
वह अज़ीम मुजाहिदे इस्लाम जिसने गुलामी की ज़िन्दगी पर शहादत की मौत को गवारा किया और साबित कर दिया कि गीदड़ की सौ साल की जिन्दगी से शेर की एक दिन की ज़िन्दगी बेहतर है
टीपू का ख़ानदान
टीपू के पूर्वज कुरैशी नस्ल के अरब थे। उनके ख़ानदान के लोग शेख वली मुहम्मद मक्का से रोजी-रोटी की तलाश में पहले बग़दाद और फिर हिन्दुस्तान आए। दिल्ली में आकर उन्होंने गुलबर्गा की शोहरत सुनी जहां हज़रत शाह नवाज़ (रह०) का मज़ार था। वह दिल्ली से गुलबर्गा आए और यहां उनके एक बेटे शेख मुहम्मद अली की शादी मज़ार के मुतवल्ली (देख-रेख करने वाला) की बेटी से हुई।
शेख मुहम्मद अली गुलबर्गा से बीजापुर चले गए। उनके चार बेटे थे। उनमें शख़ फ़तेह मुहम्मद सबसे छोटे थे। शेख़ फ़तेह मुहम्मद की बीवी का नाम मजीदा बेगम था, जबकि दो बेटे शहबाज़ और वली मुहम्मद थे। बड़ा शहबाज़ था और छोटा वली मुहम्मद, तीसरे बेटे की पैदाइश से पहले फ़तेह मुहम्मद ने अपनी बीवी मजीदा बेगम को उस जमाने के एक मशहूर बुजुर्ग के पास भेजा कि वह बच्चे के लिए दुआ करें। बुजुर्ग ने दुआ की और यह खुशखबरी भी सुनाई कि जो बेटा पैदा होगा वह तारीख़ में बहुत शोहरत और मरतबा पाएगा और उसका नाम हैदर अली रखा जाए। चुनांचे शेख फ़तेह मुहम्मद ने बच्चे की पैदाईश पर उसका नाम हैदर अली रखा। फिर शेख फ़तेह मुहम्मद
गुलबर्गा के सूबेदार आबिद ख़ान की फ़ौज में मुलाज़िम हो गए। उन्होंने हैदर अली की तरबियत के दौरान तरक्की की और अपनी बहादुरी और जंगी महारत के ऐसे जोहर दिखाए कि जल्द ही फ़ौज में अहम पद हासिल कर लिया।
1137 ई० में एक जंग के दौरान फ़तेह मुहम्मद शहीद हो गए। उस वक्त हैदर अली सिर्फ पांच साल के थे। हैदर अली पिता की मौत के बाद अपने बड़े भाई शहबाज़ के साथ मैसूर चले आए जहां उनके चचा का लड़का राजा की फौज में मुलाज़िम था। उसने दोनों भाइयों की देख-भाल की और उन्हें फौजी तरबियत दी। जब हैदर अली 17 साल की उम्र को पहुंचे तो चचा के लड़के ने उन्हें मैसूर के राजा की फ़ौज में भरती करा दिया। राजा और ख़ास तौरपर वहां के वज़ीरे आजम नन्दराज ने हैदर अली की काबिलियत और सलाहियतें देखकर उन्हें शुरू में पचास सवारों का अफ़सर नियुक्त कर दिया। फिर जब हैदर अली 19 साल के हुए तो नन्दराज ने उनकी शादी करा दी।
हैदर अली ने दो सालों में अपनी जंगी कामयाबियों की बदौलत काफ़ी तरक्की की, लेकिन उनकी बीवी को शादी के कुछ समय बाद लकवा (फ़ालिज) हो गया और उससे कोई औलाद न हो सकी। तब हैदर अली ने दूसरी शादी गर्मकुण्डा के किलेदार की बहन फ़ातिमा बेगम से की। यही हैदर अली, सुलतान टीपू के वालिद थे और फ़ातिमा बेगम टीपू की मां थीं।
टीपू की पैदाईश
दो-तीन साल गुज़र गए और फ़ातिमा बेगम से कोई औलाद न सुलतान टीपू शहीद
हुई। उन दिनों दक्कन में एक बुजुर्ग हज़रत टीपू मुस्तान वली (रह० ) बहुत मशहूर थे। लोग दूर-दूर से उनकी ख़िदमत में हाज़िर होते और अपने लिए दुआ कराते थे। चुनांचे हैदर अली भी उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे औलाद के लिए दुआ की दरख्वास्त की। हज़रत टीपू मुस्तान वली (रह०) ने दुआ की और यह खुशखबरी भी दी कि जल्द ही उनके घर बेटा पैदा होगा जिसका नाम तारीख में हमेशा जिन्दा रहेगा।
