मौला अली

मौला अली अलैहिस्सलाम की शसियत, आलम ए इस्लाम की वह मोजिजाती, आफाकी और करामाती शख्सियत है जिसकी फजीलत और अज़मत के कसीदे तारीख़ में मौजूद हैं। आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम, पैगम्बर ए इस्लाम मुहम्मद मुस्तफा सल्लललाहु अलैहे वसल्लम के दामाद, चचा-जाद भाई, हकीकी वारिस और वसी हैं। आप हज़रत फातिमा तज्-जहरा सलामुल्लाह अलैहा के शौहर हैं। आप अली अलैहिस्सलाम, इमाम हसन, इमाम हुसैन, जैनब और उम्मे कुलसुम के पिदर हैं ।

आपके वालिद का नाम हज़रत अबु तालिब यानी इमरान और आपकी वालिदा का नाम फातिमा बिन्त ए असद है।

तारीखों और हदीसों से पता चलता है कि आपकी तख़लीक नूर ए मुहम्मदी के साथ, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की ख्रिलकत से चौदह हजार साल पहले हो चुकी थी लेकिन इंसानी शक्ल में आपका ज़हूर, आपकी विलादत 13 रज़ब बरोज़ ए जुमा, खाना ए काबा में हुई. आपकी विलादत का साल हिज़रत के पहले से देखा जाए तो 21 BH है, अंग्रेजी तारीख़ के मुताबिक 600-601 है या यूँ कह सकते हैं आप 13 रज़ब 30 आमुल फील बरोज़ जुमा, फातिमा बिन्त ए असद के बतन से पैदा हुए।

आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम की परवरिश रसूल ए अकरम सल्लललाह अलैहे वसल्लम ने खद की। पैदा होते ही आप इमाम अलैहिस्सलाम को , आका सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने अपनी गोद मुबारक में लिया , मुँह में अपनी जुबान दी, लोआब ए दहन ए रसूल से सैराब होकर आप अली मुर्तजा, लहमका

ने इस्लाम कुबूल किया, हज़रत अब्दुल मुतालिब की औलादों ने इस्लाम जाहिर किया और इसी के बीच मेरे मौला, काबा में फितरत ए इस्लाम पर पैदा हुए.

लहमी के हकदार बन गए. रसूलुल्लाह के ऐलान ए नबूवत के बाद सहाबा रजिअल्लाह

“कुल्ले मौलूद यूलद अली फ़ितरतुल इस्लाम “

आप हज़रत अली पैदा होते से ही रसूलुल्लाह के साए में पले लेकिन वजहे ज़रूरत आपने दस साल की उम्र में ऐलान ए ईमान किया। मैदान एजंग में कामयाबिर पाकर आप कुल्ले ईमान भी बने।

आपकी कुन्नियत और अल्काब बे-शुमार हैं। कुन्नियत में अबुल हसन और अबुतुराब ज़्यादा मशहूर है। अल्काब में अमीरुल मोमिनीन, अली मुर्तजा, असद-उल्लाह, यदुल्लाह, हैदर ए कर्रार, मौला ए कायनात, नफूस ए रसूल, वसी ए रसूल, वलीयुल्लाह ज्यादा मशहूर हैं।

आपका रंग गंदुमी, आँखें बड़ी, सीने पर बाल, क़द मियाना, दादी घनी और बड़ी थीं। दोनों शानें, कोहनियाँ और पिण्डलियाँ पुर गोश्त थीं । शेर के कन्धों की तरह आपके कन्धों की हड्डियाँ चौड़ी थीं। आपकी गरदन सुराही-दार और आपकी शक्ल बहुत ही खूबसूरत थी। आप के लबों पर हमेशा मुस्कुराहट खिली रहती थी, आप खिजाब नहीं लगाते थे।

आप सल्लललाह अलैहे वसल्लम ने कभी हज़रत अली को अपनी नफ्स कहा, कभी सैयदुल अरब कहा, कभी सैयदुल मोमिनीन कहा, कभी सैयदुल मुतकीन कहा तो कभी सैयदुल मुरसलीन कहा। आप आका सल्लललाहु अलैहे वसल्लम, अम्मा फातिमा तज-ज़हरा को सैयदुन्निसां-अल-आलेमीन कहा करते थे। इतना ही नहीं आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम, मौला अली अलैहिस्सलाम और फातिमा तज्-ज़हरा की औलादों को, आपके दो बेटों को सैयद-शबाब-ए-अहले-जन्नत के अल्फाज़ से याद करते थे।

