
इन जंगों के ख़त्म हो जाने के बावजूद भी दुश्मन ए अली यानी दुश्मनाने दीन खामोश नहीं बैठे बल्कि आप अली मुर्तजा को शहीद करने के मंसूबे बनाने लगे, आख़िरकार आपको इब्ने मुल्जिम ने दौरान ए नमाज़, सर पर वार करके जख्मी कर दिया। वार बहुत गहरा भी था और ज़हर से बुझा हथियार था।
आप मौला अली अलैहिस्सलाम शहीद हो गए. आपके दुनिया से पर्दा फरमाते ही दीन बेसहारा हो गया, सादात यतीम हो गए और आपके गुलामों और आशिकों के सर से सरपरस्त का हाथ उठ गया।
आपके जाने के बाद आपके बड़े बेटे यानी इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने हम बेसहारा हो चुके लोगों को सहारा दिया, कुछ सुन्नी आलिम, खुल्फा ए राशिदीन के नाम पर सिर्फ चार सहाबा का जिक्र करते हैं जबकि हज़रत हसन अलैहिस्सलाम की तकरीबन छह माह की ख़िलाफ़त मिलाकर ही ये ख़िलाफ़त का दौर पूरा होता है।
बाद में आपसे ख़िलाफ़त छीनने की कोशिशें की गई। ये भी बहुत कमाल की बात है कि आपसे खिलाफ़त छोड़ने या जंग करने की पेशकश करने वाले शख्स को ही लोग मुहिब्बे अहलेबैत कहने से तक नहीं चूकते।
अफ़सोस कि अब हक कहने वाले बहुत कम ही बचे हैं।
एक बात पर शायद आपने ध्यान ना दिया हो लेकिन मैंने दिया है, हमारी मस्जिदों में अक्सर सिर्फ चार सहाबा का जिक्र किया जाता है, जबकि हदीस ए ग़दीर के मुताबिक तो तकरीबन एक लाख चौबीस हजार से ज़्यादा सहाबा राज़िअल्लाह थे। अब कुछ लोग कहते हैं कि खुल्फा ए राशिदीन की वजह से चार का जिक्र किया जाता है तो पाँचवे यानी हसन अलैहिस्सलाम को क्यों भूल जाते हैं?
मेरा सवाल ये है कि हज़रत सलमान फारसी राज़िअल्लाह, हज़रत अबुज़र गफ्फारी राज़िअल्लाह, हज़रत अम्मार बिन यासिर राज़िअल्लाह, हज़रत बिलाल राज़िअल्लाह, हज़रत मिक्दाद राज़िअल्लाह, हज़रत मालिक ए अश्तर राज़िअल्लाह, कम्बर, कुमैल, उवैस करनी जैसे सहाबा एरसूल या आशिक ए अली का जिक्र क्यों नहीं किया जाता?
जिनकी शहादत की खबर रसूलुल्लाह ने कई साल पहले ही दे दी और कातिलों पर आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने लानत तक की, उनका जिक्र तक गायब है।
जिन्हें सबसे सच्चा सहाबा कहा, उनका नाम तक नहीं लिया जाता, यहाँ तक कुछ तारीख़ की किताब में ये तक लिखा है कि हज़रत अबुज़र गफ्फारी ऐसी बात करने लगे थे जिससे फित्ने फैलने का डर था। जिनकी जुबान की सदाक़त की गवाही खुद, अल्लाह के रसूल ने दी हो उनपर ऐसे इल्जाम लगाना कहाँ तक सही है?
बहुत सारे सहाबा राज़िअल्लाह ऐसे हैं जिन्होंने हमेशा रसूलुल्लाह से वफा निभाई, ख़िदमत की। खुद फातिमा सलामुल्लाह अलैहा भी जिनका नाम लेकर, रब से उनके वास्ते दुआएँ किया करती थीं। जिनके नाम ऊपर दिए हैं, वह सहाबा राज़िअल्लाह, इनके जिक्र क्यों दबाए जा रहे हैं?
