
पागलपंथी तहरीक कानपुर से शुरू हुई थी। साधुओं और मलंगों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से लोहा लिया था।
गली-कूचों में हर बात पर लोग कहते मिल जाते हैं कि यह क्या पांगलपंथी है। पागलपंथी शब्द की शुरुआत कहां से हुई? दरअसल यह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ रणबांकुरों का जुनूनी आंदोलन था, जिसे उस दौर में पागलपंथी कहा गया। पागलपंथी तहरीक कानपुर के मकनपुर से शुरू हुई थी। बात वर्ष 1763 की है। हजरत सैयद बदीउद्दीन अहमद जिंदा शाह मदार की परंपरा के सूफी संत हजरत मजनूं शाह मलंग मदारी एक बार पश्चिम बंगाल गए। वहां उन्होंने देखा कि अंग्रेज बड़े पैमाने पर गोदाम बना रहे हैं। उन्हें बताया गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी अपने उत्पाद इन गोदामों में रखेगी। मजनूं शाह ने गोपनीय तरीके से पता किया, तो भनक लगी कि अंग्रेज बड़े पैमाने पर गोदामों में हथियार जमा कर रहे हैं। इस पर परेशान मजनूं शाह ने रजवाड़ों से संपर्क किया। वह राजाओं को इस बारे में बताते रहे कि अंग्रेज धोखा दे रहे हैं। वे सामान के नाम पर हथियार जमा कर रहे हैं और देश पर कब्जा करना चाहते हैं। पर रजवाड़ों ने इसे फकीर की सनक समझा। मजनूं शाह एक छोटे रजवाड़े की रानी भवानी से भी मिले। रानी ने उनकी बात सुनी, पर उनके पास अंग्रेजों से मुकाबला करने लायक फौज न थी। रजा शास्त्री
तब मजनूं शाह शैव साधुओं के पास गए। सारी बात सुन साधु अंग्रेजों से लड़ने को तैयार हो गए। मलंगों और शैव साधुओं का सरफरोश जत्था बना हथियार के नाम पर साधुओं के पास त्रिशूल थे और मलंगों के पास चिमटे। इन्हीं के बूते देश बचाने के लिए उन्होंने जंग का एलान कर दिया।
सरफरोश जत्था दिन में इबादत करता व सोता और रात में अंग्रेजी फौज पर हमला कर देता। इससे अंग्रेज और उनके चाटुकार घबरा गए। उन्होंने आजादी के उस अभियान को पागलपंथी कहा।
बड़ी संख्या में साधुओं व मलंगों ने उस लड़ाई में शहादत दी। बाद में सारे रिकॉर्ड नष्ट कर दिए। पर मकनपुर की किंवदंतियों और मदारिया सिलसिले के छिटपुट रिकॉडों में यह दास्तान जिंदा है।
जंग की शबखून रणनीति तैयार की गई। इसके तहत संत और मलंग दिन में इबादत करते और सोते, पर रात होने पर अंग्रेजी फौज की टुकड़ियों पर हमला कर देते। सरफरोशों का यह जुनून देख अंग्रेज और उनके चाटुकार घबरा गए। उन्होंने आजादी के उस अभियान को पागलपंथी कहा। पर इस पागलपंथी से अंग्रेजों की हालत बिगड़ने लगी। धीरे-धीरे यह अभियान पश्चिम बंगाल से बिहार और उत्तर प्रदेश में फैल गया। तभी बिहार में धोखे से अंग्रेजों ने मजनूं शाह पर हमला कर दिया, जिसमें वह बुरी तरह जख्मी हो गए। मजनूं शाह की वसीयत थी कि उन्हें मकनपुर में दफनाया जाए। घायल अवस्था में लोग उन्हें किसी तरह घोड़े पर लेकर मकनपुर आए, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। उस अभियान के दौरान बड़ी संख्या में साधुओं और मलंगों ने शहादत दी। बाद में सारे रिकॉर्ड नष्ट कर दिए। लेकिन मकनपुर की किंवदंतियों और मदारिया परंपरा के छिटपुट रिकॉडों में यह दास्तान आज भी जिंदा है।