
मलिकुल-अफजल नूरुद्दीन –
– सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी का बड़ा बेटा वली-ए-अहद शहज़ादा मलिकुल-अफ़ज़ल नूरुद्दीन भी सुलतानी सिपाह का एक अहम रुकन था।
तारीख में आता है कि सुलतान के 17 बेटे उनके शाना बशाना मैदान-ए-जिहाद में मौजूद होते थे। मलिकुल-अफ़ज़ल उन सबमें बड़े और सुलतान के नूर-ए-नज़र और काबल-ए-एतिमाद जरनेल थे।
जिन दिनों सलाहुद्दीन अय्यूबी ने बुकास का मुहासिरा किया हुआ ने था मलिकुल-अफ़ज़ल शिमाली साहिल के अहमतरीन किले बुरजिया
में जंग में मसरूफ़ थे। शाहे बुरज़िया, शाहे अनताकिया बोहमन्द का हम जुल्फ़ था। अन्ताकिया की मलिका और बुरज़िया की मलिका दोनों सगी बहनें थीं। अरबों के हमले के डर से बुरज़िया की हिफ़ाज़त का खास इन्तिज़ाम किया गया था।
बुरज़िया भी सहयून की तरह पहाड़ की बुलन्दी पर तामीर हुआ था। एक रिवायत के मुताबिक़ उसकी बुलन्दी 575 हाथ थी और अमूदी चट्टान की तरह जमीन की छाती में गिरा हुआ था। बुरज़िया और हिसने रिफ़ामिया के दरमियान एक गहरी झील थी। दरिया-ए-आस और इर्द-गिर्द के नदी-नाले और चश्मे इसी झील में गिरते थे।
इब्ने असीर के मुताबिक़ बुरज़िया के लोग इस्लाम दुश्मनी में दूर दूर तक मशहूर थे। वे क़िले से निकलकर शाम के इस्लामी इलाकों में घुस जाते, बस्तियों को ताख़्त व ताराज करते, घरों को लूटते और आग के हवाले कर देते। मर्दो, औरतों और बच्चों का बेदरीग कत्ले आम करते और कभी-कभी उन्हें जन्जीरों में जकड़ कर ले जाते थे। मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान या तो अहले बुरज़िया ने पहुंचाया या फ़िर जुनूबो साहिल पर रेजनाल्ड वाली-ए-कर्क ने, जिसे सुलतान अपने हाथ से क़त्ल कर चुके थे।
जूही मलिकुल-अफ़ज़ल अपने वालिद से मिलने के लिए शिमाली साहिल की तरफ़ बढ़े, लोगों ने बुरज़िया की तरफ़ शहज़ादे को मुतवज्जह किया। सुलतान के जवान मर्द बेटे ने इस किले का मुहासिरा कर लिया जो इन्तिहाई मुश्किल नज़र आता था। –
सुलतान को बुकास में बुरजिया के मुहासिरे की इत्तिला मिली। वह बुकास की फ़तह के बाद फ़ौरन छावनी उठाकर बुरजिया की
– तरफ रवाना हुए और इन्तिहाई तेज़ पेशक़दमी करके शहज़ादे मलिकुल अफ़ज़ल के लशकर के साथ मिल गए। फ़ौज को तीन हिस्सों में तशकील दिया। बुरज़िया पर हमला कर दिया और बिलआख़िर जान तोड़ हमलों और पित्ते-पानी कर देने वाली यलगार ने ईसाइयों को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया। 22 जुमादा उल सानी, 584 हिजरी को बुरज़िया फ़तह हो गया। शहज़ादा मलिकुल-अफ़ज़ल की बुलन्द हिम्मती और हौसलों की बदौलत सुलतान को यह कामयाबी मिली। बुरज़िया की फ़तह 1188 ई. के जिहाद की सबसे बड़ी कामयाबी थी जिसने शाह-ए-अनताकिया को भी खौफ़ज़दा कर दिया।
वली-ए-अहद मलिकुल-अफ़ज़ल सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी के होनहार फ़रज़न्द, आलमे इस्लाम का वह कीमती हीरा जो सलाहुद्दीन अय्यूबी के ख़ज़ाने में जगमगाता नज़र आता है। ऐसे ही हीरों की मौजूदगी में सुलतान आलम-ए-इस्लाम का हीरो बनकर उभरता है और तारीख़-ए-इस्लाम में रहती दुनिया तक के लिए ज़िन्दा व जावेद हो जाता है। –
अक्का के साहिल पर जब यूरोप से सलीबी रजाकारों के काफ़िले जमा हो रहे थे तो सुलतान बड़े फ़िक्रमन्द थे। दुश्मन की तादाद बढ़ती जा रही थी। ऐसे में सुलतान ने मुसलमानों की धाक बिठाने और दुश्मन को मरऊब (खौफ़ज़दा) करने के लिए हमला करने का सोचा। उन्होंने फ़ौज को दो हिस्सों में तक़सीम किया। एक की क़ियादत मलिकुल-अफ़ज़ल कर रहा था। सबसे पहले मलिकुल-अफ़ज़ल अपने लशकर को लेकर दुश्मन पर टूट पड़ा और देर तक मैदाने कारजार (जंग का मैदान) गरम रहा। सलीबी बहादुरों ने भी खूब दादे शुजाअत दी। मालुम होता था वे सीसा पिलाई हुई दीवार बन गए हैं और अरबों को शहर की तरफ़ जाने का रास्ता नहीं देंगे।
शहज़ादा मलिकुल-अफ़ज़ल ने उस रोज़ गैर मामूली बहादुरी दिखाई और सलीबी लशकरों को रोका जो आगे बढ़कर इस्लामी छावनी को तबाह कर देना चाहते थे। फिर मलिकुल-अफ़ज़ल ने दिफ़ाई हैसियत को छोड़कर अपने बहादुरों को हमले का हुक्म दिया। यह हमला इस क़दर शदीद था कि दुशमन के छक्के छूट गए। दुशमन हज़ारों लोशें छोड़कर मैदान से फरार हो गया। मलिकुल-अफ़ज़ल एक कामयाब सिपहसालार था जो सुलतान की फ़ौजों को कामयाबी से लड़ाता। यही वजह थी कि सुलतान अपने बेटों पर बेइन्तिहा भरोसा करते थे और फ़ख़र भी। यही वजह है कि आज भी सुलतान के साथ उनका नाम ज़िन्दा है।