बुजुर्ग की दुआ कबूल हुई और 10 नवम्बर 1749 या 1750 ई० को हैदर अली के घर में एक चांद-सा बेटा पैदा हुआ। बेटे की पैदाइश पर हैदर अली ने खुदा का शुक्र अदा किया और ख़ज़ाने का मुंह खोल दिया। बहुत खैरात की, सदका दिया और चालीस दिन तक खूब जश्न मनाया। चूंकि यह बेटा बुजुर्ग हज़रत टीपू मुस्तान (रह०) की दुआ से पैदा से पैदा हुआ था, इस लिए हैदर अली ने बेटे का नाम फ़तेह अली टीपू रखा। टीपू ऐसा खुशनसीब था कि हैदर अली के दिन फिर गए और वह तेज़ी से तरक्की हासिल करता गया। वह जिस मुहिम पर भी गया, वहां से जीत हासिल करके लोटा। सफ़लताएं उसके कदम चूमती रहीं। नन्दराज ने उसे फ़ौज देकर डंडेकल भेजा जहां बगावत हो गई थी। हैदर अली ने अपनी जहानत और बहादुरी से बागियों को कुचल कर बगावत पर काबू पाया और राजा ने खुश हो कर उसे डंडेकल का गर्वनर नियुक्त कर दिया ताकि वह उस इलाके के बिगड़े हुए हालात ठीक करे। > >
टीपू की तरबियत
फ़तेह अली टीपू भी अपने बाप के साथ वहां परवरिश पाता रहा। हैदर अली ने डंडेकल का इन्तिज़ाम दुरुस्त किया और मैसूर के
राजा ने खुश होकर उसके मरतबा में इज़ाफ़ा कर दिया। हैदर अली इस मुहिम से फ़ारिग होकर मैसूर की राजधानी श्रीरंगापटनम वापस आ गया। 1754 ई० में मरहटों ने मैसूर पर हमला कर दिया। मैसूर का राजा कमज़ोर था। उसने पहले तो मरहटों को तावाने जंग (हरजाना) अदा करने का वादा करके सुलह कर ली और कुछ इलाके मरहटों के पास रहन रख दिए। इस तरह जंग का ख़तरा टल गया। लेकिन 1755 ई० में मरहटों के सरदार गोपालराव ने दोबारा मैसूर के राजा से एक करोड़ रूपये की मांग कर दी तो राजा ने उनसे मुकाबला करने का फैसला किया और हैदर अली को फ़ौज का सिपहसालार बनाकर मरहटों के साथ जंग के लिए भेज दिया।
हैदर अली ने इस जंग में मरहटों को इबरतनाक शिकस्त दी और मरहटों का सरदार गोपालराव जान बचाकर भाग गया। इस जीत की खुशी में राजा और वज़ीरे आजम ने हैदर अली को मैसूर की तमाम फौजों का सिपहसालार नियुक्त कर दिया।
टीपू की उम्र पांच साल हुई तो उसकी तालीम व तरबियत का सिलसिला शुरू हो गया। उसे पढ़ाने के लिए उस दौर के बेहतरीन उस्ताद नियुक्त किए गए। यह आलिम फ़ाज़िल उस्ताद टीपू को दूसरे उलूम के अलावा ज़बानें यानी अंग्रेजी, फ्रांसीसी, अरबी और फारसी सिखाते थे। अगरचे हैदर अली खुद अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी नहीं जानता था लेकिन उसने टीपू को यह गैर-मुल्की ज़बानें इस लिए सिखाई कि वह अंग्रेजों और फ्रांसीसियों से आसानी के साथ बातचीत कर सके। –
टीपू के दादा शेख़ फ़तेह मुहम्मद एक सिपाही थे और उन्होंने मैदान-ए-जंग में बेहतरीन कारनामे अन्जाम दिए थे। इसी तरह टीपू के वालिद हैदर अली भी निहायत जंगजू और फुनूने जंग में माहिर थे।
उन्होंने अपनी बहादुरी और हिम्मत व मर्दानगी से हर मुहिम में सफलता में हासिल की और मरहटों को शर्मनाक शिकस्त देकर खुद को एक बेहतरीन सिपहसालार साबित किया। टीपू की रगों में इन्ही बाप-दादा का खून दौड़ रहा था। लिहाज़ा कुदरती तौरपर उसका मैलान जंगी तालीम व तरबियत की तरफ़ रहा। हैदर अली ने भी उसे जंगजू और पुरजोश सिपाही बनाने के लिए घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी, तलवारबाज़ी और नेज़ाबाज़ी के अलावा जंग के दूसरे दावपेच भी सिखाए।