इस्लाम के लिए मेरे मौला ने जो भी किया वह बयान नहीं किया जा सकता फिर भी हम अपनी औकात और जर्रा बराबर इल्म के मुताबिक लिखने की कोशिश कर रहे हैं

• शब ए हिज़रत के दौरान, आप अली अलैहिस्सलाम, फर्श ए रसूल पर सोए और इस तरह आपने इस्लाम की किस्मत बेदार कर दी। आपने अपनी जान को जोखिम में डालकर भी कई दिन गार में खाना पहुँचाया।

• दावत ए जुलअशीरा के मौके पर जब हज़रत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहे वसल्लम को तकरीर करने से रोकने की साज़िशें रची जा रही थीं, आपने ऐसी जुर्रत और हिम्मत का मुजाहेरा किया कि पैगम्बर ए इस्लाम मुहम्मद मुस्तफा सल्लललाहु अलैहे वसल्लम कामयाब हो गए और इस्लाम को बुलंदी मिल गई।

. जंग ए बद्र में जब सिर्फ तीन सौ तेरह मुसलमान थे और कुफ्फार बेशुमार थे। आपने अपने कमाल ए जुर्रत और हिम्मत से कामयाबी दिलाई।

जंग ए ओहद के मौके पर जबकि बहुत सारे मुसलमान यानी सहाबा । रजिअल्लाह, सरवर ए कायनात सल्लललाहु अलैहे वसल्लम को ? मैदान ए जंग में छोड़कर भाग गए, उस वक्त भी मौला अली अलैहिस्सलाम ने रसूल ए अकरम सल्लललाहु अलैहे वसल्लम की जान बचाई और इस्लाम की इज्जत भी महफूज़ कर ली।

• कुफ्फार जिनके दिलों में बदले की आग भड़क रही थी, उमरो बिन अब्द वुद”जैसे बहादुर को लेकर मैदान में आ पहुँचे और इस्लाम और ईमान वालों को ललकारने लगे। पैगम्बर ए इस्लाम परेशान थे और मुसलमानों को बार-बार उभार रहे थे लेकिन किसी ने उस से लड़ने की हिम्मत नहीं की, सिर्फ़ अली मुर्तजा निकले और जालिम को शिकस्त दी। ये वाक्या ऐसा था कि इसके बाद खुद रसूल ए खुदा सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने कह दिया,” आज अली की एक ज़र्बत इबादत एसकलैन से बेहतर है।

खैबर में भी जब ३९ दिन तक कोई खैबर फत्ह ना कर सका। जहाँ बात सिर्फ शुजाअत की ही नहीं बल्कि सदाक़त की भी थी, वहाँ भी मौला अली अलैहिस्सलाम ने मरहब को हराकर, खैबर को उखाड़कर इस्लाम पर एहसान कर दिया।

आपके सबसे बड़े दो एहसान तो ये हैं कि आपने वफात ए रसूल सल्लललाहु अलैहे वसल्लम के बाद हर दुख भरे वाक्यात को सहा, सब्र किया लेकिन तलवार ना उठाई वरना इस्लाम शायद अपनी मंजिल ए अव्वल पर ही ख़त्म हो जाता। दूसरा सबसे बड़ा एहसान आपका ये है कि कभी हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम, कभी हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, कभी हज़रत अब्बास गाज़ी जैसे बेटे दिए जिनके दम से इस्लाम बका पा गया और ये सिलसिला औलाद से औलाद चलता ही रहा।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम, बहुत ही खुश-अख़्लाक थे। आप रौशन रु और कुशादा पेशानी रहा करते थे। यतीमों को नवाज़ना, मज़लूम की आवाज़ बनना, मुफ्लिसों का ख्याल रखना आपकी आदत में शुमार था। फकीरों में बैठकर आपको खुशी मिलती थी। मोमिनों के बीच खुद को हकीर और दुश्मनों के बीच खुद को बा-रौब रखते थे। जब आप इबादत करते तो तन्हाई में रो रोकर रब के सामने खड़े होते और बड़ी ही इज्जत ओ अदब के साथ रब की इबादत किया करते थे। घर के कामों में मदद करते, मेहमान-नवाजी खुद किया करते थे। आप कभी मजदूरी करते तो घर की ज़रूरत पूरी करने के साथ-साथ कुछ पैसों से गुलामों को भी आजाद करवाते। जुल्म आपको पसंद नहीं था। अपने सारे काम आपखुद करना पसंद करते थे। एक खास बात ये भी थी कि आप हर रोज़ दुनिया को तीन तलाक़ दिया करते थे यानी दुनिया में रहते हुए, दुनिया को खुद से दूर रखा करते थे।

