
असीराने हरम का यह नूरानी काफिला दमिश्क से मदीना की तरफ रवाना हुआ। सहराओं, दरियाओं, पहाड़ों से गुज़रता हुआ यह काफ़िला चलता रहा।
कुछ दिनों के बाद जब मदीने के बागात नज़र आने लगे और मदीने की दीवारें नज़र आईं तो जनाब उम्मे कुल्सूम ने एक निहायत बलीग और दर्द आमेज़ अश्आर हज़रत इमाम हुसैन रज़ि अल्लाहु अन्हु की शहादत पर पढ़ा। हम यहां सिर्फ दो अश्आर पर इक्तिफा करते हैं :
1. ऐ नाना के मदीना तो हम को कबूल न कर क्यों कि हम हसरतों और रंज व आलाम के साथ आए हैं।
2. जब तुमसे हम निकले थे तू घर भरा था और अब वापस आए हैं तो न मर्द साथ हैं और न ही बच्चे।
शाह अब्दुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह अलैह अपनी किताब ‘सिरुश्शहादतैन’ में यूं रकम्तराज हैं कि इमाम हुसैन रज़ि अल्लाहु अन्हु की शहादत और शहादत के मक्सद की तक्मील जनाब जैनब व उम्मे कुल्सूम से हुई। क्योंकि उन दोनों बहनों का सब्र व इस्तिक्लाल दरज-ए-कमाल को पहुंचा हुआ था। (सिरुश्शहादतैन)