एक साहब ऐतराज कर रहे थे की ख्वाजा़ मोईनुद्दीन चिश्ती रहमातुल्लाह आलेह का हज़रत हुसैन को दीन कहना गलत है ।
मैंने कहा मेरे भाई दो छोटे से वाक्ये सुनो
एक दफा़ हज़रत अली को एक तीर लग गया , दर्द इतना था की वो तीर किसी को छूने भी नहीं देते थे , अगर निकालने की कोशिश करो तो बेहद दर्द होता था ।
किसी इल्म वाले ने कहा जब ये नमाज़ पढ़ रहे हों तो दौरान ए सज्दा , तीर निकाल लेना ।
ठीक ऐसा ही किया गया और अली को एहसास तक ना हुआ ।
अली सजदे में जाते तो दुनिया तो दूर , खुद को भी भुला देते और इबादत होती भी एक खुदा के लिए है , दुनिया का ख्या़ल नहीं आना चाहिए ।
दूसरा वाक्या ये की एक दफा़ नबी सल्लललाहु अलैहे वसल्लम सजदे की हालत में थे की हज़रत हुसैन , आका़ की पुश्त ए मुबारक पर सवार हो गए ।
आका़ ने सज्दे को लंबा कर दिया जब हुसैन खुद से उतर गए तब आपने सज्दे से सर उठाया
अब हमारा अकीदा तो कहता है
नबी सल्लललाहु अलैहे वसल्लम आका़ हैं , अली गुलाम
अली की नमाज़ के आलम से कई बुलंद है नबी सल्लललाहु अलैहे वसल्लम की नमाज़
अब जब अली सजदे में दुनिया नहीं सोचते तो मेरे आका़ सल्लललाहु अलैहे वसल्लम कैसे सोच सकते हैं ????
अब हज़रत हुसैन का ख़्याल आया ये भी हक़ है , दुनिया का ख़्याल नहीं आया ये भी हक़ है
चार किताब पढ़कर , ख्वाजा़ साहब के अश्शार को गलत कह दिया । ऊँगली कहाँ उठा रहे हो , पहुँच कहाँ रही है , समझा तो करो ।
यूँ ही नहीं कहा मेरे ख़्वाजा़ ने
“दीन अस्त हुसैन” .. “हुसैन दीन हैं”