अगर आप कुरआन मजीद पढ़कर देखें तो पाएँगे कि तमाम अम्बियाओं के जानशीन, रब ने खुद मुकर्रर फरमाए हैं, रब ने किसी नबी को भी ये हक़ नहीं दिया कि वह बतौर खुद अपना जानशीन मुकर्रर कर दे। तो ये बात याद रखें कि जांनशीन बनाने का हक़ सिर्फ खुदा को है।

अब बात करते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम का वसी कौन है? आपका जानशीन कौन है?

यौम ए जुमा, १८, जिल्-हिज्जा, १० हिज़री, बामुकाम ए ग़दीर-एखुम, आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने, एक लाख चौबीस हजार असहाब की मौजूदगी में, हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त, विलायत, इमामत और मौलाईयत का ऐलान ए आम किया (कुछ लिखने वालों ने अलग तरह से लिखा है लेकिन इस वाक्ये में किसी को इखूतिलाफ़ नहीं है)

पहले के दौर में लोग कहा करते थे कि इल्म और शुजाअत एक जगह जमा नहीं होती लेकिन मेरे मौला अली अलैहिस्सलाम ने इस कौल को भी ग़लत साबित कर दिया। आपका जिक्र हो और आपकी शुजाअत की बात ना हो तो जिक्र अधूरा लगता है, ठीक ऐसे ही आपकी शुजाअत की बात हो और आपके इल्म की बात ना हो तो भी जिक्र मुकम्मल नहीं होता।

आपने जितनी बहादुरी मैदान ए जंग में दिखाई, उतनी ही बुलंदी इल्म के मामले में भी पाई. आपको इस उम्मत का पहला आलिम और पहला मुसन्ज़िफ़ कहना गलत नहीं होगा, आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने, नबी ए पाक सल्लललाहु अलैहे वसल्लम से इस तरह तालीम ओ तर्बियत पाई कि खुद रसूल ए पाक़ ने फरमा दिया, “मैं इल्म का शहर हूँ और अली उसका दरवाज़ा है।”

तो आप मौला अली के लिए रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने फरमाया, “अना मदीनतुल इल्म व अलीयुन बाबोहा” यानी “मैं इल्म का शहर हूँ और अली उसका दरवाजा है।” , तो कभी आप हज़रत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने फरमाया, “अना दारुल हिकमते व अलीयुन बाबोहा” यानी “मैं दारुल हिकमत हूँ और अली इसका दरवाज़ा हैं।”

आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने भी खुद इस बात का इज़हार किया, एक मौके पर आपने फरमाया, “जकनी रसूलुल्लाह ज़कन ज़कन” यानी “मुझे रसूलुल्लाह ने इस तरह इल्म भराया है जिस तरह कबूतर अपने बच्चे को दाना भराता है।”

एक मंजिल पर आप अली अलैहिस्सलाम ने कहा, “सलूनी क़ब्ल अन तफ़क़दूनी” , मेरी ज़िन्दगी में जो चाहे पूछ लो वरना फिर तुम्हें इल्मी

मालूमात से कोई बहरावर करने वाला न मिलेगा।

एक मुकाम पर आपने फरमाया कि “अगर मेरे लिए मसन्दे कजा बिछा दी जाए तो मैं तौरात वालों को तोरात से, इन्जील वालों को इन्जील से, ज़बूर वालों को ज़बूर से और कुरआन वालों को कुरआन से जवाब दे सकता हूँ कि उनके उलेमा हैरान रह जाएँगे।”

के एक दिन आपने फरमाया कि “आसमान के बारे में मुझसे जो चाहो पूछ लो कि मैं ज़मीन से ज्यादा, आसमान के रास्तों को जानता हूँ।”, एक मौके पर आपने यहाँ तक फरमाया कि “खुदा कि कसमा मुझे इल्म है कि कुरआन की कौन-सी आयत कहाँ नाज़िल हुई है और मैं ये भी जानता हूँ कि खुश्की में कौन-सी नाज़िल हुई है और तरी में कौन-सी नाज़िल हुई है, कौन-सी दिन में और कौन-सी आयत रात में नाज़िल हुई है।”

