
सुलतान टीपू के कारनामे
जंग और सुलह
सुलतान टीपू अपने बाप हैदर अली की मृत्यु के बाद मैसूर का बादशह बना तो उस वक्त सुलतान के सबसे बड़े दुश्मन अंग्रेज़ थे। लेकिन जब सुलतान ने उन्हें लगातार शिकस्तें दी तो अंग्रेजों को मालूम हुआ कि टीपू अपने बाप हैदर अली से भी ज़्यादा बहादुर, जंगजू और माहिर (कुशल) सिपहसालार है और वे जंग के मैदान में टीपू पर कभी फ़तह हासिल नहीं कर सकते। टीपू को सिर्फ चालाकी व मक्कारी और फ़रेब से ही हराया जा सकता था। चुनांचे उन्होंने चालबाज़ी से काम लेते हुए अपने एलचियों के हाथों बहुत-से कीमती तोहफ़ों के साथ सुलह की दरख्वास्त भेजी। व l
सुलतान टीपू ने अंग्रेज़ वफ़्द (नुमाइन्दों की जमाअत) से चन्द शर्तो पर सुलह का समझौता कर लिया और वफ़्द में शामिल एलचियों को इनाम व इकराम से नवाजा। इस सुलह के बाद सुलतान को अंग्रेजों की तरफ़ से फौरी तौरपर कोई ख़तरा न रहा। उसने एलचियों को बड़ी इज्जत से रुखसत किया और इत्मीनान से दूसरे दुश्मनों से निमटने का सोचने लगा। अंग्रेजों से सुलह की शर्ते यह थी कि अंग्रेज़ सुलतान के कैदियों को रिहा कर देंगे और सुलतान के इलाके भी वापस कर देंगे जबकि सुलतान भी उनके इलाके वापस कर देगा और उनके कैदी भी रिहा कर देगा।
अगरचे अंग्रेजों ने सुलतान टीपू के साथ सुलह कर ली थी लेकिन अन्दर से अब भी वे सुलतान के दुश्मन थे। अंग्रेजों के अलावा मरहटे भी सुलतान के दुश्मन थे। सुलतान का तीसरा दुश्मन हैदराबाद का हुकुमरान निजामुल-मुल्क था। ये तीनों हैदर अली के भी दुश्मन थे। मगर उनमें खुल कर सुलतान टीपू से लड़ने की हिम्मत न थी। चुनांचे अंग्रेज़ों ने मरहटों और निज़ाम हैदराबाद को उकस.या कि वे टीपू का बन्दोबस्त करें और उससे मैसूर का इलाका छीन लें वरना टीपू उनके इलाकों पर कब्जा कर लेगा।
मरहटों को टीपू के पिता हैदर अली ने जो शर्मनाक शिकस्तें दी थीं, उनका बदला लेने के लिए मरहटे पहले ही इन्तिकाम की आग में जल रहे थे। चुनांचे मरहटों ने निज़ाम हैदराबाद से मिलकर मैसूर पर हमला करने की योजना बनाई। उनका ख़याल था कि वह मैसूर को फ़तह करके टीपू को मार भगाएंगे और मैसूर का इलाका आपस में बांट लेंगे। अंग्रेजों ने भी मरहटों और निज़ाम को अपनी तरफ़ से मदद देने का यकीन दिलाया था।
मैसूर पर हमला
रियासत मैसूर की सरहद पर सुलतान का एक किला था। उस सरहदी किले का नाम बादामी था। मरहटों और निज़ाम हैदराबाद की फौजों ने मिल कर उस सरहदी किले पर हमला किया और किला का मुहासिरा करके उसपर गोलाबारी शुरू कर दी। निज़ाम हैदराबाद की फौज में चालीस हज़ार सवार, पचास हज़ार पैदल और बेशुमार गोला बारूद था, जबकि मरहटों की फ़ौज में अस्सी हज़ार सवार, चालीस हज़ार पैदल, पचास तोपें और बहुत-सा दूसरा जंगी सामान था। किला वालों ने नौ महीने तक दुश्मन का मुकाबला किया। लेकिन उनकी तादाद कम थी जबकि हमला करने वालों की कुल तादाद दो लाख के करीब थी। इतनी ज़्यादा फ़ौज का किला वाले आखिर कब तक मुकाबला करते। नौ महीने के लम्बे मुहासिरे से तंग आकर किला के वालों ने हथियार डाल दिए और दुश्मन फ़ौजों ने किला पर कब्जा करके उसे अपनी छावनी बना लिया।