टीपू 15 साल की उम्र में तमाम उलूम व फुनून और जंगी तरबियत हासिल कर चुका था। चुनांचे वह हैदर अली के साथ मुख़्तलिफ़ जंगों में हिस्सा लेने और जंग के मैदान में कारनामे अंजाम देने लगा।
हैदर अली पर मुसीबत
टीपू अभी 11 साल का था कि उसके पिता हैदर अली पर एक मुसीबत आ पड़ी। हुआ यह कि मैसूर की फ़ौज के सिपहसालार की हैसियत से हैदर अली ने मैसूर के दुश्मनों यानी मरहटों को दोबारा इबरतनाक शिकस्त देकर उनके कब्ज़ा से मैसूर के न सिर्फ वे इलाके आज़ाद करा लिए थे जिनपर मरहटों ने. चन्द साल पहले कब्जा कर लिया था बल्कि उनके कुछ इलाके भी छीन कर मैसूर की सलतनत में शामिल कर लिए थे। उसके इन कारनामों के सबब मैसूर के आम लोग उसे राजा से ज़्यादा पसन्द करते थे। हैदर अली आम लोगों में इतने मशहूर और मकबूल हुए कि राजा को अपनी हुकूमत ख़तरे में नज़र आने लगी। उसने सोचा कि हैदर अली इसी तरह जनता के दिलों में घर करता रहा तो किसी दिन वह तख्त पर कब्जा न कर ले। मैसूर की रानी भी हैदर अली को पसन्द नहीं करती थी। उन दोनों ने
हैदर अली के एक ख़ास आदमी या प्राइवेट सैक्रेट्री खण्डेराव को भरोसे में लेकर उसे प्रधान मंत्री बनाने का लालच देकर हैदर अली के ख़िलाफ़ एक साज़िश तैयार की। इस साज़िश के मुताबिक पहले तो उन्होंने हैदर अली को मजबूर किया कि वह नन्दराज को मंत्रालय से अलग कर दे, क्योंकि नन्दराज से भी उन्हें ख़तरा था। जब नन्दराज हैदर अली के कहने पर मंत्रालय से अलग हो गया तो उन्होंने हैदर अली को अपने रास्ते से हटाने की कोशिश शुरू कर दी।
1759 ई० में फ्रांसिसियों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हैदर अली से मदद की दरख्वास्त की और हैदर अली ने उनकी मदद के लिए अपनी फौजें पॉन्डीचैरी भेज दी जहां वाला जाह मुहम्मद अली ने अंग्रेजों की हिमायत से फ्रांसीसियों के तिजारती ठिकानों पर हमला कर दिया था। हैदर अली फ़ौज भेजने के बाद खुद मैसूर की राजधानी श्रीरंगापटनम में ही रहे। साज़िशियों को इसी मौके का इंतिज़ार था। चुनांचे खण्डेराव ने पूना के हाकिम और मरहटा सरदार माधवराव को खुफ़िया ख़त लिख कर श्रीरंगापटनम का मुहासिरा करने और हैदर अली को गिरफ्तार करने की दावत दी। मरहटे हैदर अली से अपनी हार का बदला लेने के लिए बेताब थे। चुनांचे उन्होंने मैसूर पर चढ़ाई की और श्रीरंगापटनम का मुहासिरा कर लिया।
हैदर अली को दुश्मनों की साजिश का पता चल गया। लेकिन उस वक्त उनकी फ़ौज बंगलोर में थी और दुश्मन का मुकाबला करने के लिए अपनी फ़ौज के पास पहुंचना ज़रूरी था। चुनांचे उन्होंने टीपू समेत अपने ख़ानदान वालों को महल में छोड़ा और चन्द बहादुर सिपाहियों के साथ वहां से निकल जाने का फैसला कर लिया। दुश्मनों ने श्रीरंगापटनम के तमाम रास्ते बन्द कर दिये थे। हैदर अली महल के
खुफ़िया रास्ते से निकले और दरिया-ए-कावेरी के किनारे पहुंच कर दरिया में कूद पड़े। दरिया में पानी का बहाव तेज़ था लेकिन हैदर अली ने परवाह न की और अल्लाह के भरोसे पर तैरने लगे।
