बात-चीत करने की शैली

आपके बेमिसाल सरापा के भाँति ही आपके बात करने का ढंग भी निराला था। आपके कथन में मनमोहकता और मिठास भरी होती थी। एक बार आपकी बातें सुनकर बहुत दिनों तक हृदय चटखारा लेता रहता था। चुप-चाप रहने की आदत थी। सदैव दृष्टि नीची होती थी। आपके वाक्य छोटे होते थे। बातें धीरे-धीरे और जल्दी होती थी । शब्दों को दोहराने की आदत थी। आपकी जुबान में कुछ कम्पन थी। आपकी बातें अबोध बालकों जैसी सीधी-सीधी होती थीं। वाक्य अत्यन्त संक्षिप्त होते थे। जो चाहने वालों को व्याकुल कर देते थे। आप बातों-बातों में कठिन से कठिन गुत्थियाँ सुलझा देते थे। आपके मीठे और मधुर वचन दुखी दिलों का दुःख दूर कर देते थे। आपके खामोश रहने में भी एक प्रत्यक्ष शान दिखाई देती थी । लोग इच्छुक रहते थे कि आप कुछ कहें और लोग लाभान्वित हॉवें। प्रत्येक दिलों की दशा आप जानते रहते थे। जब आवश्यकता होती या समझते तब. बोलते थे। कभी ठहाका मार कर नहीं हंसते। यह जरूर था कि मुस्कुराते हुए जान पड़ते थे। किसी से बात को हुजूर लम्बा करना नहीं चाहते, जहाँ तक होता बातें जल्द ही समाप्त कर देते थे। आप अधिकांश चुप रहा करते थे। आपके बात करने की अनोखी शान थी। जिससे आप बात करते वह रोमान्वित हो उठता, अपना होश खो देता था तथा मुहब्बत में मस्त हो जाता था।
। श्री मिर्जा मुहम्मद इब्राहीम बेग शैदा वारसी (जो हुज़ूर वारिस पाक के निकट रहने वालों में विशेष स्थान रखते हैं) लिखतें है:- दरभंगा में नबाब सादिक अली खाँ के मकान पर आप विद्यमान थे। चार से छ: बजे शाम के बीच एक अरब निवासी आप की सेवा में उपस्थित हुए। आपने केवल इतना ही कहा ‘मदनी साहब कल आपकी खातिर हो जायेगी।’ दूसरे दिन आपके चेलों और आप पर विश्वास करने वालों की एक अच्छी भीड़ नवाब सादिक अली साहब के द्वार पर लगी थी आप नवाब साहव के मकान से बाहर आये। अरबी साहब भी हाजिर थे। आपने उनको ‘एहराम’ पीले वस्त्र का एक टुकड़ा प्रदान किया जो नीले रंग का मलीना था और कहा ‘लो यह तुम्हारा हिस्सा है।’ अरबी महोदय ने वह टुकड़ा लेकर दर्दनाक आह की तथा व्याकुल होकर अपने वस्त्र फाड़ डाले और तड़पने लगे। सभी उपस्थित गण भी एक विशेष अवस्था में आ गये पर हुजूर मुस्कुराते हुए कहते थे ‘मदनी साहब को यह क्या हो गया?’ अंततः जब आप बिस्तर पर आकर बैठे तो अरबी महोदय को उसी दशा में बुलाकर फकीरी वस्त्र प्रदान किया। उनका नाम अरबशाह रखा और आदेश दिया सादिक अली खाँ के बंगला में रहा करो। यह भी कहा:-‘यदि दिल घबराये तो मदीना शरीफ चले जाना, जुमा के दिन हम से भेंट हुआ करेगी।’ वास्तव में इस वाक्य का ‘लो यह तुम्हारा हिस्सा है’ का अर्थ था जिसने अरबी महाशय को दर्द से भर दिया।