एक वाक्या और आप सबके सामने रखना चाहूँगा। एक शब इब्न ए अब्बास रज़िअल्लाह ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ख़्वाहिश की कि बिस्मिल्लाह की तफ़सीर बयान फरमाएँ, आपने सारी रात तफ्सीर बयान फरमाई और जब सुबह हो गई तो फरमाया, “ऐ इब्ने अब्बास! मैं इसकी तफ्सीर इतनी बयान कर सकता हूँ कि ७० ऊँटों का बार हो जाए, बस मुख्तसर ये समझ लो कि जो कुछ कुरआन में है वह सूरए हम्द में है और जो सूरए हम्द में है, वह बिस्मिल्लाह हिर्रहमानिर्रहीम में है, जो कुछ बिस्मिल्लाह में है, वह बाए बिस्मिल्लाह में है और जो बाए बिस्मिल्लाह में है, वह नुक्ताए बाए बिस्मिल्लाह में है।”

आगे आपने फरमाया, “व अनल नुक्तल लती तहतल बा यानी आपने इब्ने अब्बास रजिअल्लाह से कहा, “मैं वही नुक्ता हूँ जो बिस्मिल्लाह के बे के नीचे दिया जाता है।” , सुनकर इब्ने अब्बास रजिअल्लाह ने कहा, “खुदा की कसम, मेरा और तमाम सहाबियों का इल्म, अली अलैहिस्सलाम के मुकाबले में इतना है जैसे समुंदरों के

मुकाबले में पानी का एक कतरा।”

कुमैल इब्ने ज़्याद से हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया, “ऐ कुमैल! मेरे सीने में इल्म के ख़जाने हैं, काश कोई अहल मिलता कि मैं उसे तालीम कर देता।”

आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहा करते थे कि मुसलमान को चाहिए कि इतना कम खाए कि भूख से उनके पेट हल्के रहें और इतना कम पियें कि प्यास से उनके पेट सूखे रहें और खुदा के खौफ में इतना रोयें कि आँखें जखमी रहें।

अगर आप तारीख़ उठाकर देखेंगे तो पाएँगे हज़रत उमर रज़िअल्लाह, हज़रत उस्मान रज़िअल्लाह और काफी सारे सहाबा रज़िअल्लाह, आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मशवरा लेने आते थे, आप जिसे जो बता देते वह अटल साबित होता। जब आप ख़लीफा बने तब आपने सियासत इस तरह से की जिस तरह से हुक्म ए खुदा और हुक्म एरसूल में कहा गया है।

आप अल्लाह, रसूलुल्लाह और दीन से बेइंतहा मुहब्बत करते थे। इल्म, हिकमत, शुजाअत, सदाक़त, अदल के मामले में दूर-दूर तक कोई आपका सानी नहीं मिलता।

आजकल देखता हूँ कि लोग हक़ छिपाने की कोशिश करते हैं। मैं कभी नहीं कहता कि किसी को गलत कहो लेकिन जब आप सही को भी सही कहना छोड़ देते हो या दो आमने-सामने खड़े लोगों में दोनों को हक़ पर बताने लगते हो तो आप बहुत बड़ी गलती कर रहे होते हो। ये ही वजह है कि आज की नस्लों में सही-गलत, हलाल-हराम समझने की तमीज़ ख़त्म होती जा रही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मुकाबले जब भी कोई जंग करने आया तो अली हक़ पर थे और सामने वाला गलत था, चाहे जंग-ए-जमल हो, जंग-ए-सिफ्फीन या जंग-ए-नहरवान

लेकिन अफ़सोस तो इस बात का होता है कि आज हज़रत अली अलैहिस्सलाम को गाली देने वाले, उनसे जंग करने वाले, उनके आशिकों को शहीद करवाने वाले, खुत्बों में अली को बुरा कहलवाने वाले, कत्ल ए उस्मान का इल्जाम, अली पर डालने वाले, सुलह ए हसन को तोड़ने वाले और यजीद के हक़ में बैत लेने वाले शखस को भी ना सिर्फ सहाबा कहा जाता है बाकि बहुत सारे उलेमा बे-खता तक कहने से नहीं चूकते हैं। हद तो ये है कई आलिम उस शख्स को हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बराबर में तकरख देते हैं।

आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ना सिर्फ कुफ्फारों से जंग की बल्कि खारिज़ियों के साथ-साथ उन मुनाफ़िकों से भी जंग की जो ईमान का चोला ओढ़कर उम्मत को धोखा देते थे।

आप अली अलैहिस्सलाम को कत्ल करने की साज़िशें तो शुरू से ही होती आ रही थीं लेकिन किसी इंसान की इतनी औकात नहीं थी कि अल्लाह के शेर पर वार कर सके। जब आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर बुढ़ापा आया, आप जाहिरन कमजोर हो गए तब भी दुश्मन ने हिम्मत ना की और आपको मारने के लिए नमाज़ का वक्त चुना।

४०हिज़री थी, रमजान का महीना था, जब उन्नीसवीं शब में आप मस्जिद के अंदर इबादत में मश्गूल थे, फिर आपने खुद अजान दी और नमाज़ के लिए लोगों को पुकारा, हद तो ये आपने खुद इब्ने मुल्जिम को जगाया, बाद में जब आप नमाज़ अदा करा रहे थे तब आप के सर मुबारक पर इब्ने मुल्जिम ने जहर से बुझी हुई तलवार मारी, जिसके बाद आप २१ रमजान को दुनिया से पर्दा कर गए।

कुछ लोग ये अफ़वाह उड़ाते हैं कि शिया, अली को अल्लाह मानते हैं, कुछ कहते हैं कि अहले तशय्यो, अली को नबी मानते हैं। जबकि मैंने जब पढ़ तो पाया कि शिया तो अली को वलीयुल्लाह कहते हैं, वसी ए रसूल कहते हैं। हाँ नुसेहरी अली को खुदा कहते हैं लेकिन नुसेहरी शिया नहीं होते, ठीक ऐसे ही जैसे कादियानी, सुन्नियों से निकलकर भी सुन्नी नहीं हैं। अब सवाल ये है कि क्या अली ही खुदा हैं?

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने खुत्बतुल बयान में या रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे व आलिही वसल्लम ने अपनी हदीसों में किसी भी जगह हज़रत अली अलैहिस्सलाम की जात को खुदा या इलाहा नहीं फरमाया। बल्कि आप अली अलैहिस्सलाम, इतनी फजीलतों, कुव्वतों, अज़मतों में “अली” होते हुए भी, बारगाह ए इलाही में बड़ी ही इज्जो बंदगी के साथ यह दुआ करते थे

“इलाही कफा बी इज्ज़न अन अकूना लका अब्दन वकफा बी फख़रन अन तकूना ली रब्बन अन्ता कमा उहिब फ़जझल्नी कमा तोहिब” , यानी, ” ऐ मेरे मअबूद! मेरी इज्ज़त के लिए ये ही काफी है कि मैं तेरा बंदा हूँ और मेरे फख्र के लिए ये काफी है कि मेरा रब तू है। तू वैसा है जैसा रब मैं पसंद करता हूँ। पस जैसा बंदा तुझे पसंद है, वैसा मुझे बना ले।

अब जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम खुद को बंदा कह रहे हैं, ऐसे में उन्हें खुदा कहना दरअसल, हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सदाकत पर हमला करना है और मौला का मानने वाला उन्हें कभी झूठा नहीं मान सकता। जो जाहिल लोग, मौला अली अलैहिस्सलाम को खुदा कहते हैं वह असल में कुरआन के भी मुन्किर हैं क्योंकि

कुरआन की सूरः अन्आम की आयत १०३ में अल्लाह रब उल इज्जत फरमाते हैं-“ला तुदरेकोहल अबसार” यानी उसको निगाहें नहीं देख सकती। जबकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को लोगों ने देखा है।

इसी तरह कुरआन में सूरः इखलास में आता है “लम यलिद वलम यूलद” यानी ना उसकी कोई औलाद है और ना वह किसी की औलाद है।” जबकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हसनैन समेत कई बेटे और बेटियाँ थे, आप साहिब ए औलाद भी थे और आपके वालिद भी थे जिन्हें लोग अबु तालिब के नाम से जानते हैं।

