हैदर अली पार्ट 1

हैदर अली

मशहूर बेटे टीपू सुलतान के मशहूर बाप मामूली सिपाही से सुलतान के मरतबे तक पहुंचने वाला मुसलमान

पैदाइश

गुलबर्गा हिन्दुस्तान के एक बड़े कस्बे में 1722 ई० में एक बच्चा पैदा हुआ। बच्चे के बाप ने उसकी किस्मत का हाल मालूम करने के लिए नुजूमियों से सलाह की। नुजूमियों ने बच्चे की पैदाईश का वक़्त मालूम किया तो इल्म-ए-नुजूम के मुताबिक उस वक़्त आफ़ताब (सूरज) बैतुल-शरफ़ में था। फिर नुजूमियों ने इस बच्चे की जन्म-कुण्डली निकाली और बताया,

– “यह बच्चा बहुत-ही खुश किस्मत और बुलन्द मरतबा वाला होगा। यह तख्त व ताज का मालिक होगा और रियासत का हुकुमरान बनेगा। लेकिन इसकी तकदीर में एक बात है कि जल्द ही इसके बाप का साया इसके सर से उठ जाएगा। “

नुजूमियों की इस पेशीनगोई का रिश्तेदारों को पता चला तो उन्होंने तय कर लिया कि बच्चे की ज़िन्दगी उसके बाप पर कुरबान कर दी जाए और बाप को बचाने के लिए बच्चे को हलाक कर दिया जाए।

बच्चे के रिश्तेदार अभी यह इरादे कर ही रहे थे कि बच्चे के बाप को उनके इरादों का पता चल गया। वह सख्त नाराज़ हुआ। उसने कहा,

“मैं इस बात पर राजी हूं कि इस बच्चे की नुहूसत मेरे सर पड़े और मैं इसका बाल भी बेका न होने दूंगा, क्योंकि अच्छा या हैदर अली

बुरा जो भी होता है, वह कुदरत की मर्जी के मुताबिक होता है। इस में किसी को भी दखलअंदाजी की इजाजत नहीं।”

यह बच्चा मुस्तकबिल (भविष्य) का जंगजू जरनेल, मैसूर की फौजों का सिपहसालार, अंग्रेजों का दुश्मन, मुसलमान हुकुमरान हैदर अली था।

हैदर अली का ख़ानदान

मशहूर इतिहासकार मीर हसन अली किरमानी की तहकीक के मुताबिक हैदर अली के पूर्वज (आबा व आजदाद) कुरैशी नस्ल के अरब थे। हैदर अली के जद्दे अमजद शेख वली मुहम्मद मक्का से मुन्तकिल होकर बगदाद पहुंचे तो वहां के हालात उनके लिए ठीक न थे। जब रोज़गार का मुनासिब इन्तिज़ाम न हुआ तो शेख वली मुहम्मद रोजगार की तलाश में बगदाद से दिल्ली आ गए। दिल्ली पहुंच कर उन्होंने गुलबर्गा की शोहरत सुनी जहां हज़रत शाह बन्दा-ए-नवाज़ (रहमतुल्लाह) का मजार था। चुनांचे वह दिल्ली से गुलबर्गा आ गए। यहां उनके बेटे मुहम्मद अली की शादी मज़ार के मुतवल्ली (देखभाल करने वाला) की बेटी से हो गई। शेख वली मुहम्मद की यहीं मौत हुई।

उनके बेटे मुहम्मद अली कुछ समय गुलबर्गा में रहे। फिर बीजापुर चले गए। शेख मुहम्मद अली के चार बेटे थे जिनके नाम मुहम्मद इलयास, मुहम्मद इमाम, अली मुहम्मद और फ़तेह मुहम्मद थे। शेख फ़तेह मुहम्मद अपने भाइयों में सबसे छोटे थे और यही फ़तेह मुहम्मद ही हैदर अली के बाप थे। हैदर अली की मां का नाम मजीदा बेगम था। फ़तेह मुहम्मद के पहले दो बेटों के नाम शहबाज़ और वली मुहम्मद थे। बड़ा बेटा शहबाज़ 1715 ई० में पैदा हुआ।

