
एक खुत्बे के बीच में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया, “आज, हम और तुम, हक़ और बातिल के दोराहे पर खड़े हुए हैं। जिसे पानी का इत्मिनान है वह प्यास महसूस नहीं करता। इसी तरह मेरी मौजूदगी में तुम्हें मेरी कद्र नहीं।”
वैसे तो मौला अली का हर एक कौल इल्म से भरा हुआ है बल्कि यूँ कहना ज़्यादा सही होगा कि हज़रत अली के हर एक कौल में इल्मों का खजाना छिपा हुआ है, जिसका जितना ज़र्फ हो, वह उतना ज्यादा इल्म हासिल कर सकता है।

अगर हम इस कौल को तीन हिस्सों में बाँटकर देखें तो पहली बात ये नज़र आयेगी कि”आज, हम और तुम, हक़ और बातिल के दोराहे पर खड़े हैं।” , ये खुत्बा उस वक्त का है जब मौला अली अलैहिस्सलाम को जाहिरी ख़िलाफ़त मिल गई थी और मुआविया अपने साथियों के साथ
मिलकर, ईमान वालों को भड़काने की कोशिश कर रहा था।
हम सब जानते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने साफ़ फरमा दिया कि अली, हक़ के साथ है और हक़, अली के साथ है। अब मौला के कौल का कमाल देखिए, आपने हम पहले कहा फिर तुम, ठीक ऐसे ही हक पहले कहा बातिल बाद में। इमामत भी रिसालत की तरह ही, अल्लाह देता है और इमाम, अपने रसूल की उम्मत को इल्म भी सिखाते हैं और सहारा भी देते हैं।

आज दुनिया में कई तरह के इल्म सीखे और सिखाए जा रहे हैं लेकिन अगर आप मौला अली की ज़िन्दगी को देखो तो आप पाओगे कि हर अच्छा इल्म, साइंस का इल्म, दुनियावी इल्म या कुरआन का ही इल्म क्यों ना हो उसे समझने के लिए आपको मौला अली के खुत्बों को समझना होगा। हर इल्म की बुनियाद, मौला अली के पास ही है।
इसी खुत्बे के दूसरे हिस्से में मौला ने फरमाया, “जिसे पानी का इत्मिनान है, वह प्यास महसूस नहीं करता।”
इस छोटी-सी बात में भी, अगर आप अपनी नज़रों को एक हद तक, तलाश में ले जाएँगे तो जीव विज्ञान और समाजशास्त्र की गहरी जड़ें, मिल जाएँगी।
अगर आप मछली के बारे में पढ़ेंगे तो आपको ये समझ आएगा कि मछली पानी में रहती है, पानी उसका घर है, यहाँ तक वह पानी को अपने जिस्म के अंदर भी लेती है और उसे ऐसा करना, ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी भी है लेकिन उसे हाज़त दरअसल पानी की नहीं है बल्कि आक्सीजन की है और अल्लाह ने उसे ऐसी कुदरत से नवाजा है कि वह पानी से आक्सीजन बनाती है।
इसी कौल को अगर समाज की दृष्टि से देखा जाए तो हम पाएँगे कि अक्सर हुकूमत में बैठे हुए लोग, खुद को मुतमईन साबित करते हैं या ज़रूरत पड़ने पर चार पैसे छोड़ देते हैं इतना होता है कि उन्हें, शायद फर्क नहीं पड़ता लेकिन गरीब इंसान के लिए चार पैसा भी जाँगीर से कम नहीं होता। अमीर इंसान के पास पैसा होता है तो वह पैसे की कमी के दर्द को नहीं समझता, इसी के उलट, गरीब आदमी पैसों के लिए ज़्यादा परेशान रहता है।

अब कुछ लोग ये ऐतराज़ ले सकते हैं कि आजकल तो उल्टा देखने मिलता है, गरीब आदमी मदद कर देता है, अमीर सोचता है कि हमें और मिल जाए, तो यहाँ बात नेक अमीरों की और नेक गरीबों की हो रही है। हराम पैसा खाने से जिसे भूख लग गई हो, उसकी भूख फिर कभी नहीं मिटती।
इसी कौल के आखिर में, मौला अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया है कि इसी तरह मेरी मौजूदगी में तुम्हें मेरी कद्र नहीं।”
मौला की इस एक बात के पीछे कईयों किताबें भी अगर लिख दी जाएँ तो, बहुत कम ही लगेंगी क्योंकि, असल बात ये ही है कि हमने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की वैसी कद्र नहीं की जैसा कि हक़ था।

आज शिया-सुन्नी के बीच आई दरार की वजह भी मौला की कद्र, ना करना है और फिरके-फिरके होती, जहालत में पड़ती, इस कौम के हालातों की जिम्मेदार भी बस एक बात है, मौला के इल्म की कद्र ना करना।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम, सलूनी-सलूनी कहकर बुलाते रहे, कभी इल्म के खजाने खोलते रहे, कभी विलायत के नाम पर, कभी इमामत के नाम पर, खुदा और रसूल के करीब बुलाते रहे लेकिन इस उम्मत ने उन्हें सिर्फ तकलीफ़दी, उनसे और उनकी औलाद से कितनी नफ़रत और
बुग्ज़ था ये छिपना सका।
कभी उम्मत ने मस्जिद में अली अलैहिस्सलाम के सर पर वार करके, कभी हसन अलैहिस्सलाम को जहर देकर, कभी हुसैन अलैहिस्सलाम का सर कलम करके तो कभी अली की बेटियों, बहुओं और पोते को जंजीर में बाँधकर, कैदकर के अपना बुग्ज़ जाहिर किया।
हमारे पास दुनिया में ही हकीकी इल्म का दरवाजा था, जो ज़मीन के रास्तों से ज्यादा आसमानों के रास्तों से बाखबर था। जिस दरवाज़े से तमाम इल्मों के रास्ते खुलते थे लेकिन अफसोस कि लोगों ने कद्र ना की।