
*بِسْمِ اللٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیْمِ*
ह़ुज़ूर नबिय्ये अकरम ﷺ ने फ़रमाया:
“जब तुम में से किसी का ख़ादिम उस का खाना ले कर आए और वोह उसे अपने साथ खाने में शरीक करने के लिये बिठा भी न सके तो एक लुक़्मा या दो लुक़्मे या एक निवाला या दो निवाले ही दे दे क्यूँकि उस ने भी तो इस (खाने) को तय्यार करने के लिये ज़ह़मत उठाई है।”
[बुख़ारी, अस़्स़ह़ीह़, रक़म: 2418]
ह़ुज़ूर नबिय्ये अकरम ﷺ ने सरमाया दारों को हिदयात फ़रमाई है कि वोह अपने मुलाज़िमों, मज़दूरों और मा तॅह़तों को अपनी औलाद की त़रह़ समझें, उन को वोही शफ़क़तो मह़ब्बत दें जो अपनी औलाद को देते हैं और उन की इ़ज़्ज़तो तकरीम का ख़याल रखें आप ﷺ ने फ़रमाया:
“उन की ऐसी इ़ज़्ज़त अफ़्ज़ाई करो जैसी अपनी औलाद की करते हो और उन्हें वोही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो।”
[इब्ने माजह, अस्सुनन, रक़म: 3691]
मज़दूर को इ़ज़्ज़त देते हुवे सब से पॅहले उसे कहा गया हौ कि वोह अपने काम में महारत ह़ास़िल करे ताकि अपने फ़र्ज़ के साथ पूरा-पूरा इन्स़ाफ़ कर सके। ह़ुज़ूर नबिय्ये अकरम ﷺ ने फ़रमान है:
“यक़ीनन अल्लाह तआ़ला येह पसन्द फ़रमाता है कि तुम से कोई जब किसी काम (पेशे) को अपनाए तो उस में पूरी महारत ह़ास़िल करे।”
[अबू या’ला, अल मुस्नद, रक़म: 4386]