कुरआन में सूरः बकर की आयत २५५ जो आयतुल कुर्सी कहलाती है उसमें आता है “ला ताखोजोह-सिनतुन वला नौमुन” यानी उसको ना ही ऊँघ आती है और ना ही नींद। जबकि मौला अली अलैहिस्सलाम ने खुद फरमाया कि मैं शब ए हिज़रत की रात रसूलुल्लाह के बिस्तर पर इतनी गहरी नींद सोया, जितनी पहले कभी नहीं सोया था।

लिहाजा, हज़रत अली को खुदा मानने वाले गुमराही में हैं और वह ही हैं जिनके बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाया करते थे कि एक जमआत, मेरी मुहब्बत में हद से ज़्यादा बढ़कर भी हलाक़ होगी।

मेरा अल्लाह एक है, वह ही माबूद है। हज़रत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहे वसल्लम अल्लाह के हबीब हैं और रसूल हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम बंदा ए अल्लाह हैं, वसी ए मुहम्मद हैं, गुलाम ए मुहम्मद हैं, वफादार ए मुहम्मद हैं।

अल्लाह और रसूलुल्लाह के बाद हम हज़रत अली अलैहिस्सलाम, उनकी जौजा फातिमा सलामुल्लाह अलैहा, उनके बेटे हसनैन अलैहिस्सलाम और फिर अहलेबैत अलैहिस्सलाम की मुहब्बत अपने ऊपर फर्ज़ समझते हैं।

मुझे ताज्जुब होता है और फख्र भी, मुसलमानों की अपने नबी सल्लललाहु अलैहे वसल्लम से मुहब्बत देखकर। आका की एक आवाज पर गैब पर ईमान ले आए।

जब मेरे आका सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने ऐलान ए नबूवत किया और कहा कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ, मुसलमानों ने माना। आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने फरमाया कि अल्लाह एक है लेकिन दिखाया नहीं, फिर भी मुसलमानों ने माना।

आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने कहा तुम सब आदम अलैहिस्सलाम की औलाद हो, लोगों ने माना। आप सल्लललाहु अलैह वसल्लम ने कहा मेरे पास जिब्राईल आते हैं लेकिन कभी दिखाया नहीं फिर भी मुसलमानों ने माना।

रसूलुल्लाह ने सारे नबी मनवाए, किताबें मनवाईं, अरकान मनवाए, नमाज़ के तरीके से लेकर, हज़ के तरीके तक सब मनवाया और लोग बिना देखे सिर्फ अपने आका की बात पर मानते चले गए।

यहाँ तक आप सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने मेराज़ पर जाने का पूरा वाक्या बयान किया, ना जन्नत दिखाई, ना दोज़ख़ पर मनवाई और लोगों के ईमान को सलाम की लोगों ने मान लिया। हश्र के दिन से लेकर पुलसिरात तक सब माना। यहाँ तक एक वाहिद खुदा को बिना देखे मानकर सज्दा भी कर दिया।

सलाम है इस मुहब्बत पर लेकिन अफसोस की बात ये है कि रसूलुल्लाह ने गदीर पर जिसके दोनों हाथों को थामकर, हाथों को बुलंद फरमाकर, दिखाकर जिसे मनवाया, लोगों ने बस उसे ही नहीं माना या माना भी तो उस हद तक नहीं माना जिस हद तक मानने का हुक्म था।

हमने तौहीद तो समझी, रिसालत भी समझी मगर विलायत को भुला दिया। अगर आप अल्लाह और रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम के बताए तरीके पर चलने वाला मोमिन बंदा देखना चाहते हैं तो तारीख़ में बहुत नाम मिलेंगे लेकिन मौला अली अलैहिस्सलाम के जितना हक़ पर चलने वाला, अल्लाह का बंदा और मुहम्मद सल्लललाहु अलैहे वसल्लम का सच्चा वफादार दूर दूर तक नहीं मिलेगा।

खामोश है तो लगता है इस्लाम अली है बोल पड़ता है तो लगता है कुरआन अली है

हम सब का दावा की ईमान हमारा ईमान का दावा है की ईमान अली है

वसी ए मुहम्मद है वो, इमामों का इमाम विलायत है उसकी वलियों का सुल्तान अली है

ज़हरा बतूल तोहफा हैं, रब का नबी के वास्ते ज़हरा भी कहती है की मेरी जान अली है

रब के हुक्म से काबा बना है, खुदा का घर उस घर के अंदर देख लो मेहमान अली है

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