हैदर अली की पैदाईश से पहले शेख फतेह मुहम्मद ने अपनी बीवी मजीदा बेगम को उस जमाने के एक मशहूर दरवेश और बुजुर्ग हैदर अली

के पास भेजा ताकि वह होने वाले बच्चे के लिए दुआ करें। इस दरवेश का नाम हैदर अली था। दरवेश ने बच्चे के लिए दुआ की और मजीदा बेगम को यह खुशखबरी सुनाई कि उसका पैदा होने वाला बेटा तारीख़ में बहुत शुहरत हासिल करेगा। बुजुर्ग ने हिदायत की कि इसका नाम हैदर अली रखा जाए। चुनांचे बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम हैदर अली ही रखा गया।

हैदर अली के पिता

– शेख़ फ़तेह मुहम्मद गुलबर्गा के सूबादार आबिद ख़ान के पास गए और उसकी फ़ौज में मुलाज़िम हो गए। इससे पहले वह सूबे के एक नवाब दरगाह कुली ख़ान की फ़ौज में चार सौ प्यादा और एक सौ सवारों पर अफ़सर मुकर्रर किए गए थे। वह एक निडर और बहादुर इन्सान थे। कभी-कभी तो वह मैदान-ए-जंग में अकेला दुशमनों की भीड़ में घुस जाते और उसकी तादाद की ज़री बराबर परवाह न करते थे। हैदर अली की पैदाइश के बाद उन्हें बालापुर की लड़ाई में भेज दिया गया।

फ़तेह मुहम्मद ने बालापुर की इस जंग में ऐसे सिपाहियाना जौहर दिखाए कि मैसूर और बीदतूर के पालीकारों को शिकस्त हो गई। जंग में कामयाबी के बाद फ़तेह मुहम्मद ने तमाम माले गनीमत सूबादार आबिद ख़ान के पास भेज दिया। उनके कारनामे पर आबिद खान बहुत खुश हुआ और उसने फ़तेह खान को हाथी, नक्कारा, अलम (झण्डा) और दो हज़ार प्यादा और पांच सौ सवारों पर अफ़सर मुकरैर कर दिया। इस तरक्की के बाद उनकी इज्जत व तकरीम में बढ़ोतरी होती रही और बालापुर के माहौल में उनका बेटा हैदर अली एहतियात और हिफ़ाज़त से परवरिश पाता रहा।

1727 ई० में एक जंग के दौरान शेख फ़तेह मुहम्मद शहीद हो गए। उनकी शहादत के बाद बालापुर के हाकिम अब्बास अली ख़ान ने उन
के ख़ानदान पर बहुत जुल्म किए। पिता की शहादत के वक्त हैदर अली सिर्फ पांच साल के थे। 17 साल की उम्र तक हैदर अली ने बहुत दुख उठाए।

हैदर अली मैसूर में

फिर तकदीर ने पलटा खाया और हैदर अली अपने बड़े भाई, शहबाज़ के साथ मैसूर आ गए। मैसूर में उनके एक चचा का लड़का राजा की फ़ौज में मुलाज़िम था। उन्होंने हैदर अली को सिपाहगरी (फ़ौजदारी) के फन की तरबियत दी और जब हैदर अली जवान हुआ तो उसे मैसूर के राजा की फ़ौज में भर्ती कराया। हैदर अली के साथ उसका भाई शहबाज़ भी परवान चढ़ा। दोनों ने एक साथ तरबियत हासिल की थी। उनके चचा ज़ाद भाई खुद उन्हें मैसूर के राजा के पास ले गए, क्योंकि उस ज़माने में रियासत का राजा ही किसी को फ़ौज में मुलाज़िम रखता था। दोनों भाई फुनून-ए-जंग में माहिर थे। इसलिए राजा ने उन की सलाहियतों को देख कर अपनी फ़ौज में शामिल कर लिया। चूंकि हैदर अली की उम्र उस वक़्त 19 साल थी, इसलिए कम उम्र होने की वजह से उसे शुरूआती तौरपर पचास सवारों पर अफ़सर मुकर्रर किया गया और उन्हें बाहर भेजने की बजाए दारुल हुकूमत श्रीरंगापटनम में ही रखा गया।
रियासत मैसूर

