
खाने-पीने का तरीका
आपके भगवान पर निर्भर रहने की बात तो प्रत्येक दशा में झलकती है। यहां तक कि खाने-पीने में भी निस्पृहता पाई जाती है। आप कभी स्वेच्छा से कोई वस्तु नहीं चाहते थे। भक्त और सेवकगण जो भी प्रस्तुत कर देते थे, आप स्वीकार कर लेते थे। कभी भी आपने ऐसा प्रदर्शित नहीं होने दिया कि भोजन का स्वाद कैसा है? आपके विचार में भोजन वस्त्र का प्रबन्ध ईश्वर पर भरोसा करने के विरूद्ध था। आप बाल्यावस्था से सदैव भूख व्रतधारी थे। जब आपकी पुनीत आयु पचास वर्ष से अधिक हो गई तब शिकोहाबाद में संयोगवश आपकी तबीयत ख़राब हो गई। रोग के पश्चात् अधिक निर्बल व कमज़ोर हो गये। अतः कुछ दिनों तक थोड़ा सा आहार लेते जो नाममात्र को होता था। भोजन करते समय लोग बताते थे कि यह फलाँ वस्तु है। आप थोड़ा-थोड़ा चुटकी से प्रत्येक पदार्थ ग्रहण करते थे, वह भी इतनी अल्पमात्र में होती थी कि यह गुमान नहीं किया जा सकता कि आपको स्वाद का भी पता हो सका हो। आप इतनी जल्दी भोजन करते जैसे कोई कड़वी दवा गले में उतारतें हों। कभी-कभी पदार्थों में से माशे की मात्रा में लेकर एक प्याले में रखकर पानी में मिलाकर ग्रहण करते थे। फ़ीरनी उल्टे चम्मच से लेकर चाट लेते और बस कर देते थे। देवा शरीफ़ में अवासित होने के समय रईस बेलछी हाजी मुहम्मद इस्माईल साहब की पत्नी थीं। जो एक सभ्य और शरीफ़ तथा आपकी भक्त महिला थीं। आपके लिए उत्तम से उत्तम भोज्य पदार्थ तैयार करके आपके सामने प्रस्तुत करतीं किन्तु आप थोड़ा-थोड़ा चीखकर पूरे का पूरा बंटवा दिया करते थे। और केवल दिन में एक बार नूर मुहम्मद शाह साहब की उबाली हुई खिचड़ी मात्र दो-तीन ग्राम ग्रहण करते थे।
मौलवी हामीद हुसेन साहब बछरायूनी प्रोफेसर बरौदा कालेज अंकित करते है कि एक बार हज़रत वारिस पाक ने बाँदा में पदार्पण किया और हाफिज़ अहमद खाँ साहब तहसीलदार बाँदा के मकान पर आवासित हुए। उक्त तहसीलदार साहब के भाई जो कुरवी ( तिरहुवन) में तहसीलदार थे आपको आमंत्रित किया। जब हुजूर बाँदा से कुरवी जाने लगे तो बाँदा के मौलवी सैय्यद अब्दुल हादी साहब जो एक आलिम (धर्म के पंडित) और मेरे उस्ताद थे मुझको पत्र प्रेषित कर सूचित किया कि सरकार वारिस पाक आपके मौज़े से गुजरेंगे, आप अतिथ्य सत्कार से . गौरववान्वित हुए। मैंने भी सरकार से प्रार्थना किया और आप मेरे मेहमान हो गये। -(२५) मेरे यहाँ भोजन में कइत की चटनी भी थी। आपने पूछा कि यह क्या है ? हमने बताया कि ये कड़त की चटनी है। आपने फ़रमाया कि आज तक हम नहीं जानते थे कि कइत की चटनी बनती है। उक्त चटनी बहुत पसन्द फ़रमाया।