मौलवी सैय्यद शर्फुद्दीन साहब (आनरेबुल मेम्बर एक्जीकेटिव कौन्सिल बिहार) कहते हैं कि एक बार हुजूर वारिस पाक पटना पधारे और मुझे आदेशित किया ‘तुम मेरे साथ देवा चलो।’ मैं अपने मन में सोचने लगा ख़ुदा ने मुझे दो बच्चे दिया एक बेटा और एक बेटी और दोनों को चेचक निकल आई है आखिर इनको किस पर औरकैसे छोड़ कर जाऊँ। अंततः मैं सरकार की सेवा में हाजिर हुआ। हुजूर ने अपने आप एक किस्सा कहना आरम्भ किया जिसका अर्थ यह था कि मुहब्बत में माता-पिता, माल-दौलत, धर्म-संसार सब छूट जाता है। यह कह कर मुझे आदेश दिया ‘वालिस्टर मेरे साथ चलो।’ मैंने हाँ कहा और हुज़ूर के साथ हो लिया। पुनः हमने कहा कि हुजूर हकीम मुबारक हुसेन साहब सफर करना पसन्द करते है। आपने उनकी ओर मुँह करके कहा ‘हकीम जी जितना गाँव जवान और बनफशा को याद रखते हो उसी कदर मुझे भी याद रखा करो ।’ मैं नहीं कह सकता कि यह वाक्य कितना प्रभावकारी था और किस विशेष अदा में कहा गया था कि हकीम जी भी प्रेम रोग के रोगी बन गये। वह भी हुजूर के साथ चलने को तैयार हो गये।
खान बहादुर मौलवी बाकर खाँ साहब वारसी पेनशिनीज डिप्टी कलक्टर राय बरेली जो एक शरीयत (इस्लाम धर्म के कानून) पर चलने वाले बुजुर्ग हैं। ब्यान करते हैं कि एक बार वारसी दरगाह में मैं हाजिर था। एक हिन्दू साध परिक्रमा करते हुए एक विशेष दूरी चलकर हुजूर के सामने उपस्थित हो अपने ढंग से दण्डवत कर चरण चूमे तथा चुपचाप खड़े हो गये। देखने से जान पड़ता था कि इनका कोई विशेष उद्देश्य था। इस समय किसी सेवक ने एक व्यक्ति से संके किया कि इनको सीधा दिला दो। तत्काल साधु ने कहा ‘मैं सीधा लेने हेतु इतन कष्ट झेलकर नहीं आया हूँ। मेरी गरज पूरी होनी चाहिये।’ हुजूर ने उसकी ओ देखकर केवल दो शब्द कहा ‘अच्छा जाओ।’ साधु महाराज प्रसन्नता से जोश मे आ गये और आनंदित हा उछलते कूदते चले गये। मानो उनकी मनोकामना पूरी ह गयी। सुनने वालों के समझ में तो कुछ हाथ न लगा किन्तु साधु अपनी कामना के पूरी होने का निरीक्षण करते हुए चला गया। श्रोतागण हुजूर के कथन का कुछ अर्थ समझने से असमर्थ होते किन्तु जिसके प्रति कहा जाता वह अपनी उद्देश्य पूर्ति को देखकर प्रसन्न हो उठता था।
मौलवी सैय्यद ग़नी हैदर शाह का कथन है कि मौलवी सैय्यद मुहम्मद करीम साहब रज़ा चिश्ती नजामी, आरंभ में हदीस की शिक्षा देते थे। जाहिरी शरीयत में सुदृढ़ थे किन्तु आन्तरिक ज्ञान से सहमत न थे। हदीस पढ़ाना आपने छोड़ दिया और कुछ दिन अपने घर पर ही पड़े रहे। फिर मौलवी साहब ने बरेली जाने का इरादा किया। संयोग से उसी समय हम लोग देवा शरीफ जा रहे थे। स्टेशन पर मौलवी साहब से मुलाकात हो गई। हम लोगों की दिलजोई के लिए मौलवी साहब भी बाराबंकी स्टेशन पर साथ ही उतर गये और देवा शरीफ भी गये। दूसरे या तीसरे दिन संध्या पश्चात् मौलवी साहब ने कहा ‘हम भी मिलना चाहते है।’ हम अपने साथ लेकर हुजूर की खिदमत में हाजिर हुए। हुजूर उस समय लेटे हुए थे। मैंने हुजूर के हाथों को चूम कर कहा कि मौलवी साहब आपके दर्शन के लिए आये हैं। हुजूर उठकर बैठ गये। मौलवी की ओर देखते हुए कहा ‘मौलवी साहब! मौलवी साहब! हम तो किताबें भूल-भूलाये गये। ग़नी हैदर साहब का कथन है कि मैंने हुजूर से कहा मौलवी साहब भी भूल रहे हैं। फिर मौलवी साहब की ओर हुजूर ने देखते हुए कहा ‘अल कलेमतो लफजुन वजेअ ले मजी मुफरदिन, आपने पढ़ा है तो भी भूल-भूलाये गये ।’ पुनः आपने कहा ‘मौलवी साहब । इन्नल्लाहा खलका आदमा अला सूरतेही, है न, बस देखा करो।” हम लोग मौलवी साहब को लेकर ठहरने की जगह पहुंचे और पूछा फिर मौलवी साहब ने कुछ बताया मेरी याद के मुताबिक यह है- हम छात्रों को हदीस पढ़ाते थे तो एक छात्र के पाठ में ये हदीस आई (इन्नल्लाहा ख़लका आदमा अला सूरतेही अर्थात् बेशक अल्लाह ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया है। उसने प्रश्न किया कि ख़ुदा की तो कोई सूरत नहीं फिर यहां सूरत का क्या अर्थ है ? मैं जो बराबर पढ़ाता था वही बताया किन्तु उसके मन को विश्वास नहीं होता था। वह छात्र प्रत्येक दिन मुझसे पूछता था। चूंकि अपने अर्थ पर मुझे भी विश्वास नहीं था। अतः मैं उसके चक्कर में पड़ गया। बहुत दिनों तक किताबें उलटता-पलटता रहा किन्तु वास्तविक अर्थ नहीं मिला। मेरी तबियत पढ़ने-पढ़ाने से उदास हो गई। यही सोचा करता था कि सूरत कैसी है और सूरत का क्या अर्थ है ? इस उलझन को आज हाजी साहब ने खोल दिया। उक्त मौलवी साहब घूम फिर कर दिल्ली में निवासित हुए और आज़ाद फ़कीर के नाम से मशहूर हैं। जो
से हुजूर की बातें वास्तविकता पर निर्भर होती थी। आप समस्याओं पर बहस नहीं करते थे। एक बार की बात है। शाह अब्दुर्रहमान दहलवी हज़रत हाजी साहब मुलाकात करने गये। बातचीत के सिलसिले में अद्वैत्यवाद का मसला पूछा । आपने कहा ‘जिस पर अद्वैत्यवाद खुलता है, वही जानता है। ज़बान से इसका भेद कहना कठिन है।’ इससे यह विदित है कि आप मसले को समझते थे । उसका संक्षिप्त उत्तर दे देते थे। मौलाना हकीम सैय्यद अली नक़ी शाह जो नक़्शबन्द के ख़लीफ़ा थे लिखते हैं कि एक बार हज़रत भिसवाँ फतेहपुर में ठहरे थे। न्यज़ अहमद साहब जुमा के दिन मस्जिद में आपके प्रति कठोर वचन प्रयोग कर रहे थे। अचानक आप मस्जिद में आ गये और केवल इतना सा कहा ‘मौलवी साहब आप अपनी बना चुके। मैं तो अपने दुख दर्द में फंसा हूँ।’ इतना कहना था कि मौलाना चीख़ मार कर रोने लगे। मस्जिद के सभी लोग रोते-रोते बेहोश हो गये। आपके साधारण वाक्य बिजली की तरह प्रभावकारी थे। मध्यम पुरुष तथा अन्य उपस्थितगण पर तत्कालिक प्रभाव छा जाता था।
के हाजी अवघट शाह वारसी जब अपने पूज्य पिता के उर्स की आज्ञा लेने आये तो आपने तीन चादरें देकर कहा ‘लो ये चढ़ा देना।’ हाजी अवघट शाह कहते हैं कि मेरे पिता का मज़ार और एक फ़कीर सोहराब शाह का, दो मज़ार मस्जिद में थ किन्तु तीसरी चादर की बात समझ में न आती थी। अतः दो चादरें चढ़ा दी और तीसरी रख लिया। स्वप्न में हुजूर कहते हैं कि इस मस्जिद में अमुक स्थान पर एक और मज़ार है। सुबह उठकर उस जगह को खोदवाया और वहाँ एक मज़ार मिला जिस पर चादर चढ़ा दिया। इसके पूर्व किसी को इस मज़ार का ज्ञान नहीं था। इसी प्रकार की एक घटना फजीहत शाह साहब वारसी की बीती है। जिसको मौलवी पूज्य अब्दुल ग़नी वारसी लिखते हैं। जब हुजूर बिहार प्रदेश के मौज़ा बेलछी शरीफ में पधारे थे। फ़जीहत शाह भी हाज़िर थे। उस समय एहराम न मिलने के कारण उनका पैतृक नाम जहूर अली था। फ़जीहत शाह हुजूर से अपने दादा पीर के उर्स में सम्मिलित होने के लिए आज्ञा लेने गये। आपने कहा ‘अच्छा जाओ और एक काम और भी करते जाओ।’ जब फ़जीहत शाह उर्स से लौटे तो मालूम हुआ कि उनके पीरज़ादा ग्यासुद्दीन साहब के एक मुरीद की ऐसी हालत है कि बेरोक टोक पोर, पैग़म्बर, औलिया, अम्बिया सबको गाली देते हैं। फ़जीहत शाह ने हुजूर की पाक रूहानियत से उसकी इस हालत को दूर कर दिया। उस समय से समझ में आया कि काम यह था।