दुश्मन ने किला बादामी से अपनी फ़ौजों को मैसूर के दूसरे इलाकों पर चढ़ाई करने के लिए भेजा तो मैसूर के कई किलादारों ने टीपू से गद्दारी की और दुश्मन का मुकाबला करने की बजाए उनसे भारी रिश्वत व इनामात लेकर किले उनके हवाले कर दिए। इस थोड़े ही दिनों में सुलतान टीपू के बहुत सारे इलाकों पर दुश्मन फौजों ने कब्जा कर लिया। सुलतान टीपू को जंग का हाल और किलादारों की गद्दारी के बारे में पता चला तो वह ग़ज़बनाक हो गया, उसने अपनी फौज को तैयार किया और मार-धाड़ करता हुआ निज़ाम के एक इलाके की तरफ बढ़ने लगा। उस किले का हाकिम या किलादार निज़ाम हैदराबाद का दामाद था।
की सरकूबी की और उन्हें लगातार शिकस्तें देता हुआ दरिया-ए-तंग भद्रा तक पहुंचा। मरहटे पीछे हटते हुए दरिया के पार चले गए, लेकिन सुलतान ने उनका पीछा न छोड़ा और दरिया के पार पहुंच गया। वहां मरहटों के साथ जबरदस्त जंग हुई। आखिरकार मरहटों को शिकस्त हुई और वे मैदान छोड़ कर भाग गए। सुलतान टीपू ने उन्हें संभलने का मौका न दिया और शाहनूर पर हमला कर दिया।
मरहटों ने यहां भी सुलतान की फ़ौज का मुकाबला करने की कोशिश की, लेकिन वे सुलतान की फ़ौज के सामने न ठहर सके। सुलतान टीपू ने उन्हें हरा कर शाहनूर पर कब्जा कर लिया।
फैसलाकुन जंग
सुलतान टीपू ने मरहटों से छोटी-छोटी जंगों के बाद एक फैसलाकुन जंग लड़ने का इरादा करके मरहटों को पैगाम भेजा कि “हार-जीत का एक ही बार फैसला हो जाए तो ज्यादा बेहतर है। चुनांचे छोटी-छोटी जंगों के बजाए एक जगह खुलकर लड़ाई की जाए।” मरहटों ने काफी सोचने के बाद सुलतान से बड़ी जंग लड़ने का फैसला किया और एक दिन दोनों फ़ौजें मैदान में आ गई। पहले दोनों फ़ौजों से एक-एक दस्ता मैदान में आकर मुकाबला करता रहा। सुलतान का पल्ला भारी रहा और मरहटों को काफी नुकसान पहुंचा।
मरहटों को डर हुआ कि इसी तरह मुकाबला होता रहा तो उनकी सारी फ़ौज मारी जाएगी। चुनांचे उन्होंने मुकाबले की शर्त की ख़िलाफ़वर्जी करते हुए पूरे लश्कर के साथ सुलतान की फौज पर हमला कर दिया। सुलतान की फौज ने फौरन ही मरहटों पर गोलाबारी शुरू कर दी और बहादुर सिपाही तलवारबाजी के कमाल दिखाने लगे। सुलतान के इस
अचानक हमले से मरहटे बौखला गए और मैदान से भाग गए। इस तरह सुलतान टीपू ने दुश्मन पर जीत हासिल की।
मरहटों ने इस हार से घबराकर सुलतान टीपू से सुलह की दरख्वास्त की और सुलतान ने इस शर्त पर उनसे सुलह कर ली कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के कैदियों को आजाद करके फ़तह किए गए इलाके भी वापस कर देंगे। फिर दोनों पक्षों ने सुलह की शर्त पर अमल किया। यह सुलह भी सुलतान टीपू की बहुत बड़ी जीत थी।
निजाम की गलती
सुलतान टीपू दिल से चाहता था कि निज़ाम हैदराबाद से भाई-चारे के सम्बंध बनें और दोनों मुसलमान रियासतें मिलकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ डट जाएं, जो हिन्दुस्तान पर कब्जा करके अपनी हुकूमत कायम करने और हिन्दुस्तान के निवासियों को गुलाम बनाने की नीयत रखते थे। अगरचे निजाम ने मरहटों के साथ मिलकर मैसूर पर हमला किया था लेकिन फिर भी सुलतान टीपू निज़ाम हैदराबाद की यह गलती माफ़ करके उसके साथ सुलह व अमन से रहना चाहता था। चुनांचे मरहटों से सुलह करने के बाद उसने एक दूत को पैगाम देकर निज़ाम हैदराबाद के पास भेजा। दूत ने निज़ाम के दरबार में पहुंच कर उसे सुलतान टीपू की तरफ से भेजे गए बहुत से तोहफे पेश किए और सुलतान का संदेश जबानी बयान किया। सुलतान ने अपने पैगाम में कहा,
