
सरापाये मुबारक
सरापा का अर्थ होता है सिर से पैर तक माशूक की बड़ाई ब्यान करने को सरापा कहते हैं। हुजूर वारिस पाक का हुस्न और उनकी ख़ूबसूरती बेजोड़ थी आपकी शारीरिक बनावट की सराहना कठिन है तथा शक्ल व सूरत ईश्वर प्रदत्त थी। आपके दर्शनकर्ता ईश्वर के प्रकाश निरीक्षण में लग जाता था। ख़ुदा के इस कथन के आप हक़दार थे : ‘लकद ख़लक नल इन्साना फी अहसने तक़वीम’ अर्थात् हमने मनुष्य को अति उत्तम बनावट पर पैदा किया। आपका सम्पूर्ण शरीर मानों प्रकाश के साँचे में ढला था। आपकी मुखाकृति गेहुऐं रंग की लालिमायुक्त आकर्षक तथा मनोहर थी। आपके चेहरे का रंग बदलता रहता था। कभी सूर्ख, कभी उज्जवल और कभी चन्द्रमा की भांति दमकता हुआ। जिससे नज़र भर के देखना कठिन होता था। हुजूर वारिस पाक प्रातः बिना मुंह धोये चादर से मुंह बाहर नहीं करते थे। एक बार इस दशा में सैय्यद मारूफ शाह साहब को आपके मुख का दर्शन हुआ था। उक्त सैय्यद साहब का कहना है कि आपके मुख की लालिमा सूर्य के समान थी। देखते ही आंखों में चकाचौंध उत्पन्न हो जाती थी। हाजी अवघट शाह वारसी का कहना है कि हकीम ज़मीर अहमद साहब बछरायूनी को भी एक बार यह शुभ अवसर प्राप्त हुआ था। आप उस ओजस्वी मुख को देखकर सूर्य की लालिमा के चक्कर में पड़ गये थे।
काज़ी मुहम्मद इलियास साहब निवासी गाज़ीपुर अपनी घटना इस प्रकार
लिखते हैं :- एक दिन मैं हाजी वारिस पाक के पास ख़िदमत में हाजिर था। रात को आठ बजे संयोगवश चिराग बुझ गया। मैंने उस समय हुजूर के शरीर का ऐसा प्रकाश देखा जो न तो अक्षरबद्ध ही हो सकता है और न जिसका कहना ही उचित है। एक घंटा तक इसी विचार में डूबा ही रह गया। इस अनोखी बात का भेद केवल उन्हीं लोगों पर खुला जिन्होंने इस दशा में हुजूर का दर्शन किया है। आपका पूरा शरीर प्रकाश के साँचे में ढला हुआ था। आपके पुनीत शरीर की लम्बाई कुछ लम्बी किन्तु अत्यन्त उचित थी। मोटाई शरीर की भी समुचित थी। किन्तु कठोर तप और व्रत के कारण दुबला और कमजोर होता रहता था। ये ईश्वरीय दया और देन थी जो सरकार वारिस पाक पर उतरती रहती थी। जैसा कि क़ुरआन में मौजूद है’व नोरीदो अन् नमल लजीनस तो वफ्फेफूल अरदे व नज अल्हुम अईम्मतन व नज अल होमुल वारेसून’ अनुवाद (हमारी इच्छा यह थी कि जो लोग पृथ्वी पर कमजोर कर दिये गये थे उन पर भलाई करें और उनको सरदार बनायें तथा वारिस नियुक्त करें।) आपका सिर बड़ा और गोल था। आपकी सरदारी ज़ाहिर थी जो आपके महानता की द्योतक थी। हजारों लोगों के बीच आप खड़े होते तो आपका सिर सबसे ऊँचा दिखाई देता था। घूंघुर वाले केशों से आपका सिर सुशोभित रहता था जो रसूले ख़ुदा मुहम्मद साहब का तरीका था। सुन्नते रसूल के अनुसार सिर के केश कभी कंधे या मोढ़े तक और कभी कान की लुरकी तक होते थे ।
यही सबब था जो जुल्फों को ये बढ़ाये हुए कि आज सारे ज़माने ये हैं वह छाये हुए। आपकी पेशानी ईश्वरीय प्रकाश से भरपूर थी। भवें कुछ फैली हुई कमान की तरह थीं। आपके नेत्र लज्जा से परिपूर्ण, सुमग़ और पलकें झुकी हुई थीं। ईश्वर के दर्शनार्थ ये नेत्र खुले हुए होते थे। सदैव दृष्टि नीचे ही रहती थी। कभी किसी को देखने की आदत नहीं थी। यदि सुसंयोगवश किसी पर दृष्टि पड़ जाती तो वह मूर्छित हों जाता था। मौलाना मुहम्मद नाजिम अली साहब फजली जो मदरसा फुरकानिया लखनऊ के नायब सिक्रेट्री थे लिखते है कि मैं कई बार हुजूर के दरबार में जाता था किन्तु पहुंच कर होश खो देता । तमीज़ शेष नहीं रह जाती थी और न याद ही है क्या देखा और क्या हुआ ? सिवाय इसके कि स्वयं खो जाता था। किन्तु हाजिरी का बड़ा शौक था। मैं उनकी आँखो का शैदाई था। आप में चुम्बकीय आकर्षण था जो सामने पड़ता आप ही का हो जाता था। आपकी नासिका सटी हुई और ऊँची थी। पवित्र मुख न चौड़ा और न तंग बल्कि मध्यमकोटि का था। आपके दाँत न छोटे न बड़े औसत मोतियों के तरह चमकदार थे। दाढ़ी घनी और लम्बाई में मुट्ठी भर होती थी। गर्दन अच्छी लगने वाली और लम्बी थी। दोनों कन्धे गोल, हाथ लम्बा, हथेलिया गोश्त से भरी हुई, अंगुलियाँ लम्बीपतली और बहुत खूबसूरत। नख द्विज के चन्द्रमा के समान शानदार थे। दोनों हाथ संसार के प्राणियों की सहायता का बीड़ा उठाये हुए थे। दोनों कलाइयों में अल्लाह के हाथों की शान झलक रहीं थी। आप का सीना दर्पण सरीखे स्वच्छ और पवित्र था जिसमे ईश्वरीय रहस्य छुपे हुए थे। वास्तव में आपका सौन्दर्य और खूबसूरती खुदा के कलाम ‘इन्नल्लाहा ख़लका आदमा अला सूरतेही’ को सार्थक करती हैं। आपकी सूरत को देखते ही अल्लाह की याद आ जाती थी। अल्लाहुम्मा सल्ले अला सैय्यदना मुहम्मदिन बेहिल उम्मीये व अला आलेही व अला असहाबेही व बारिक व सल्लिम बे अददे कुल्ले हुसनेही ।
आप के शरीर का सुगन्ध मोहक और मनोहर था। धार्मिक चेलों के अलावा अन्य लोग भी इसके साक्षी हैं। यही कारण था कि जिस गली से आप गुजरते लोग आप को खोज लेते थे।