आज से तकरीबन 260 साल पहले जुनूबी (दक्षिण) हिन्दुस्तान दक्कन में मैसूर एक छोटी सी हिन्दू रियासत थी। यह वह जमाना था जब हिंदुस्तान में मुगलों की हुकूमत आहिस्ता-आहिस्ता कमजोर होती जा रही थी। जब तक औरंगजेब आलमगीर जिन्दा रहा, उसने मुल्क को मुत्तहिद रखा और बागियों की सरकूबी करता रहा। लेकिन उसके बाद मुगलिया खानदान के जिन लोगों ने दिल्ली का तख्त व ताज होता ?
संभाला, उनमें से अकसर निकम्मे और नाअहल हुकुमरान साबित हुए। उनकी नाअहली और नालायकी से फायदा उठा कर बहुत-से राजाओं, सूबेदारों और नवाबों ने अपने-अपने इलाकों में आजाद और खुद-मुख्तार हुकूमतें कायम कर ली।

उस दौर में अंग्रेज़ भी हिन्दुस्तान में अपने कदम जमा चुके थे और राजों-नवाबों को आपस में लड़ाकर और उनकी कमजोरियों से फ़ायदा उठाकर उनके इलाकों पर कब्जा करते जा रहे थे। मैसूर के शिमाल (उत्तर) की तरफ़ मरहटों और निज़ाम हैदराबाद के इलाके थे जबकि जुनूब (दक्षिण) की तरफ़ अंग्रेज़ थे और उनके कब्जे में मद्रास का इलाका था। रियासत मैसूर का राजा कृष्णा राव और प्रधानमंत्री नन्दराज था। नन्दराज ने हैदर अली के किरदार और खूबियों का मुशाहदा किया और उसपर ख़ास ध्यान देने लगा।

हैदर अली ने जब अपनी जंगी ज़िन्दगी की शुरूआत की तो किसी को मालूम न था कि यह कम उम्र नौजवान एक बड़ी हुकूमत का हुकुमरान बनेगा और ऐसी ज़बरदस्त जंगे लड़ेगा कि उसकी बहादुरी एक मिसाल बन जाएगी, वह अपनी ज़िन्दगी में गासिब अंग्रेजों के नापाक इरादे कभी पूरे नहीं होने देगा और गैर-मुल्की ताक़तों के लिए इस्लाम की एक मज़बूत दीवार साबित होगा।


हैदर अली की शादी

हैदर अली की शादी का एहतिमाम खुद वजीर नन्दराज ने किया। उसकी पहली शादी पीर जादा शाहजहां की बेटी से हुई। उस वक्त हैदर अली की उम्र 19 साल थी। अगरचे यह, शादी एक इज्जतदार ख़ानदान में हुई थी लेकिन हैदर अली की इस बीवी को कुछ समय बाद फालिज हो गया और उससे कोई औलाद न हो सकी। तब उसकी इजाजत से हैदर अली ने दूसरी शादी कर ली। दूसरी बीवी का नामहैदर अली

फ़ातिमा बेगम था। फ़ातिमा बेगम गर्मकुण्डा के किलादार की बहन थी। उससे दो-तीन साल तक औलाद न हुई तो हैदर अली हज़रत टीपू मस्तान वली (रह०) के आस्ताना पर पहुंचा।

उन दिनों दक्कन में इनकी बड़ी शोहरत थी। लोग उनकी ख़िदमत में हाज़िर होते और अपने लिए दुआ कराते। हैदर अली भी उनकी खिदमत में हाज़िर होकर औलाद के लिए दुआ की दरख्वास्त की। टीपू मस्तान (रह०) ने दुआ की और हैदर अली को यह खुशखबरी भी दी कि अल्लाह उसे ऐसा बेटा अता करेगा जिसका नाम रहती दुनिया तक जिन्दा रहेगा। उनकी दुआ कबूल हुई और 10 नवम्बर 1750 ई. को हैदर अली के यहां एक खूबसूरत बेटा पैदा हुआ।

