Hazrat Allama Fazl-e-Haq Khairabadi rahmatullāhi alaihi :
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Laqab :
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Mujaahid-e-Jaleel.
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Aap ki wilaadat 1212 Hijri (1797 A.D.) me Khairabad me hui.
Aap ke waalid ka naam Hazrat Sadr-us-Sudoor e Delhi Allama Fazle Imaam Faarooqi Khairabadi hai.
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Aap ne Hazrat Shaah Abdul Qaadir aur Hazrat Shaah Abdul Azeez Muhaddeeṡ Dehlawi se ta’aleem haasil ki.
13 saal ki umr me Aap ne ta’aleem mukammal ki.
Aap sirf 4 mahine me Haafiz e Qur’an hue.
Aap Hadeeṡ, Tafseer, Fiqh, Falsafa, Kalaam, Ilm e Istadalaal, Ilm ul Adab, aur Tasawwuf ke maahir the.
Aap ko Imaam e Hikmat wa Kalaam ka laqab mila hai.
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Aap ne apne saahabzaade Shams-ul-Ulama Abdul Haq Khairabadi ke saath Madrasa Khairabad ki bunyaad rakhi.
Aap ke shaagirdo me Hazrat Maulana Hidaayatullāh Rampuri aur Hazrat Maulana Abdul Ali Khan Rampuri mash’hoor hain.
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Aap Arabi, Faarsi aur Urdu ke maahir the.
Tasannif :
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Aap ki likhi hui mash’hoor kitaaben :
(1) Tahqeeq-ul-Fatwa Fi Abtalit Taghwa, Shafa’at e Mustafa (sallallāhu alaihi wa sallam)
(2) Al Hidaya Al Sa’aydiya Fil Hikma ul Taabee’aya
(3) Imtinaa’a-un-Nazeer
(4) Al Rauz-ul-Maujood
(5) Bil Rauz-ul-Maujood
(6) Al Aaqib Fazl e Haq
(7) Baghi e Hindustan
(8) Risaala e Saurat ul Hindia (Arabi).
Aap ne Arabi me taqreeban 4000 ash’aar bhi likhe hain.
Aap ke 3 Deewaan mash’hoor hain :
Makhtoota Arabi Deewaan Allama Fazl e Haq ‘Nuskha Lucknow’
Makhtoota Arabi Deewaan Allama Fazl e Haq ‘Nuskha Badayun’
Makhtoota Arabi Deewaan Allama Fazl e Haq ‘Nuskha Aligarh’
Aap ne Mirza Ghaalib ki guzaarish par un ke pehle ‘Deewaan’ ki tadween ki.
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Aap ne Wahaabi (Salafi) ke bad-aqeeda ke baare me Fatawe jaari kiye aur Huzoor Muhammad Mustafa sallallāhu alaihi wa sallam ke Khair-ul-Bashar aur Afzal-ul-Ambiya hone ke aur Waseela aur Shafa’at e Mustafa ke saboot pesh kiye.
Qaadiaani ke khilaaf bhi fatwe jaari kiye aur un ke Nabuwwat ke daawe ko radd kiye aur Huzoor Muhammad Mustafa sallallāhu alaihi wa sallam ke Khaatim ul Ambiya hone ke saboot pesh kiye.
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Aap Lucknow ke Qaazi (Chief judge) the.
1273 Hijri (1857 A.D.) me Aap ne Angrezo ke khilaaf Jihaad ke muta’aaliq fatawa jaari kiya.
1857 A.D. ke gadar ke nakaam hone ke baad 30 January 1859 A.D. me Angrez hukoomat ne Aap ko girftaar kiya. Muqadama chalaane ke baad Awadh ki adaalat ne aap ko Kaala-paani (Cellular Jail) ki saza sunaai. Rabi’ ul awwal 1276 Hijri (8 October 1859 A.D.) ko Aap ko ‘Fire Queen’ naami jahaaz se Andaman umr qaid ke liye laaya gaya. Magar 1 saal aur 10 mahine ke baad Aap ko phaansi de di gai.
