मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-20


सुनकर मैं अचम्भे में पड़ गया। यही सोचता रहा हुजूर ‘फ़क़ीह’ भी हैं और उत्तम ढंग से हदीस और क़ुरआन शरीफ की व्याख्या करने में भी निपुण हैं। फ़कीरी तो आपकी हद से अधिक निराली है। १८७२ ई० की जो बदगुमानी थी उसकी सफाई है। फिर इटावा पहुँचकर देवा शरीफ हाज़िर हुआ और २ अक्टूबर १८९५ ई० से अक्टूबर ९५ ई० तक सेवा में उपस्थित रहा। उस समय आपकी कदमबोसी करता आसान कार्य नहीं था। हज़ारों दर्शनार्थी और चाहने वालों की भीड़ लगी रहती थी अमीर-गरीब, दीन-दुखी जुटे रहते थे। लोग एक पर एक गिरते, ठोकरें खाते तय कहीं हुजूर के चरणों तक पहुँच होती थी । ६ अक्टूबर को आपकी गुलामी से सम्मानित होकर वापस हुआ।

जिस समय हुजूर वारिस पाक जौनपुर में ठहरे हुए थे। मौलाना अब्दुर्रहीम साहब जो उस समय दहरिया कहे जाते थे। एक दिन अपने चेलों को साथ लेकर चारिस पाक की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पूछा ‘यदि इबलीस (शैतान) ने ख़ुद को छोड़ आदम का सिजदा नहीं किया तो क्या बुरा किया? आखिर उसको शैतान मलऊन क्यों कहते हैं ?’ हुजूर ने जवाब में कहा ‘मौलवी साहब मोहिद (ख़ुदा को मानने वाले) तो शैतान और रहमान में फ़र्क नहीं करते और आशिक शैतान को बुरा नहीं मानते। इबलीस की घटना एक विशेष सबक है। परन्तु शरीअत के अनुसार इबलीस ने यह ग़लती ज़रूर की कि आदम को ग़ैर समझा। ख़लक आदम अला सूरतही का ध्यान न रखा।’ मौलवी साहब यह सुनकर प्रभावित हुए और वारसी हो गये। हुजूर पाक किसी से वाद-विवाद नहीं करते न वाद-विवाद को अच्छा मानते थे । बहुत से प्रत्यक्ष इल्म तथा ज्ञान वाले आपकी ख़िदमत में आते पर आप उनको मना नहीं करते वरन् उनकी तसल्ली कर देते थे। यही कारण था कि आगन्तुक आपकी गुलामी स्वीकार कर लेते थे और यदि उनके भाग्य ने साथ नहीं दिया तो अपने विरोध के कारण लज्जित होकर बात करने की हिम्मत नहीं करते थे।

मुंशी अब्दुल ग़नी खाँ साहब साबिक नायक रियासत महुवना, जिलासुलतानपुर और अब्दुल ग़नी साहब रायबरेली लिखते हैं कि एक बार हम देवा शरीफ में हाज़िर थे । हुजूर की ख़िदमत में एक आलिम (धर्म के ज्ञाता) पंजाब से चलकर आठ या नौ बजे प्रातः हुजूर की ख़िदमत में हाज़िर हुए। अपने इल्म के अहंकार में बिना नमस्कार, बन्दगी के ही प्रश्न किया कि अगर आप कुछ जाहिरी इल्म पढ़े होते तो शरीअत के मसलों की जानकारी होती। आपने कहा ‘मौलवी
साहब आप ज्ञान अथवा इल्म के सम्बन्ध में पूछते हैं।’ मौलवी ने कहा कि यही इल्म अरबी, फारसी में जो प्रचलित है। आपने पुनः कहा ‘मौलवी साहब इस इल्म का यही फायदा है न कि पेट भर रोज़ी मिल जाय और इच्छाओं की पूर्ति हो। बस ख़ुदावन्द ताला में रोज़ी देने का गुण मौजूद है। उसका नाम रज़्ज़ाक (रोज़ी देने वाला) है। इस नाम पर जिसको तसदीक (पूर्ण विश्वास) हो जाय उसको इस इल्म की क्या ज़रूरत है ? केवल उसके एक नाम से सब काम निकल सकते हैं, बस मैं उसकी सन-अतेरज़्ज़ाकी ( रोज़ी बांटने के गुण) पर ईमान रखता हूँ। इसलिये सबको बेकार और बेफायदा समझकर छोड़ दिया है। मौलवी साहब इल्म वही सीखना चाहिये जो मरने के वक्त काम आये और मौत के वक्त कलमा जुबान से निकले। यदि जुबान से कलमा न निकला तो इल्म किस काम का।’