ऐसे ही सबसे ज्यादा जिकर अम्मा आयशा राज़िअल्लाह का किया जाता है, मुझे इस बात ये तकलीफ़ नहीं बल्कि खुशी ही है लेकिन हक़ बात ये है कि रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम का सबसे ज़्यादा साथ बीबी ख़दीजा सलामुल्लाह अलैहा ने दिया है इसलिए कुछ लोग खुशी से, कुछ लोग मजबूरी में मादर ए फातिमा सलामुल्लाह अलैहा का जिक्र करते हैं।
लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि रसूलुल्लाह की बाकि बीवियों का जिक्र क्यों नहीं किया जाता, वह भी तो उम्मुल मोमिनीन ही हैं। कई बार तो यूँ लगता है जैसे शिया-सुन्नी, दीन से दूर होकर बस एक दूसरे के ख़िलाफ़ बोलने में लगे हैं। सुन्नियों को बस उनका जिक्र करना है जिनसे उनका मसलक चले और शियाओं को उनका जिनसे, मसलक चले। उनका
एक बात और गौर करने लायक है जो अहले हदीस के एक आलिम फरमाया करते थे, आप कहते थे कि शिया जिस तारीख़ को मानते हैं, उसमें कुछ लोगों की बुराईयाँ लिखी हैं, जिन्हें सुन्नी सही मानते हैं। सुन्नी सही इसलिए मानते हैं क्योंकि सुन्नियों की किताब में उन्हें सही लिखा है। तो ये तारीख से तारीख की जंग है।
एक बात और देखने में आती है कि कुछ लोग यजीद पलीद को भी हक़ पर साबित करने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि उसे राज़िअल्लाह तक बोलते हैं। मैं किसी आलिम या किताब का नाम नहीं लूँगा लेकिन मैंने खुद सुना भी है और पढ़ा भी है।
गलती शुरू होती है जब आप हक़ और नाहक़, दोनों को सही बताने लगते हैं। मैंने बहुत सारे आलिमों को ये कहते सुना है कि जंग ए सिफ्फीन में दोनों हक़ पर थे, मौला अली भी और मुआविया भी। पहली बात तो ये कि हक़ से हक़ की जंग नहीं होती और मान भी लो कि हक़ की हक़ से लड़ाई होती भी तो मेरे मौला ऐसी जंग नहीं करते।
करबला को जब भी याद करता हूँ तो आँखों से आँसू बहने लगते हैं जो रोकने पर भी नहीं रुकते लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर करबला में यजीद, खुले आम फौज़ भेजकर जंग ना करवाता तो लोग उसे भी वैसे ही हक़ पर कह देते, जैसे उसके वालिद को हक़ पर साबित करते दिखाई देते हैं।
कई बार सोचता हूँ तो अफ़सोस होता है, रसूलुल्लाह की परवरिश करने वाले अबु तालिब को लोगों ने काफ़िर कह दिया और हज़रत हसन अलैहिस्सलाम से सुलह तोड़ने वाले, हज़रत अली अलैहिस्सलाम को गाली देने वाले और हज़रत हुसैन अलैहिस्सलाम को कत्ल करने वाले लोगों को राज़िअल्लाह बनाकर पेश किया जाता है।
बहुत सारे लोग ये कहते हुए भी दिख जाते हैं कि अल्लाह की नज़र में सब बराबर हैं, अहलेबैत अलैहिस्सलाम ऊँचे नहीं हैं, कुछ लोग तो हद करते हुए इसे जात-पात से तक जोड़ देते हैं। बेशक अल्लाह रब उल इज्जत की नज़र में सब बराबर हैं लेकिन अपने आमाल से इंसान ऊँचा उठता है। कभी आयत ए मुबाहला पढ़कर सोचिए कि अहलेबैत का क्या मुकाम है।
एक बात और याद रखिए, अगर आप रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम से बे-पनाह मुहब्बत करते हैं और ये मानते हैं कि जब दुनिया अँधेरे में थी तब आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ही नूर बनकर, हिदायत की रौशनी और कुर’ आन का उजाला लेकर दुनिया में तश्
रीफ़ लाए तो आपको चाहिए कि आप आयत ए मवद्दत पढ़कर देखें। रसूलुल्लाह ने लाखों एहसान करके बदले में सिर्फ अहलेबैत की मवद्दत यानी मुहब्बत माँगी है, वह भी खुद नहीं बल्कि अल्लाह के हुक्म ‘से।