टीपू महल में अपने भाई और मां के साथ दुश्मनों में घिरा हुआ था। डर था कि हैदर अली के भाग जाने के बाद दुश्मन उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेंगे। लेकिन हैदर अली ने उन्हें अल्लाह के भरोसे पर छोड़ा था। दुश्मन को हैदर अली के निकल जाने का पता चला तो वे बहुत पछताए। मरहटा फ़ौजें उनका पीछा करते हुए तेज़ी से बंगलौर पहुंची। लेकिन हैदर अली उनसे पहले वहां पहुंचकर अपनी फ़ौज की कमान संभाल चुके थे। चुनांचे जब मरहटा फ़ौज बंगलौर पहुंची तो हैदर अली ने उनपर ऐसा भरपूर हमला किया कि मरहटा फ़ौज में भगदड़ मच गई और उन्हें शर्मनाक हार हुई।
मरहटों के भाग जाने के बाद हैदर अली ने पॉन्डीचैरी में मौजूद अपनी फौजों को वापस बुला लिया और फिर सारी फ़ौज के साथ वापस आकर श्रीरंगापटनम का मुहासिरा कर लिया। राजा और रानी ने घबराकर सुलह की दरख्वास्त की और हैदर अली ने इस शर्तपर सुलह कर ली कि नमकहराम खण्डेराव को उसके हवाले किया जाए। चुनांचे खण्डेराव को हैदर अली के हवाले कर दिया गया और हैदर अली ने उसे लोहे के बहुत बड़े पिंजरे में कैद कर दिया। फिर हैदर अली ने यही मुनासिब समझा कि मैसूर का तख्त संभाल ले और रियासत की हिफ़ाज़त का इंतिज़ाम बेहतर बनाए। चुनांचे उसने राजा से मुतालबा किया कि वह हुकूमत हैदर अली के हवाले कर दे और खुद अलाहिदगी इख़्तियार कर ले। राजा बेबस था। हैदर अली का मुकाबला करने की उसमें ताकत नहीं थी। चुनांचे उसने हुकूमत हैदर अली के हवाले कर दी
$ हैदर अली 1761 ई० में तख्त पर बैठा और रियासत की बागडोर अपने हाथ में ले ली और मैसूर का नाम “सलतनते खुदादाद मैसूर” रखकर उसे इस्लामी रियासत बना दिया। फिर उन्होंने जनता की भलाई और बेहतरी के लिए बहुत ज्यादा काम किया और मुल्क की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत से मजबूततर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी।
मैसूर के दुश्मन
टीपू की उम्र सौलह-सत्रह साल हो चुकी थी। उस ज़माने में मैसूर के उत्तर की तरफ़ मरहटों और निज़ामे हैदराबाद के इलाके थे जबकि दक्षिण की तरफ़ अंग्रेज़ थे। उनके कब्जे में मद्रास का इलाका था। हैदर अली ने अपनी सलतनत की सीमाओं को बढ़ाना शुरू किया तो अंग्रेजों को ख़तरा महसूस हो गया। अंग्रेज़ हिन्दुस्तान पर कब्जा करने का इरादा रखते थे। उन्होंने सोचा कि अगर हैदर अली यूंही अपनी ताकत बढ़ाता रहा तो एक दिन मद्रास पर भी कब्जा कर लेगा। फिर हो सकता है कि उन्हें हिन्दुस्तान से भी निकाल दे।
मरहटे तो पहले ही मैसूर के दुश्मन थे और मैसूर को हड़प करके मरहटा सलतनत में शामिल करना चाहते थे। हैदर अली को वह अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझते थे जिसने उन्हें दो-तीन बार इबरतनाक शिकस्त दी थी। मैसूर का तीसरा दुश्मन निज़ाम हैदराबाद था।
हैदर अली हैदराबाद के निज़ाम से अच्छे सम्बंध कायम करने की इच्छा रखते थे। वह चाहते थे कि इस मुसलमान रियासत के साथ मिलकर गैर मुल्की दुश्मनों को हिन्दुस्तान की सीमाओं से निकाल दें। लेकिन अंग्रेज़ नहीं चाहते थे कि दोनों मुसलमान रियासतों में इत्तिहाद व इत्तिफ़ाक हो। चुनांचे उन्होंने हैदर अली को अपने इरादों के रास्तेकी सबसे बड़ी रुकावट समझते हुए उन्हें रास्ते से हटाने का फैसला किया और उनकी ताकत को पारा-पारा करने के लिए साजिशों में मसरूफ़ हो गए।