Is tarah Aap watan ki aazaadi ke liye qurbaani dekar shaheed hue.
Andaman me Aap ne khufiya tareeqe se Arabi me ‘Saurat ul Hindia’ kitaab likhi. Jo Aap ke saathi qaidi Maulwi Inaayat Ahmad Kakori ne khufiya tareeqe se aap ke saahbazaade Maulwi Abdul Haq ko pahunchaai.
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Aap ke 2 saahabzaade aur 1 saahabzaadi hain.
Saahabzaade : Maulwi Shams-ul-Haq, Maulwi Abdul Haq.
Saahabzaadi : Bibi Hirman (Jin ka nikaah Haafiz Ahmad Hasan ‘Ruswa’ se hua).
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Aap Hazrat Dhiman Dehlawi Chishti rahmatullāhi alaihi ke mureed aur khalifa hain.
Aap ke khulfa :
(1) Hazrat Shams-ul-Ulama Abdul Haq Khairabadi rahmatullāhi alaihi
(2) Hazrat Maulana Hidaayatullāh Rampuri rahmatullāhi alaihi.
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Aap ka wisaal 12 Safar 1278 Hijri (20 August 1861 A.D.) ko Andaman me hua.
Aap ka mazaar Port Blair (Andaman) me hai.
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ALLĀH ta’ala us ke Habeeb sallallāhu alaihi wa sallam ke sadqe me
Aur Hazrat Allama Fazl-e-Haq Khairabadi rahmatullāhi alaihi aur tamaam Auliya Allāh ke waseele se
Sab ko mukammal ishq e Rasool ata farmae aur Sab ke Eimaan ki hifaazat farmae aur Sab ko nek amal karne ki taufiq ata farmae.
Aur Sab ko dunya wa aakhirat me kaamyaabi ata farmae aur Sab ki nek jaa’iz muraado ko puri farmae.
Aameen.
फज़ले हक: अंग्रेजों के खिलाफ फतवा जारी करने वाले क्रांतिकारी!
हम सभी इस बात को जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत की ख़ूबसूरत फिजाओं में ऐसा जहर घोला कि हर तरफ जुल्म और यातनाओं का दौर शुरू हो गया.
अंग्रेजों की गुलामी ने भारतीयों को इस तरह जकड़ा कि लोग हर तरफ डरे और सहमे नज़र आते थे, मगर हमारे कई सारे वीरों को उस गुलामी का एहसास भी हुआ.
इसके बाद उन वीरों ने 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम संग्राम छेड़ दिया. उस 1857 की क्रांति में कई ऐसे क्रांति वीर हुए, जिन्होंने इस जंग-ए-आज़ादी में अपना योगदान दिया और इतिहास में अमर हो गए. उसी में कुछ क्रांतिकारी ऐसे भी थे जो गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो गए.
उन्हीं में से एक थे अल्लामा फज़ले हक खैराबादी.
तो आइए जानते हैं, इन्होंने 1857 की ग़दर में कैसे अंग्रेजों के दांत खट्टे किए –
ब्रिटिश सरकार में की नौकरी, लेकिन…
मौलाना फज़ले हक खैराबादी एक प्रसिद्ध दार्शनिक, कवि और धार्मिक विद्वान थे.
1797 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के खैराबाद शहर में पैदा हुए फज़ले हक खैराबादी के पिता दिल्ली सिविल कोर्ट में उपन्यायाधीश थे, जो बाद में अदालत के जज (मुफ़्ती) भी हुए.
मौलाना फज़ले हक ने आपने पिता और शाह अब्दुल अज़ीज़ से इस्लाम की शुरुआती तालीम ली, वहीं बाकी की शिक्षा अब्दुल अज़ीज़ के भाई से भी हासिल की.
इसके बाद ये खैराबाद में ही अध्यापन कार्य करने लगे और फिर सन 1816 में 19 साल की उम्र में ब्रिटिश सरकार में नौकरी शुरू कर दी.
इसके बाद इन्हें दिल्ली के सिविल कोर्ट में अधिकारी पद पर नियुक्त किया गया,
लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जब इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी नहीं करने का मन बना लिया और फिर 1831 में सरकारी नौकरी को छोड़ दी.