इस पर मौलवी साहब ने कहा कि मैं अरबी, फारसी, फलसफा, मुनातिक, हदीस, तफसीर और फेका सबका जानकार हूँ। क्या मरने के वक्त मेरे मुँह से कलमा न निकलेगा। हुजूर ने ब्यान किया कि कुछ दूर और असम्भव मत जानिये। आपने सुना होगा कि दो, तीन दिन पहले से लोगों का मुंहबन्द और जुबान उलट जाती हैं। मौलवी साहब ने फिर कहा कि जिसका मुँह बन्द हो जाएगा, जुबान के इशारे से कहेगा, जुबान बन्द हो जायेगी तो दिल से कहेगा। आपने फरमाया कि अधिकांश लोगों का दिल पलट जाता है। बहुत से लोगों की दशा पागलों जैसी हो जाती है। कुछ लोगों पर ऐसा सकूत (शान्ति) छा जाती है कि हिल नहीं सकते यहाँ तक कि होश खो देते हैं। मृत्यु का भय उनकी ज्ञानेन्द्रियों का नाश कर देता है। दिल बेकरार होश हवास बदले हुए होते हैं। फिर दिल में एकाग्रता कहाँ ? इन बातों को सुनते ही मौलवी साहब की दशा बदल गयी। उन्होंने अपनी पगड़ी फेंक दी और आपके पैरों में गिर कर कहने लगे कि जैसा सुना था उससे अधिक पाया। आपके सामने मैं उम्मी (बिना पढ़ा लिखा) हूँ। ख़ुदा के लिए अपनी गुलामी प्रदान कर इस गरीब को सम्मानित करें। मेरी आन्तरिक दशा में घोर परिवर्तन हो रहा है मेरा मन घबरा रहा है। हो सकता है कि ये मेरे जीवन की अन्तिम बेला हो । हुजूर वारिस पाक ने मौलवी साहब को अपनी गुलामी में शामिल कर लिया। मौलवी साहब ने फकीरी वस्त्र की इच्छा जाहिर की। हुजूर ने एहराम (पीला वस्त्र) प्रदान किया। मौलवी साहब के तीन चेलों को भी पीला वस्त्र प्राप्त हुआ और शेष अपने घरों को लौट गये। जाने वालों से मौलवी साहब ने कहा कि मेरे रिश्तेदारों से कह
देना कि सब्र करें। मेरे हृदय की दशा बदल गई है। पुनः मौलवी साहब अपने तीनों चेलों के साथ नेपाल की ओर चले गये। आपके सामने कभी वाद-विवाद की नौबत, नहीं आती। आप दो ही तीन वातों में सभी कार्य पूरा कर देते थे और यदि कोई व्यक्ति वाद-विवाद के निमित आया तो आपके व्यक्तित्व के प्रभाव से भयभीत को जाता और उनके मुख से कोई बात ही न निकल पाती थी ।

