
जब हुकूमत बनी उमैया से निकल कर बनू अब्बास के पास आ गई। उस वक्त बनी उमैया के एक सन रसीदा बुजुर्ग से जो अपने खानदान की सियासत और वजूहे जवाल से बखूबी वाकिफ था, किसी ने उस से बनी उमैया के जवाल के अस्बाब पूछे तो उसने कहा कि हम ऐश व इशरत में ऐसे मुनहमिक हो गये कि अपने फराइजे हुकूमत को बिल्कुल भूल बैठे। हमने अपनी रिआया पर जुल्म व जौर शुरू किया तो वह हमारे इंसाफ से मायूस हुए और हम से छुटकारा हासिल करना चाहा।
काश्तकारों पर हमने लगान बहुत ज़्यादा शुरू कर दिया। जिसकी वजह से वह ज़मीनों को छोड़ कर हिजरत कर गये। इस तरह हमारी जमीनें वीरान हो गईं और ख़ज़ाने खाली रह गये। हमने अपने वज़ीर पर भरोसा किया, उन्होंने अपने फवाइद को हुकूमत के मुनाफे पर मुक़द्दम रखा। और हमारे हुक्म के बेगैर जो चाहा हुक्म जारी कर दिया और हमको उससे बेखबर रखा। उन्होंने फौजो की तनख्वाहें देर में देना शुरू की, इस वजह से वह हमारे वफ़ादार न रहे और जब हमारे दुश्मनों ने उन्हें अपने साथ होने की दावत दी उन्होंने उसे ख़ुशी से कबूल किया। और हमारे मुकाबले में उनकी मदद की। हम अपने दुश्मनों के मुकाबले पर बढ़े मगर अपने इंसाफ की कमी की वजह से उनका कुछ बिगाड़ न सके। हमारे जवाल की सबसे बड़ी वजह मुल्क व हालात से बेखबरी हुई। (बहवाला तारीख बनू उमैया)
हज़रत मखदूम जहानियां जहां गश्त शैख़ जलालुद्दीन बुखारी कुद्दिसा सिहू अपनी किताब “खज़ान-ए-जलाली’ के सत्तरहवें बाब में लिखते हैं कि सलातीने बनू उमैया ने फरज़न्दाने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कत्ल किया और हज़रत अली और हज़रत इमाम हसन और हज़रत इमाम हुसैन रज़ि अल्लाहु अन्हु पर लानत भेजते थे। और रसूलुल्लाह
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अहले बैत पर किस्म-किस्म के मज़ालिम ढाए। पस मैं उनको दुश्मन जानता हूं और उनको मुसलमान नहीं कहता, बल्कि मुनाफ़िकों में शुमार करता हूं। (खजान-ए-जलाली, बाब 17, मिरातुल-असरार, स. 203)
सलातीने बनी उमैया की कुल मुद्दते हुकूमत एक हजार माह है । क्योंकि उन्होंने नव्वे साल ग्यारह माह तीस दिन हुकूमत की है। और किस बादशाह ने कितने दिन हुकूमत की और किस बादशाह के दौरे हुकूमत में किस इमाम की शहादत हुई है, उसकी तफ्सील यूं है :

