सूफी रक़्स पर दलील

★ हज़रत अली (रादिअल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि मैं, जाफ़र और ज़ैद के साथ हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास गया। हुज़ूर ने ज़ैद से फ़रमाया कि तुम मेरे आज़ादकरदाह हो (अंता मौलाय)। जिसपर ज़ैद एक पैर पर उछाल-उछालकर (हजाला) हुज़ूर के चारों ओर (ख़ुशी) से घूमने लगे। उसके बाद हुज़ूर ने जाफ़र से फ़रमाया कि तुम मेरी तख़लीक़ और मेरे आदाब में मेरी याद दिलाते हो, जिसपर जाफ़र ने भी ज़ैद के पीछे उछलना शुरू कर दिया। उसके बाद हुज़ूर ने हज़रत अली से फरमाया कि तुम मुझसे हो और मैं तुमसे हूँ। इसके बाद आपने भी जाफ़र के पीछे वैसा ही करना शुरू कर दिया।

हवाला:-
[मुसनद अहमद बिन हम्बल, जिल्द 1, साफ नंबर 537, हदीस नंबर 857]

◆ इमाम बयहक़ी इस हदीस की शराह बयान् करते हुए फ़रमाते हैं कि इस हदीस से (ख़ुशी में) उछलने (या रक़्स करने) पर सहीह ‘सबूत’ और ‘जायज़ होना’ साबित होता है जिसमें (ख़ुशी से) खड़े हो जाना, या ख़ुशी में उछलना है, और ‘रक़्स करना’ भी इसी की तरह है जोकि जायज़ है- और अल्लाह ही इसके बारे में खूब जनता है।

हवाला:-
[सुनन अल-बयहक़ी अल-कुबरा, जिल्द 15, सफा नंबर 333]

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