
एक दफा खुत्बे के बीच, मेरे मौला अली ने फरमाया कि “उसके अलावा हर देखने वाला मख़्फ़ी रंगों और लतीफ़ जिस्मों को देखने से नाबीना होता है”
ये क्या अजीब बात कही मौला ने, हम इंसान तो रंगों को देख सकते हैं, फिर ये छिपे हुए रंग क्या होते हैं जो इंसान नहीं देख सकता?
जब विज्ञान ने खोज़ की तो पाया कि जो उजाला या प्रकाश हमें सफेद दिखाई देता है, वह दरअसल अपने अंदर सात रंगों को समेटा हुआ है। अगर आगे चलकर इन सात रंगों में भी ये पता चल जाए कि दरअसल सात रंग हमें प्रिज्म से दिखते हैं पर अब फलाँ मशीन ईजाद हो गई है जिससे इन सात रंगों में भी इनके अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं मसलन के तौर पर गहरा हरा, हल्का हरा, फिरोजी वगैरह, तो भी मुझे रत्ती भर भी ताज्जुब नहीं होगा क्योंकि मेरे मौला आज से तकरीबन 1400 साल पहले ही सब बता गए हैं।
बहरहाल, आज जितना विज्ञान को पता है, उस पर ही बात करते हैं, जो सफेद उजाला या लाईट हमें दिखता है अगर उसकी तजल्ली या किरण को हम प्रिज़म से गुजारें तो हमें सात रंग दिखते हैं, कभी-कभी बारिश के मौसम में, जब बरसात के बाद धूप निकलती है तब भी सात रंगों की लकीरें आसमान में दिखने लगती हैं जो कि कमान के आकार की होती हैं।
इंसान 380 nm से 700 nm तक की रेंज देख पाता है लाईट की वेव्स के अलावा भी और कई ऐसी वेव्स हैं जो इंसान देख नहीं सकता। रोज़मर्रा में इंसान उजाले में छिपे इन रंगों को देख नहीं सकता और ना जाने और कितने रंग ऐसे छिपे हैं जिन्हें इंसान देखने से कासिर और नाबीना है।
इसी तरह अगर लतीफ़ जिस्मों की बात करें तो हम पाएँगे कि . खोज़ भी कुछ सालों पहले ही हुई है, जिससे पता चला कि हम जो देख पाते हैं इससे छोटे भी कीड़े, बैक्टीरिया, वायरस वगैरह मौजूद हैं। मक्खी, मच्छर, जुएँ से भी बारीक ऐसे कीड़े मौजूद हैं जिन्हें ना हम आँखों से देख सकते हैं, ना ही ये बता सकते हैं कि ये नर हैं या मादा। ये महीन से कीड़े भी अपनी नस्लें आगे बढ़ाते हैं, रिजूक पाते हैं और हम उनके वजूद से भी बेख़बर ना ही उन्हें देख पाते हैं और ना ही हम उनकी आवाज़ ही सुन सकते हैं।
एक दफा फिर से पढ़कर देखिए, मौला का ये कौल, जो उन्होंने उस वक्त कहा था, जब दुनिया ने इस बारे में दूर-दूर तक कोई तसव्वुर भी नहीं किया था, “उसके अलावा हर देखने वाला मख्रफी रंगों और लतीफ़ जिस्मों को देखने से नाबीना होता है।”