मौलवी हुसेन अली साहब नवाब वारसी जमींदार सादा, मऊ, जिला- बाराबंकी से वर्णित है। हुजूर वारिस पाक मोहर्रम की दसवीं को रूधौली शरीफ में काज़ी मज़हरूल हक महोदय के मकान पर तशरीफ़ रखते थे। ताज़िया दफ़नाने के बाद घर आकर मैंने अपनी पुत्री से कहा। हुजूर के लिए हलवा तैयार कर दो पर बादाम मत डालना क्योंकि हुजूर बादाम का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते। उसने फ़ौरन हलवा तैयार कर दिया। जब मैं लेकर चला तो उसने कहा, आप ले तो जा रहे हैं परन्तु हुजूर ग्रहण करें तब न । मौलवी हुसेन अली साहब कहते हैं मैंने हज़रत के समक्ष जाकर हलवा पेश किया तो आपने नूर मुहम्मद शाह सेवक को हलवा बांट देने का आदेश दिया। इस बात पर मुझे हंसी आ गई। आपने पूछा क्यों हंसे ? तब मैंने नम्रतापूर्वक कहा हुजूर चलते समय मेरी लड़की ने कहा था लिये तो जाते हो सरकार खायें तब बात है। यह सुनकर फ़रमाया ‘हम खायेंगे।’ आपने तीन बार अपनी पवित्र अंगुली से उठाकर चखा।
कुछ भी पसन्द मैंने अर्ज़ किया कि अब ख़ातिर हो गई। वास्तव में हुज़ूर को न था। पेश करने वालों को प्रसन्न करने के लिए आप कभी-कभी बड़ाई कर देते थे। जब हुजूर वारिस पाक देवा शरीफ़ में स्थाई निवास करने लगे तो शाह फ़जल हुसेन साहब वारसी और सैय्यद मारुफ़ शाह साहब वारसी तथा दूसरे अमीरों ने भी हुजूर प्रकाशपुंज और उनके मेहमानों के खाने का सुन्दर प्रबन्ध रखा था। प्रतिदिन भोजन की कई परातें हुजूर की सेवा में पेश होती और आगन्तुकों को खिलाई जाती थीं।
हुजूर वारिस पाक के भोजन की मात्रा थी एक तोला (दो भर या ग्राम ) प्रात: तथा एक तोला शाम। अंतिम उम्र में केवल एक तोला भोजन की मात्रा चौबीस घंटे में थी जिससे विदित है आपकी रुहानी जिन्दगी थी, खाना-पीना नाममात्र को था। आप बर्फ का पानी कभी प्रयोग नहीं किये हैं। आपने कभी मछली नहीं खाया और न खाने का कारण ही बताया है। जिस घर में आपका भोजन तैयार होता उसमें मछली नहीं पकती थी। यदि कभी भूल से ऐसा होता तो छप्पर में आग लग जाती थी। धनी हो या ग़रीब आप सबका निमन्त्रण स्वीकार करते थे।
हाँ, उन लोगों की दावतें अस्वीकार होती थीं जिनकी रोजी जायज़ अथवा उचित ढंग से नहीं होती थी। ऐसे लोगों ने कभी आपके दावत के लिए साहस भी नहीं किया क्योंकि ये बात प्रसिद्ध थी।
उन लोगों की दावतों से भी इनकार कर जाते थे जिन लोगों में सुलह न थी और नाराजगी रहती थी। एक बार की बात है जिसे मौलवी रौनक साहब वारसी लिखते हैं कि मेरे परिवार की एक महिला जो आपकी शिष्या थीं किन्तु उनके पति हुजूर के गुरुमुख नहीं थे। उस महिला के पास सम्पत्ति थी। उक्त महिला ने दावत का प्रबन्ध किया। किन्तु उनके पति खर्च की अधिकता के कारण सहमत न हुए। बीबी साहिवा बिना पति को राजी किये ही सरकार की सेवा में पहुंचकर निमंत्रण दिया। आपने मुस्कुराते हुए कहा कि पहले मियां-बीवी सुलह कर लो । वह चुप होकर लौट आयीं। फिर दोनों ने एक राय होकर हुजूर की दावत की।
भोजन करते समय आप सर को तहबन्द के कोने से ढाँक लेते थे। भोजन करते समय उकडू बैठते थे। खाने के पश्चात् इस्तिंजा के लिए जाना व्यवहार में था। खाने के पश्चात् दिन में कीलोला और रात में अवश्य टहलते थे । ख़िलाल (खरिका) करना भी नियमतः था ।