के मौलवी बशीरूज्ज़मा साहब निवासी सन्डीला लिखते हैं कि मुंशी फज़ले हुसेन साहब गद्दीधारी हज़रत शाह मुनियम कन्जुल मारफत मुझ से कहते हैं कि एक बार दो अफग़ानी मौलवी हुज़ूर के दरबार में आये। एक साहब बूढ़े होने के नाते बड़े और एक कम उम्र होने के नाते छोटे कहे जा सकते थे। इनकी बातों से जान पड़ता था कि ये लोग बहस करने हेतु आये थे। उन लोगों ने मुझ से कहा कि हाजी साहब नमाज़ नहीं पढ़ते हैं। इसलिये ये हदीस ‘मनतरकस्सलात मोतअम्मीदन फ़कट कफ़र’, उनके ऊपर लागू होती है। अत्यन्त कठोरता से बात-बात पर इन शब्दों को दोहराते जाते थे। हम आपको कुछ नहीं कह सकते क्योंकि आप मेरे मेहमान हैं। आपको जो कुछ कहना हो उन्हीं के सम्मुख कहिये। किसी के पीठ पीछे कुछ कहना उचित नहीं है। उचित ये है कि आप भोजन कर लें और दोपहर की नमाज के पश्चात् हुजूर के अस्ताने पर चलिये फिर जो जी में आवे कहियेगा। किसी तरह वे लोग ख़ामोश हुए, खाना खाने के बाद हुजूर के सम्मुख जाने का इरादा कर ही रहे थे कि हुजूर वहीं पधारे और अपने ढंग के अनुसार सलाम किया। दोनों साहब टकटकी बांधकर ताकते रहे, सलाम का जवाब देना भी भूल गये । मानो ये लोग पूरे बदहवास थे। हुजूर पाक ने दोनों से कहा ‘उलमा की बड़ी शान है, आपका मकान कहाँ है ? किस काम के लिए पधारे हैं? आपके नाम क्या है?’ किन्तु वे दोनों आदमी तस्वीर अथवा मूरत बने बैठे थे और दोनों विस्मीत भाव से आपके रूप अनूप की ओर देखने में संलग्न थे। जब वे लोग किसी बात का उत्तर ही नहीं दिये तो हुजूर पाक ने कहा ‘आप लोग हमारी भाषा नहीं समझते होंगे।’ अतः पुनः आपने अरबी, फारसी में पूछा परन्तु वह लोग चुप रहे। आपने पूछा वेश भाषा से पंजाबी मालूम होते हैं। अतः फिर आपने पिशत्, पंजाबी, गुजराती इत्यादि में भी बातें कीं परन्तु दोनों साहब भौचक्का और हैरान बैठे रहे। आप उठ खड़े हुए कहा ‘विचित्र लोग हैं। आये थे शस्त्रार्थ करने और कोई बात जुबान पर नहीं लाते।’
हुजूर चले गये लेकिन ये दोनों आदमी बुत बने बैठे रहे। उन पर ऐसी चुप्पी चढ़ी मानो उतरने को नहीं थी। मुंशी फज़ले हुसेन साहब कहते हैं कि मुश्किल से हमने उनको अम्र की नमाज में खड़ा किया। नमाज़ समाप्त करने के पश्चात् वह लोग हमारे निकट बैठ गये और चुप बैठे रहे। रात के भोजन के लिए हमने उनसे धीरे से कि कुछ खा लिजिए। उन्होंने उत्तर दिया कि हमें भोजन की इच्छा नहीं है। नमाज बाद भी वह दोनों एक दूसरे के सामने चुप बैठे रहे। हम लोगों ने यह समझा कि अपने जप-तप में लगे हैं। पर दशा विचित्र थी। आधी रात के लगभग दोनों आपस में झगड़ने लगे। गाली-गुप्ता व जूतम पैजार की नौबत हो गयी। मैंने पहुंचकर उनको अलग किया फिर दोनों एक दूसरे को घूरते हुए बैठ गये। रात के अन्तिम पहर में फिर दोनों आपस में झगड़ने लगे। यहाँ तक की प्रातः छोटे मौलवी मस्जिद में एक ओर घायल पड़े थे। हमने उनको उठाया और वह उठकर हाथ मुंह धोकर फर्ज की नमाज पढ़कर हम से कहा कि हमको हुजूर का चेला बना दो। हमने पूछा कि मौलवी साहब कहाँ चले गये ? उनहोंने कहा कि ख़ुदा जाने कहाँ भाग गये ? हुजूर सरकार वारिस पाक की ख़िदमत में हम लोग पहुँचे । हुजूर ने अति प्रेम तथा स्नेह से छोटे मौलवी साहब को चेला बनाया और वह दो चार दिन रहकर अपने घर को चले गये। बाद में सुना कि बड़े मौलवी फतेहपुर सिसवा मस्जिद में पहुंचे। वहाँ मोअज्जीन (अजान कहने वाला) और पेश इमाम (आगे खड़े होकर नमाज़ पढ़ाने वाले) से खूब जूतम पैजार हुई और घायल होकर ख़ुदा जाने कहां भाग गये।

मौलवी नाजिम अली साहब फज़ली निवासी कुरसी, बाराबंकी, सहायक प्रबन्धक, मदरसा आलिया फुरकानिया, लखनऊ की लिखित घटना है कि एक बार देवा शरीफ में मैं आपकी सेवा में हाजिर हुआ। आपने मुझसे कहा अब तो कुरसीमें कोई आमिल नहीं है, तुम्हीं हो कहकर आपने एक कसीदा अरबी भाषा का जिसकी भाषा कठिन थी और जिसका पढ़ना साधारण योग्यता के लिए कठिन था। मुझे देखकर सम्बोधित किया और कहा पढ़ो मैंने बिस्मिल्लाह कहकर जो पढ़ना आरम्भ किया तो आदि से अन्त तक शुद्ध उच्चारण से पढ़ा किन्तु आज हम उसको पढ़ने के योग्यता नहीं रखते हैं। ये सब हुजूर वारिस पाक की वाह्य शक्ति की देन है। आपको पुस्तकों को पढ़ने द्वारा ज्ञान नहीं था। वरन् उनकी शक्ति ईश्वर प्रदत्त थी। बड़े-बड़े फिलासफ़र और बोलने वाले प्रवक्ता की सांस बन्द हो जाती थी। जिस प्रकार की समस्या सामने होती आप उसी प्रकार उत्तर देते थे।

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