“जनाब-ए-आली! अंग्रेज़ सिर्फ हमारा ही नहीं आपका भी दुश्मन है। वे पूरे हिन्दुस्तान को गुलाम बनाना चाहते हैं और हमें एक दूसरे के साथ लड़वा कर और हमारी आपस की नाइत्तिफ़ाक़ी से फायदा उठाकर हिन्दुस्तान पर आहिस्ता-आहिस्ता कब्ज़ा करते –
जा रहे हैं। मैसूर और हैदराबाद की सलतनत को बचाने के लिए यही बेहतर है कि हम आपस में सुलह करके इत्तिफ़ाक व मुहब्बत से रहें, अपने-अपने इलाके की तरक्की और सुरक्षा पर ध्यान दें और वादा करें कि आइन्दा हम एक-दूसरे पर हरगिज़ हमला नहीं करेंगे।”
सुलतान टीपू ने अपने अमन व मुहब्बत के पैगाम पर अमल करने का तरीका भी निज़ाम पर स्पष्ट कर दिया। सुलतान ने कहा,
“प्यार व मुहब्बत और अमन व सलामती से रहने का सबसे बेहतरीन तरीका यह है कि आपस में करीबी तअल्लुकात और रिश्तेदारियां कायम की जाएं। यानी हमारे घराने की लड़कियां आपके ख़ानदान में और आपके घराने की लड़कियां हमारे खानदान में में ब्याही जाएं। इस तरह जब हमारी आपस में रिश्तेदारियां कायम हो जाएंगी तो हमारे बीच लड़ाई-झगड़े के इमकानात न रहेंगे और हम रिश्तों का लिहाज़ करने और उन्हें बरकरार रखने पर मजबूर होंगे।”
पहले तो निज़ाम हैदराबाद को सुलतान का यह प्रस्ताव पसन्द आया और उसने इसपर खुशी का इज़हार किया, लेकिन बाद में बिगड़ , गया। क्योंकि उसके वज़ीरों, सलाहकारों और ख़ानदान की औरतों ने सुलतान टीपू के प्रस्ताव का सख़्त विरोध करते हुए निज़ाम को भड़काया कि “हमारी लड़कियां टीपू के ख़ानदान में ब्याही जाएं तो यह हमारे ऊंचे ख़ानदान की बेइज्जती होगी, टीपू नीच जात का है, इस लिए उससे रिश्तेदारी कायम नहीं की जा सकती।” उन लोगों के भड़काने पर निज़ाम को टीपू पर गुस्सा आ गया और उसने टीपू के प्रस्ताव को > ठुकरा दिया।
बाद के हालात ने साबित कर दिया कि निज़ाम ने सुलतान टीपू के प्रस्ताव को न मान कर जबरदस्त गलती की थी। क्योंकि अगर वह सुलतान की सुलह की पेशकश स्वीकार कर लेता तो उन दोनों की ताकत हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के कदम न जमने देती।
कोचीन पर कब्जा
अंग्रेजों ने सुलतान से सुलह के वक्त एक-दूसरे से जंग न करने – का समझौता किया था। लेकिन अंग्रेजों ने मजबूरी में सुलह का समझौता किया था और वे किसी ऐसे बहाने की तलाश में थे कि मैसूर पर वे हमला कर सकें। अंग्रेज़ वादा ख़िलाफ़ थे और उन्हें सुलहनामे की कोई परवाह न थी। फिर मैसूर के इलाके मालाबार में बगावत हो गई। सुलतान ने फ़ौरन बागियों पर हमला करके बग़ावत पर काबू पा लिया। उसे पता चला कि मालाबार की बगावत असल में पड़ोसी रियासत कोचीन और त्रावणकोर के राजा की शरअंगेज़ी थी, तो उसने गुस्से में आकर कोचीन पर हमला कर दिया और उसपर कब्जा करके त्रावणकोर के राजा को सजा देने के लिए बढ़ा। राजा ने घबराकर अंग्रेजों से मदद मांगी। अंग्रेजों ने सुलह के समझौते की ख़िलाफ़वर्जी करते हुए सुलतान टीपू पर हमला कर दिया।
सुलतान टीपू को अंग्रेजों के समझौता तोड़ने पर बेहद गुस्सा आया और उसने डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया। इस जंग में अंग्रेज़ों को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा और अंग्रेज़ फ़ौज बदहवास होकर मद्रास की तरफ भाग गई।