मुग़ल बादशाह के साथ और भी दरबारों में दी सेवाएं
इसी के साथ ये अपना अधिकांश समय विद्वानों के साथ बिताने लगे.
उसी दौरान इनकी मुलाकात उस समय के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब, मुफ़्ती सदरुद्दीन से हुई. इन्हीं के साथ ये मुग़ल बादशाह शाह अब्दुल जफ़र के दरबार में जाया करते थे, जिससे इनकी जान पहचान उनसे हाे गई.
इसके बाद इन्होंने बहादुर शाह जफ़र की अदालत में सदस्य के तौर पर अपनी सेवाएं दीं. हालांकि कुछ समय बाद इन्होंने बादशाह की नौकरी छोड़कर झज्जर के नवाब की सेवा करने का फैसला कर लिया.
अल्लामा फजले हक के दूर होने से बहादुर शाह जफ़र को गहरा दुःख पहुंचा, जिसका इज़हार उन्होंने खैराबादी से किया भी था.
हालांकि इसके कुछ ही समय बाद झज्जर के नवाब की मौत हो गई, और फिर ये सहारनपुर, रामपुर और नवाब वाजिद अली की सेवाओं में लग गए.
1856 में ब्रिटिश सरकार के अवैध कब्जे के बाद मौलाना खैराबादी अलवर के राजा विनय कुमार के निमंत्रण पर अलवर चले गए और वहां लगभग डेढ़ साल तक नौकरी की.

1857 की वो गदर!
ब्रिटिश हुकुमत दिन ब दिन भारतीयों को जुल्म और लूट-मार जैसे भयानक उपद्रव से प्रताड़ित करती रही. हद तो तब हो गई जब अंग्रेजों ने भारतीयों को धर्म का सहारा लेकर एक दूसरे से लड़ाना चाहा, हालांकि उनकी ये चाल कामयाब न हो सकी.
लिहाजा 1857 की क्रांति छिड़ गई, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बनी.
इसके बाद क्रांतिकारियों ने इस विद्रोह को सफल बनाने के लिए दिल्ली में बैठे बहादुर शाह जफ़र से संपर्क किया.
भारत के लिए लड़ाई के एक आह्वान को उन्होंने सर आखों पर रखते हुए क्रांतिकारियों को मदद का आश्वासन दिया और अल्लामा फजले हक खैराबादी को वापस दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा.
अल्लामा ने बहादुर शाह जफ़र के निमंत्रण पर राजा विनय कुमार से बात की और अलवर से दिल्ली के लिए रवाना हो गए.

अंग्रेजों के खिलाफ दिया ‘जिहाद’ का फतवा
भारत में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी लग चुकी थी, बस आग लगाने की देरी थी.
उसी वक़्त बहादुर शाह जफ़र और फज़ले हक खैराबादी के बीच एक मुलाक़ात हुई. जिसमें कई अन्य क्रांतिकारी भी शामिल थे. उन्हीं आंदोलनकारियों में से एक जनरल बख्त भी शामिल थे.
ऐसा माना जाता है कि जनरल बख्त खान की रणनीति के तहत ही जिहाद का फतवा जारी हुआ.
खैर मौलाना फज़ले हक खैराबादी ने फतवे को तैयार किया, जिस पर उस वक़्त के कई प्रतिष्ठित धार्मिक गुरुओं के हस्ताक्षर भी हुए.
ऐसा कहा जाता है कि सब की आपसी सहमति के बाद मौलाना खैराबादी ने जामा मस्जिद में जुमा की नमाज़ के बाद अंग्रेजों के खिलाफ फतवा दिया. और मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का फरमान जारी किया.
उनके इस फतवे का व्यापक असर हुआ, जो होना लाजमी भी था. मौलाना फजले हक खैराबादी के इस फतवे ने 1857 की क्रांति के चिंगारी को आग लगाने का काम किया था.