मैसूर पर हमला
अंग्रेजों ने साज़िश करके मरहटों और निज़ाम हैदराबाद को हैदर अली के ख़िलाफ़ जंग करने पर आमादा किया। फिर तीनों यानी निज़ाम हैदराबाद, मरहटों और अंग्रेजों ने मिलकर मैसूर पर हमला कर दिया। हैदर अली मैसूर के हुकुमरान ही नहीं फ़ौज के सिपहसालार भी थे। वह दुश्मनों की मुत्तहिदा ताकत से ज़रा भी खौफ़ज़दा न हुए। उनका बेटा फ़तेह अली टीपू भी बहुत बहादुर नौजवान था। चुनांचे हैदर अली और टीपू ने बड़े हौसले और हिम्मत के साथ दुश्मनों के हमले को रोका और उनका डटकर मुकाबला किया। दुश्मन को शर्मनाक हार हुई और वे मैदाने जंग से भागने पर मजबूर हो गया।
बहादुर टीपू
– इस जंग में नौजवान टीपू ने अंग्रेज़ों पर ताबड़-तोड़ हमले किए। अंग्रेज़ हार कर मद्रास की तरफ़ भागे जहां उनकी फ़ौजी छावनी थी। मैसूर की फ़ौजों ने उनका पीछा किया। दक्षिण अर्काट के इलाके में मैसूर की फ़ौज का मुकाबला अंग्रेज़ करनल जोज़फ़ स्मिथ की फौज से हुआ। वहां भी हैदर अली और उनके बहादुर बेटे टीपू ने अंग्रेजों को बुरी तरह हराया और अंग्रेज़ उनकी पेशकदमी रोकने में नाकाम रहे।
अंग्रेज़ मेजर जीराल्ड और कर्नल टाड ने हैदर अली की फौज का रास्ता रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन हैदर अली की फौज
ने अंग्रेजों की फौजों को काट कर रास्ता बनाया और आगे बढ़ती चली गई। रास्ते में तिरपतपूरा का किला था। उसमें अंग्रेज़ फ़ौज मौजूद थी। इस किले को जीते बगैर आगे बढ़ना हैदर अली के लिए खतरनाक था, क्योंकि यहां की फ़ौज पीछे से हैदर अली की फ़ौज पर हमला करके उन्हें नुकसान पहुंचा सकती थी। चुनांचे हैदर अली ने जबरदस्त जंग करके तिरपतपूरा का किला जीत लिया।
रास्ते में अंग्रेज़ फ़ौज कर्नल अम्बर के कियादत में हैदर अली का रास्ता रोकने आई मगर हैदर अली ने कर्नल अम्बर को ऐसी शिकस्त दी कि वह काफी समय तक किसी बड़ी जंग में हिस्सा न ले सका।
मालाबार के साहिली इलाके में हैदर अली का एक जरनेल लुत्फ़ अली बैग अंग्रेज़ फ़ौज का मुकाबला कर रहा था, लेकिन उसके पास हथियार और फ़ौज की कमी थी। उसने हैदर अली को मदद के लिए पैगाम भेजा। उस वक्त टीपू बंगलौर में अंग्रेजों से जंग कर रहा था जहां मेजर गार्डन और कैपटेन वाइन के नेतृत्व में अंग्रेज़ी फ़ौज ने कब्जा कर रखा था।
लुत्फ़ अली बैग का पैगाम मिलते ही हैदर अली ने तुरन्त टीपू को हुक्म भेज दिया कि वह लुत्फ़ अली बैग की मदद के लिए मालाबार पहुंचे। हैदर अली का हुक्म मिलते ही नौजवान टीपू अपनी फ़ौज के साथ मालाबार जा पहुंचा। वहां टीपू ने बड़ी बहादुरी से अंग्रेज़ फ़ौज को शिकस्त दी। दूसरी तरफ़ हैदर अली तूफ़ान की तरह बंगलौर के मैदाने जंग पर पहुंचे और मैजर गार्डन और कैपटेन वाइन को हरा कर बंगलौर से अंग्रेज़ फ़ौज को निकाल दिया।
इस शर्मनाक शिकस्त के बाद अंग्रेज़ों को यकीन हो गया कि अब वह हैदर अली को मद्रास पहुंचने से नहीं रोक सकेंगे।