हैदर अली उस वक्त तक अपनी सिपाहियाना खूबियों और कारनामों की वजह से काफी तरक्की कर चुके थे। चुनांचे बेटे की पैदाइश पर उन्होंने अल्लाह का बेहद शुक्र अदा किया और ख़ज़ाने का मुंह खोल दिया, रात की, सदकात दिए और चालीस दिन तक खूब बशन मनाया। चूंकि यह बेटा हज़रत टीपू मस्तान वली (रह०) की दुआ से पैदा हुआ था, इसलिए हैदर अली ने उसका नाम हज़रत के नाम पर टीपू रखा यानी फ़तेह अली टीपू। टीपू ऐसी खुशनसीबी लाया कि हैदर अली के दिन फिर गए। वह तेज़ी से तरक्की की मौजलें तय करने लगे और कामयाबियां उनके कदम चूमती रहीं। वह जिस मुहिम पर भी गए, उसमें कामियाब होकर लौटे।

हैदर अली की कामयाबियां

1752 ई. में मैसूर के एक खास इलाके डंडेकल में प्रधानमंत्री नन्दराज के खिलाफ बगावत हो गई। इस हंगामा ने इतना जोर पकड़ा कि नन्दराज ने कई सालारों को वहां भेजा लेकिन वे हंगामा खत्म करने में नाकाम रहे। आखिरकार नन्दराज ने इस बगावत को दबाने के लिए हैदर अली का इन्तिखाब किया।

नन्दराज ने हैदर अली को तुरन्त तरक्की देकर चार हजार प्यादा और डेढ़ हज़ार सवार सिपाहियों का अफसर बनाकर डंडेकल की मुहिम पर रवाना किया। हैदर अली ने इस मुहिम में अपनी बहादरी, हिम्मत, होशमन्दी और अक्लमंदी से बागियों की सरकूबी की और बहुत जल्द बड़ी खुश उसलूबी से बगावत को कुचल दिया। उसने हालात को पूर अमन बनाने के लिए इलाके का सारा इंतिज़ाम दुरुस्त किया।

इस मुहिम की कामयाबी के बदले में उसे डंडेकल का गवर्नर बना दिया गया। हैदर अली ने डंडेकल के निज़ाम में सुधार किया। क्योंकि यह मुआमला उसकी सलाहियतों के लिए एक बड़ी चुनौती की हैसियत रखता था। उसने डंडेकल की बगावत को ख़त्म करके और वहां का इंतिज़ाम ठीक करके साबित कर दिया कि वह सिर्फ एक बहादुर सिपाही और सिपहसालार ही नहीं बल्कि ज़बरदस्त इंतिज़ामी सलाहियतों का मालिक और बेहतरीन प्रबन्धक भी है।

डंडेकल की बगावत को कुचलने और वहां का नज़्म व नस्क दुरुस्त करने के बदले में उसे हुकूमत की तरफ़ से हाथी, झण्डा, नक्कारा, ख़ास पालकी और अपना झण्डा रखने का सम्मान भी मिला। हैदर अली इससे ज़्यादा सम्मान का हकदार था। उसे जो भी ज़िम्मेदारी सोंपी जाती थी उसमें वह किसी किस्म की कोताही और गफलत न करता था। अपने फ़र्ज़ की अदाएगी उसका ईमान था। अल्लाह तआला ने उसे हर किस्म की आला सलाहियतों से नवाज़ा था। .

मैसूर के दुश्मन

मैसूर की रियासत उस वक्त एक बहुत बड़े ख़तरे से दो-चार थी और यह ख़तरा था मरहटे। मरहटे लूटमार और जंगों में मसरूफ थे। रियासत के शिमाली (उत्तरी) इलाके का निज़ाम व बंदोबस्त उन्हीं ने संभाल रखा था और दिन-ब-दिन उनकी ताकत में बढ़ोतरी हो रहीहैदर अली

थी। उनके अज़ाइम व इरादे इन्तिहा पसन्दाना सूरत इख्तियार करते जा रहे थे। मरहटे इस कोशिश में थे कि अपनी रियासत और इक्तिदार कायम करें। इन मकासिद के लिए उनकी लालची निगाहें काफी समय से मैसूर पर केद्रित थीं और वे मैसूर पर हुकूमत करने के ख्वाब देख रहे थे। उनकी अमलदारी पुणे के इलाके में थी और वही उनकी सरगरमियों का केंद्र था।

