़ुबूल किया और बाद वाले जैसे हज़रत अबू तालिब (अ.स.) वग़ैरा के लिये कहा जायेगा कि इसलाम ज़ाहिर किया। अब रह गये हज़रत अली (अ.स.) यह काबा में फितरते इस्लाम पर पैदा हुए। कुल्ले मौलूद यूलद अली फितरतुल इस्लाम रसूले इस्लाम स. की गोद में आँख खोली, लोआबे दहने रसूल स. से परवरिश पाई, आगोशे रिसालत मे पले, बढ़े, दस साल की उम्र में ब वजहे ज़रूरत ऐलाने ईमान किया। रसूल स. के दामाद क़रार पाये। मैदाने जंग में कामयाबियां हासिल कर के कुल्ले ईमान बने फिर अमीरुल मोमेनीन के खिताब से सरफ़राज़ हुए।
फ़ाज़िल माअसर तारीख़े आइम्मा में लिखते हैं कि उल्माए मोहक्केक़ीन ने साफ़ साफ़ लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) तो कभी काफिर रहे ही नहीं क्योकि आप शुरू से ही हज़रत रसूले ख़ुदा स. की किफ़ालत में इसी तरह रहे जिस तरह खुद हज़रत की औलादें रहती थीं और कुल मामेलात में हज़रत की पैरवी करते थे। इस सबब से इसकी ज़रूरत ही नहीं हुई कि आप को इस्लाम की तरफ़ बुलाया जाता और जिसके बाद कहा जाता कि आप मुसलमान हो जायें। (सिरते हलबिया जिल्द 1 पृष्ठ 269) मसूदी कहता है कि आप बचपन ही से रसूल स. के ताबे थे। ख़ुदा ने
आपको मासूम बनाया और सीधी राह पर क़ायम रखा। आपके लिये इस्लाम लाने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
(मरूजुल ज़हब, जिल्द 5 पृष्ठ 68)
हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मैंने उस उम्मत में सब से पहले ख़ुदा की इबादत की और सब से पहले आं हज़रत स. के साथ नमाज़ पढ़ी। (इस्तीयाब जिल्द 2 पृष्ठ 472) पैग़म्बरे इस्लाम स. फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने एक सेकेन्ड के लिये भी कुफ्ऱ इख़्तेयार नहीं किया। (सीरते हलबिया जिल्द 1 पृष्ठ 270 )

