
आपका मोजिज़ा ए शक़ उल क़मर 9 बेअसत
इब्ने अब्बास इब्ने मसूद अनस बिन मालिक हुज़ैफ़ा बिन उमर जिब्बीर बिन मुतअम का बयान है कि शक़ उल क़मर का मोजिज़ा कोहे अबू कुबैस पर ज़ाहिर हुआ था जब कि अबू जेहल ने बहुत से यहूदीयों को हमराह ला कर हज़रत से चाँद को दो टुकड़े करने की ख़्वाहिश जाहिर की थी। यह वाक़िया चौहदवी रात को हुआ था जब कि आपको मौसमें हज में शुऐब अबी तालिब से निकलने की इजाज़त मिल गई थी । अहले सैर लिखते हैं कि यह वाक़िया 9 बेअसत का है। इस मौजिज़े का ज़िक्र तारीख़ फ़रिश्ता में भी है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मुजिब एतक़ादो क़ौलेही इस मौजिज़े के वाक़े होने पर ईमान वाजिब है। (सफ़ीनतुल अल बहार जिल्द 1 पृष्ठ 709 ) इस मोजिज़े का ज़िक्र अज़ीज़ लखनवी मरहूम किया है। क्या ख़ूब
मोजिज़ा शक़्क़ुल क़मर का है मदीने से अयाँ
मह ने शक़ हो कर लिया है दीन को आगोश में
हज़रत अबू तालिब (अ. स.) और जनाबे ख़तीजातुल कुबरा (स.) की वफ़ात 10 बेअसत
हयातुल हैवान दमीरी में है कि शुऐब अबी तालिब से निकलने के आठ महीने ग्यारह दिन बाद बेअसत माह शव्वाल में हज़रत अबू तालिब ने इन्तेक़ाल किया । बरवायते इब्ने वाज़े इस वक़्त इनकी उम्र 86 साल की थी। (अल याक़ूबी ज. 2 स. 28) कशमीर तवारीख़ में है कि इनकी वफ़ात के तीन दिन बाद जनाबे ख़तीजतुल कुबरा ने भी इन्तेक़ाल फ़रमाया उस वक़्त इनकी उम्र 65 साल की थी। (अल याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 28)
उन दो अज़ीम हमर्ददों और मददगारों के इन्तेक़ाल पुर मलाल से हज़रत रसूले करीम (स.व.व.अ.) को सख़्त रंज पहुँचा। आपने शदीद रंज व ग़म और सदमओ अलम के तअस्सुर में इस साल का नाम आम उल हुज़्न ग़म का साल रख दिया।
मोमिन कुरैश हज़रत अबू तालिब और जनाबे खतीजातुल कुबरा की क़ब्र मक्का के क़ब्रस्तान हजून में एक पहाड़ी पर वाक़े है।
इसी 10 बेअसत में अबू तालिब के इन्तेक़ाल के बाद कुरैश ने यह देख कर कि अब इनका कोई मज़बूत हामी और मददगार नहीं है आं हज़रत (स.व.व.अ.) पर दस्ते ज़ुल्म व ताअद्दी और भी ज़्यादा दराज़ कर दिया और बनी हाशिम अपने रईस के मर जाने से आपकी कमा हक़्क़हू हिफ़ाज़त व अयानत न कर सके और दुश्मनों की ईज़ा रसाई उरूज को पहुँच गई। बारवायते तारीख़े खमीस हज़रत की यह हालत पहुँच गई कि आपने घर से निकलना छोड़ दिया फिर यह ख़्याल कर के कि ताएफ़ में बनी सक़ीफ़ रहते हैं और वहीं चचा अब्बास की ज़मीन है। ताएफ़ चले जाने का क़स्द कर लिया और अपने गुलाम आज़ाद ज़ैद बिन हारसा को हम्राह ले कर रवाना हो गये। रास्ते में बनी बकर और बनी क़हतान में ठहरना चाहा मगर कोई सूरत नज़र न आई बिल आखिर ताएफ़ चले गये जो मक्का से सत्तर मील के फ़ासले पर वाक़े है। वहां तवक़्क़ो के खिलाफ़ सख़्त दुश्मनी का मुज़ारा देखा 10 दिन और बरवायते एक महीना बमुश्किल गुज़रा। बिल आखिर गुलामी कमीनों और गुडों ने आप पर पथराव कर के आपको जख़्मी कर दिया फिर इसी पर इकतिफ़ा नहीं की बल्कि पत्थर मारते हुए फ़सीले शहर से बाहर निकाल दिया। आपके पांव ज़ख़्मी हो गये और ज़ैद का सर फूट गया। एक रवायत में है कि आपके सर पर इतने पत्थर लगे थे कि आपके सर का ख़ून एड़ी से बह रहा था अलग़रज़ वहां से बइरादा ए मक्का रवाना हो कर जब बतने नख़्ला में पहुँचे जो मक्का से एक रात की मसाफ़त पर पहले वाक़े है तो रात को वहीं क़याम किया और क़ुरआन पढ़ने
लगे नसीब से यमन जाते हुए जिनों के एक गिरोह ने कलामे ख़ुदा सुना और वह मुसलमान हो गये, फिर आपने ज़ैद को मक्के भेजा कि किसी मददगार का पता लगायें मगर कोई न मिला, अलबत्ता मुतअम बिन अदी ने हामी भरी और आप मक्के वापस आ गये। (रौज़तुल अहबाब)
इसी सन् 10 बेअसत में वफ़ाते ख़दीजा के बाद आं हज़रत ( स.व.व.अ.) ने सौदा बिन्ते जम्आ से निकाह किया और इसी साल हज़रत आयशा बिन्ते अबी बक्र से भी अक़्द फ़रमाया।
एक रवायत में हज़रत आयशा का यह क़ौल मिलता है कि मेरी माँ मुझे ककड़ी खिलाती थीं ताकि मैं ज़फ़ाफ़ के काबिल बन जाऊँ । ( सुनन इब्ने माजा, जिल्द 3 अनुवादक बाबुल कशा बल रूत्ब जिल्द 62 पृष्ठ 61)
क़बीलाए ख़जरज का एक गिरोह खिदमते रसूल (स.व.व.अ.) में 11. बेअसत
रजब के महीने में एक दिन आं हज़रत ( स.व.व.अ.) मिना में खड़े थे कि एक दम एक गिरोह एहले यसरब का क़बीलाए खज़रज से हज़रत के पास आया। इस गिरोह में 6 अफ़राद थे। हज़रत ने उनके सामने क़ुराने मजीद की तिलावत की
और इस्लाम के महासनि (नियम क़ानून) बयान किये। वह मुसलमान हो गये और उन्होंने यसरब में जा कर काफ़ी तबलीग़ की और वहां के घरों में इस्लाम का चर्चा हो गया।