मरहटों का सरदार या हुकुमरान पेशवा कहलाता था। 1754 ई. में पुणे के पेशवा बालाजी राव ने मरहटा फ़ौजों को जमा किया और मैसूर के राजा से ख़राज या गुन्डा टैक्स वुसूल करने के लिए उसपर चढ़ाई कर दी। उस वक्त मैसूर की हालत बहुत ख़राब थी। राजा की हुकूमत पर गिरफ़्त बहुत ढीली और दरबार में उसके ख़िलाफ़ साज़िशें हो रही थीं जबकि प्रधानमंत्री नन्दराज अपनी मनमानियां कर रहा था। मैसूर का ख़ज़ाना ख़ाली था। ऐसे में मरहटों को ख़राज कहां से अदा किया जाता?

इन हालात में राजा की समझ में इस मुसीबत को टालने का एक ही हल आ सका और उसने रियासत का ज्यादातर इलाका मरहटों के पास रहन (गिरवी) रख दिया। अगरचे यह एक बदतरीन हल था लेकिन इससे उस वक्त मरहटों के हमले का ख़तरा टल गया। लेकिन इससे मरहटों की हिम्मत और बढ़ गई और 1755 ई. में मरहटा सरदार गोपालराव ने मैसूर के राजा से एक करोड़ रूपए टैक्स का मुतालबा कर दिया।

राजा कमजोर और ख़ज़ाना ख़ाली था। मरहटों ने यह मुतालबा सरासर नाजायज़ और सिर्फ ताकत के बल-बूते पर किया था और इसका असल मकसद रियासत के इलाकों पर कब्जा करना था। चूंकि राजा उनका मुतालबा पूरा नहीं कर सकता था इसलिए जो इलाके मरहटों के पास रहन (गिरवी) रखे गए थे, उनपर मरहटों ने कब्जा
कर लिया। यह सूरते हाल मुस्तकबिल में मैसूर के लिए तबाहकुन साबित हो सकती थी।


हैदर अली का इन्तिखाब

राजा चाहता था कि मरहटों से किसी तरह सुलह हो जाए और मैसूर के जिन इलाकों पर मरहटों ने कब्जा कर लिया है वह दोबारा रियासत में शामिल हो जाएं। इस मौके पर राजा की निगाह हैदर अली पर पड़ी जिसने डंडेकल की बगावत पर काबू पाने और बागियों की सरकूबी करके इलाके का नज़्म व नस्क दुरुस्त करने का जबरदस्त कारनामा अंजाम दिया था। राजा को यकीन हो गया कि मरहटों का मुकाबला कोई मुसलमान और बहादुर जरनेल ही कर सकता है और यह कि हैदर अली ही रियासत मैसूर को मरहटों की लूटमार से बचा सकता है। चुनांचे राजा ने मरहटों से निमटने के लिए हैदर अली का इन्तिखाब किया।

राजा ने हैदर अली से मश्वरा किया और उसे मरहटों से सुलह की बात-चीत की ज़िम्मेदारी सोंपी। हैदर अली एक बहादुर मुसलमान और वतन से मुहब्बत करने वाला शख्स था। अब मैसूर ही उसका वतन और मुल्क था और मरहटों से अपने मुल्क के इलाके वापस लेने के लिए उनकी शर्ते कबूल करना उसकी गैरत के लिए था। चुनांचे उसने मरहटों से जंग करने का फैसला किया और राजा को अपने इस इरादे से आगाह कर दिया कि वह मरहटों को इबरतनाक सबक सिखाना चाहता है। राजा ने उसके अज़ाइम व इरादे की बहुत तारीफ़ की और ख़ान बहादुर का ख़िताब दिया। –

हैदर अली की रवानगी हैदर अली को इस मुहिम पर रवाना करने से पहले मैसूर के राजाहैदर अली

ने बड़ा एहतिमाम किया। हैदर अली को ख़िताब के अलावा खास लश्कर का झण्डा, अपना जाती मा जिसके साथ एक सोने का बना हुआ तख़्त भी था, ख़ज़ाना, महल का अमला और हाथियों का लश्कर वगैरा देकर उसे फ़ौज का सिपहसालार मुकर्रर किया और तमाम इख्तियारात का मालिक बना दिया। फिर अपने हाथ से हैदर अली को रुखसती का पान (इजाज़त) इनायत किया और दीवाने ख़ास (ख़ास लोगों के जमा होने की जगह या शाही खुलवत ख़ाना) से डेवढ़ी तक तमाम ज़िम्मेदारों और सरदारों के साथ उसे छोड़ने आया।