सैय्यद हामिद अली शाह चिश्ती क़ादिरी लिखते है कि मुझ से मिर्जा, मुनियम शाह वारसी ब्यान करते हैं कि एक बार मैं तीन सौ रुपये का कर्जदार था। ऋण चुकाने की कोई सूरत नहीं बनती थी। एक दिन मैं सरकार वारिस पाक की सेवा में हाज़िर हुआ। आपने मुझे सम्बोधित कर कहा ‘किस्सा चार दरवेश कर अदा करने के लिए अच्छा है।’ इतना कहकर आप चुप हो गये। मैं मकान पर आकर किस्सा चार दरवेश तीसरी बार ख़त्म किया था कि मुझको ताअल्लुकदार,साहब कोहबरा ने बुलाकर तीन सौ रुपये प्रदान किया और कहा कर्ज दे दो। मौलाना शायक वारसी साहब ‘तोहफ्तुल असफिया’ में लिखते हैं कि देवा शरीफ के कुछ सम्मानित लोग आपके पास आए और कहा कि हमारे कुछ अज़ीज फौजदारी के मुकदमें में फंस गये हैं। हुजूर पाक ने कहा ‘हम क्या करेंगे?’ अगन्तुक निराश हो चलने को तैयार हुए ही थे कि आपने उनकी ओर देखकर कहा
‘दोसता रा कुजा कुनी महरूम तू किवा दुशमनाँ नजर दारी’ अर्थ- जब तू दुश्मनों की सुरक्षा करता है फिर दोस्तों को कैसे निराश करेगा।
हुजूर सरकार वारिस पाक के कथन, उप-कथन में संकेत अधिक होते थे जैसे :- ख़ुदा मालिक है। ख़ुदा में सब क़ुदरत है। ला तकनतू मिर्रहमतल्लाह । इसी प्रकार सांकेतिक बातें आपके मुख से निकलती थीं जिनसे दीन दुखियों को अपनी सफलता का विश्वास हो जाता था। आप भविष्य की बातें इस प्रकार ब्यान करते जैसे कोई प्रश्न किया जाता है अर्थात् कोई पूछता है। जिसकी मिसाल हेतु अब्दुल ग़नी साहब वारसी, बिहारी की एक घटना काफी है । बेलछी में आपने कहा ‘अब्दुल ग़नी तुम्हारी तरक्की हो गई।’ मौलाना अब्दुल ग़नी साहब चूंकि आपकी कथन शैली के जानकार नहीं थे। अतः आपने सादगी से कहा ‘नहीं हुजूर ।’ हज़रत ख़ामोश हो गये। उक्त मौलाना का कहना है कि मुरीद बनने के पश्चात् सन् १८९१ ई० में जब मैं हैदराबाद पहुँचा तो मेरा वेतन दो सौ रुपये से बढ़कर सवा तीन सौ रुपया मासिक हो गया। यही वेतन दस-बारह वर्ष तक मिलता रहा । मुझे शंका बनी रहती थी कि मेरा विभाग अस्थाई है। इसके टूटने पर मुझे किसी अन्य विभाग में नौकरी मिले या न मिले। उसी समय मैंने अपनी जन्म भूमि को जाने का इरादा किया तथा अवकाश लेकर वापस हुआ, सोचा सरकार वारिस पाक का चरण स्पर्श करता चलूं। मैं आपकी चौखट पर पहुंचा। जब हुजूर के समक्ष हाज़िरी हुई तो आपने फ़रमाया ‘अब्दुल ग़नी तुम नौकर हो ना।’ अब चूंकि मैं हुजूर की वाक्य शैली का ज्ञान रखता था इसलिये अर्ज़ किया ‘हाँ हुजूर, नौकर हूँ।’ अपने घर से जब छुट्टी पूरी करके वापस गया तो मैं दूसरे मुहकमे में चला गया और क्रमश: मेरी तनख्वाह ३०० रु० से ५०० रु० हो गयी। यह सब हुजूर वारिस पाक का सदक़ा था। आपकी शान अत्यन्त निराली थी। आपके सामने पहुंचकर अपनी आवश्यकता कहने की ज़रुरत नहीं होती थी। पहुंचते ही सब कठिनाईयां दूर हो जाती थीं।