ऐसा माना जाता है कि अल्लामा के इस फतवे को उस वक़्त के कुछ अख़बारों ने प्रकाशित भी किया था, जिसने व्यापक तौर पर मुसलमानों को जंगे आज़ादी में कूदने के लिए उत्साहित भी किया.
हालांकि 1857 की क्रांति में हर धर्म के मानने वाले क्रांतिवीरों ने भाग लिया था और कहा जाता है कि स्वतंत्रता सेनानियों की वीरता को देखते हुए अंग्रेजों के नीचे से जमीन खिसक गई थी.
खैर, किन्ही कारणों से 1857 की क्रांति सफल नहीं हो सकी और ब्रिटिश हुकूमत ने दिल्ली पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया.
हालांकि उस वक़्त अल्लामा का परिवार और रिश्तेदार भी दिल्ली में ही थे. और फतवे के बाद से ही अंग्रेजों ने उनकी तलाश शुरू कर दी थी, जबकि वो किसी तरह से बचते बचाते दिल्ली से अवध पहुंच गए और फिर खैराबाद से इनको गिरफ्तार कर लिया गया.
वहां से इनको लखनऊ ले जाया गया, जहां इनके ऊपर मुक़द्दमा चलाया गया.

अपने मुकद्दमे की पैरवी खुद की मगर मिली काला पानी की सजा
अल्लामा पर जिहाद का फतवा देने व 1857 से 1858 के बीच क्रांतिकारी नेता होने और दिल्ली, अवध और अन्य क्षेत्रों के लोगों को विद्रोह के लिए उकसाने व हत्या के कई संगीन आरोप लगे.
कहा जाता है कि मौलाना पर खुली अदालत में मुक़द्दमा चलाया गया था और इस मुकद्दमे में उन्होंने अपना कोई भी वकील नियुक्त नहीं किया था, बल्कि खुद अपने मुक़दमे पर बहस की.
साथ ही ये भी कहा जाता है कि इस मुक़द्दमे में जज भी मौलाना का शागिर्द था.
वह मौलाना से हमदर्दी भी रखता था. गवाहों ने भी अल्लामा फजले हक खैराबादी को पहचानने से इंकार कर दिया.
ऐसा माना जाता है कि अल्लामा के पास अपने आपको निर्दोष साबित करने का पूरा मौक़ा था. लेकिन इन्होंने झूठ बोलने से इंकार कर दिया. और भरी अदालत में अपना जुर्म कबूल करते हुए कहा कि “हां वह फतवा सही है, वह मेरा ही लिखा हुआ था और आज भी मैं इस फतवे पर कायम हूं.”
आरोपों को कुबूल करने के बाद उन्हें काला पानी की सजा सुनाई गई और इसके साथ ही सारी जायदाद जब्त करने का भी हुक्म जारी कर दिया गया.
और इस तरह से 1857 की क्रांति का एक हीरो पूरी तरह से गुमनामी के अंधेरे में चला गया.
अल्लामा फजले हक खैराबादी ने जेल के अंदर अपने साथियों पर किस तरह से जुल्म ढाए गए और उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, ये सब अपनी किताब ‘अस्सौरतुल हिंदिया’ में किया है. जो मुफ़्ती इनायत उल्लाह ककारेवी के माध्यम से उनके बेटे मौलाना अब्दुल हक के पास पहुंची थी.
ऐसा माना जाता है कि कोयले से लिखे कई कागजों को जोड़कर इस किताब को बनाया गया था. जिसका बाद में बागी हिंदुस्तान के नाम से अनुवाद भी किया गया
हालांकि, अल्लामा को छुड़वाने के लिए उनके बेटे शमशुल हक ने कोशिश भी की और रिहाई का लेटर लेकर जब वह अंडमान पहुंचे, तभी उन्हें एक जनाज़े की भीड़ दिखाई पड़ी. पूछने पर पता चला कि यह जनाज़ा तो उनके पिता अल्लामा फज़ले हक खैराबादी का है.

1857 की क्रांति में अल्लामा बड़ी निडरता और साहस के साथ लड़े और 1861 को इस दुनिया को छोड़कर चले गए.