गोपालराव से जंग

हैदर अली मरहटों की सरकूबी के लिए रवाना हुआ। उसने मौके और हालात के मुताबिक जंगी चाल चली और जेन बैसटन के मकाम पर मरहटा फ़ौज पर रात में हमला किया। रात के अंधेरे में यह हमला इतना ज़बरदस्त और कारगर था कि मरहटा फौज के छक्के छूट गए। हैदर अली ने अपनी खुदादाद सलाहियतों के वह जौहर दिखाए कि मरहटों को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। मरहटा फ़ौज मुकाबला न कर सकी और इस बुरी तरह शिकस्त खाकर भागी कि सारा साज़ व सामान वहीं छोड़ गई। खुद गोपालराव भी जान बचा कर भाग गया।

हैदर अली इस मुहिम में कामयाब होकर लूटे हुए माल के साथ वापस मैसूर के दारुल हुकूमत श्रीरंगापटनम पहुंचा तो मैसूर के राजा ने उसकी फ़तह से खुश होकर उसे “फ़तह हैदर बहादुर” के खिताब से नवाज़ा और उसे मैसूर की फौजों का सिपहसालार मुकर्रर कर दिया। अभी तक मैसूर के बहुत से इलाके मरहटों के कब्जे में थे और हैदर अली मौके की तलाश में था ताकि उन इलाकों को भी मरहटों के कब्जे से आजाद करा ले। उसी जमाने में अहमद शाह अब्दाली ने
पानीपत के मैदान में मरहटों को ऐसी शिकस्त दी कि उनकी ताकत पारा-पारा हो गई और वे एक मुद्दत तक सर उठाने के काबिल न रहे।
यही वह मौका था जिसका हैदर अली इन्तिज़ार कर रहा था। उस वक़्त गोपालराव सिरा के किला में पनाह लिए हुए था। हैदर अली ने ताबड़-तोड़ हमले करके उन इलाकों पर कब्जा कर लिया जो मरहटों ने अपने कब्जे में ले रखे थे। इन इलाकों को आजाद कराने के बाद हैदर अली वापस श्रीरंगापटनम पहुंचा तो उसका शानदार स्वागत किया गया जो उस जैसे फ़ातेह (विजयी) सिपहसालार के शयाने-शन था।

नन्दराज और हैदर अली

वजीरे आजम (प्रधानमंत्री) नन्दराज मैसूर का राजा तो नहीं था मगर सारे इख़्तियारात उसके हाथ में थे और राजा महज़ एक कठपुतली हुकुमरान था जो नन्दराज के इशारों पर नाच रहा था। नन्दराज के बहुत ज़्यादा इख़्तियारात की वजह से उसके बहुत से जलने वाले पैदा हो गए थे और दरबार में उसके ख़िलाफ़ अकसर साजिशें करते रहते थे। नन्दराज इन साजिशों को ख़त्म करने में मसरूफ़ रहता जिसकी वजह से उसके पास रियासत के हालात पर ध्यान देने के लिए वक्त नहीं था। राजा बहुत ज्यादा बेबस था। वह नन्दराज के शिकन्जे से निकल कर आजादी से हुकुमरानी का ख्वाहिशमंद था और उसकी यह ख़्वाहिश सिर्फ हैदर अली के जरिए ही पूरी हो सकती थी जो मैसूर की फौज का सिपहसालार था। मैसूर की रानी दिवाजी मनी बहुत होशियार और चालाक औरत

थी, वह समझती थी कि नन्दराज को वजीरे आजम के ओहदे से सिर्फ हैदर अली ही हटा सकता है। नन्दराज से ख़तरा था कि वह प्रतिरोध करेगा और रियासत में बगावत फैलाएगा जिसके नतीजे में

बहुत ज्यादा खून-खराबा हो सकता था। इस सूरत में सिर्फ हैदर अली ही उसे ताकत के ज़रिए दबा सकता था।

नन्दराज के हैदर अली पर बहुत एहसानात थे। सब से पहले उसी ने हैदर अली की जंगी सलाहियतों को पहचाना और उसे तरक्की करने के मौके फराहम किए। अगर वह हैदर अली को डंडेकल की बगावत को कुचलने के लिए न भेजता तो हैदर अली की फौजी और इन्तिज़ामी सलाहियतों का एक मुद्दत तक इज़हार न होता और वह इतनी जल्दी सिपहसालार के ओहदे पर न पहुंच जाता। इन एहसानात और वजूहात के सबब हैदर अली नन्दराज को अपना मुहसिन समझता था और उसके दिल में नन्दराज की बहुत इज्जत थी। लेकिन कौमी फ़ों को पूरा करना भी हैदर अली के लिए ज़रूरी था।

रानी और खण्डेराव

खण्डेराव हैदर अली की फ़राज़दिली और फय्याजी की वजह से उसका ख़ास मोतमिद या जाती सैक्रेट्री बना हुआ था, लेकिन यह शख्स बहुत चालाक और मौकापरस्त था। वह मुसलमानों का दुश्मन था, लेकिन बज़ाहिर दोस्त बना हुआ था। रानी दिवाजी मनी ने नन्दराज से नजात हासिल करने के लिए हैदर अली का इन्तिख़ाब किया तो पहले अकेले में खण्डेराव को तलब करके उसे अपने एतिमाद में लिया और कई किस्म के लालच देकर कहा “तुम हैदर अली को इस बात पर आमादा करो कि वह नन्दराज के कब्जे से हमें नजात दिलाए।” राजा भी यही चाहता था। चुनांचे खण्डेराव ने हैदर अली को रानी का पैगाम पहुंचाया और उसकी ख्वाहिश से आगाह कर दिया। हैदर अली सोच में पड़ गया। एक तरफ राजा और रानी का हुक्म जिसको पूरा करना उसका फर्ज था। दूसरी तरफ नन्दराज जो उसका मुहसिन और मेहरबान था। वह नहीं चाहता था कि रियासत
है। कमज़ोर हो और खाना जंगी की नौबत आए। इसलिए हैदर अली ने काफी सोच-विचार के बाद नन्दराज से मुलाकात करने का फैसला किया। इस मुलाकात में उसने राजा और रानी का हुक्म उसे बताया और अपनी मजबूरी जाहिर की कि मुझे हर हाल में इस हुक्म को पूरा करना पड़ेगा। नतीजा जो भी निकले मुझे उसकी फ़िक्र नहीं। मैं आपका शुक्र गुज़ार और एहसानमन्द हूं और इसी लिए आप को मश्वरा देने आया हूं कि आप किसी लड़ाई के बगैर खुद ही विजारत से अलग हो जाएं, आपका सितारा गर्दिश में आ चुका
हैदर अली ने नन्दराज को समझाया कि विज़ारत छोड़ने से उसे नुकसान नहीं पहुंचेगा, बल्कि उसकी इज़्ज़त में इज़ाफ़ा होगा। इससे न सिर्फ में भी इस ना खुशगवार काम को करने से बच जाऊंगा, बल्कि रियासत भी खून-खराबे और बगावत से महफूज़ रहेगी।

नन्दराज पहले तो हैदर अली पर खफा हुआ और विज़ारत छोड़ने से साफ़ इन्कार करके हैदर अली को धमकी दी, लेकिन जब हैदर अली ने साफ़ शब्दों में कहा कि ऐसी सूरत में वह उसका मुकाबला करेगा तो नन्दराज विज़ारत से अलग हो गया। उसने हैदर अली का शुक्रिया अदा किया और उसकी फ़र्ज़ शनासी (कर्तव्यपरायणता) की तारीफ की।

नन्दराज के विज़ारत छोड़ने पर राजा और रानी बहुत खुश हुए और उन्होंने हैदर अली की सूझ-बूझ और अक्लमंदी की बहुत तारीफ की। अवाम के दिल में भी हैदर अली का एहतिराम बढ़ गया। हैदर अली को खुशी थी कि नन्दराज हैसे मुंहसिन के साथ बद मज़गी भी नहीं हुई और रियासत के साथ उसकी वफादारी पर भी कोई हर्फ नहीं आया।

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