
क़त्ले हुसैन व अहले बैत महज़ एक जुर्मे क़त्ले इंसानी है या जुर्मे अज़ियते नबी ﷺ है????
क़ुरआन में सूरह अहज़ाब में अल्लाह मुसलमानों से कह रहा है कि बग़ैर इजाज़त नबी के घर में दाख़िल होना नबी को अज़ियत देता है.
खाना खाने के बाद देर तक नबी के घर में बैठे रहना कि हुज़ूर इंतिज़ार करें तुम्हारे जाने का, यह मेरे नबी को अज़ियत देता है.
अज़वाजे मुतहरात से अगर कुछ मांगना हो तो पर्दे के पीछे से मांगा करो, तुम्हारा पर्दे के बग़ैर कोई चीज़ मांगना भी मेरे नबी के लिये अज़ियत है.
तुम्हारे लिये हलाल नहीं है कि तुम मेरे नबी को अज़ियत दो.
तुम्हारी इतनी सी बात भी मेरे नबी को अज़ियत देती है और यह अल्लाह को गवारा नहीं.

नबी को अज़ियत देना अल्लाह को अज़ियत देना है. जैसे नबी से मुहब्बत अल्लाह से मुहब्बत, नबी की अताअत अल्लाह की अताअत, नबी की नाफ़रमानी अल्लाह की नाफ़रमानी, नबी का अदब अल्लाह का अदब, वैसे ही नबी को अज़ियत अल्लाह को अज़ियत.
नबी को अज़ियत देने वाले पर हुक्म क्या है?
दुनिया व आख़िरत में अल्लाह की लानत है, उसको अल्लाह ने मलऊन कर दिया और उसके लिये अज़ाबे मुहीन (ज़िल्लत वाला अज़ाब) है.

क़ुरआन में कहीं ज़िक्र आता ‘अज़ाबे अज़ीम’, कहीं ज़िक्र आता है ‘अज़ाबे अलीम’ और कहीं ज़िक्र आता है ‘अज़ाबे मुहीन’. जिसका जैसा जुर्म उसके लिये वैसा अज़ाब. क़ुरआन के तालिबे इल्म बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि इन तीनों अज़ाब में सबसे शदीद तर और सख़्त अज़ाब, ‘अज़ाबे मुहीन’ है, जो अल्लाह सिर्फ़ सरकश काफ़िरों पर नाज़िल करने के लिये इस्तेमाल करता है. इसका मतलब नबी को अज़ियत देने वालों को अल्लाह वह अज़ाब देगा जो सरकश काफ़िरों को देता है.

अब आईये हुसैन व अहले बैत के तअल्लुक़ से नबी की मुहब्बत देखें, नबी की मवद्दत देखें, हुज़ूर के क़ल्बे अतहर में उनका मुक़ाम व मर्तबा क्या है. हुज़ूर की रूह में क्या है, उनके एहसासात में क्या है, उनके जज़बात में क्या है, उनकी कैफ़ियात में क्या है. हुसैन अगर रोते तो हुज़ूर तड़प जाते, हुसैन को गोद में उठाने के लिये हुज़ूर अपना ख़ुतबा छोड़ देते, हुसैन अगर हुज़ूर की पुश्त मुबारक पर सवार हो जाते तो हुज़ूर काफ़ी देर तक सजदे से न उठते. हुज़ूर ने उम्मत को बताना चाहा कि मेरी मुहब्बत जो हुसैन से है वह अल्लाह के हुज़ूर कैफ़ियते सजदे से भी ज़्यादा है मुझे. अल्लाह के हुज़ूर सजदा रेज़ी में भी मैं नहीं चाहता कि हुसैन को इतनी तकलीफ़ हो जाए कि वह मुझसे मुहब्बत में मेरी पीठ पर सवार हो जाए और मैं उसे नीचे उतार दूँ. इमाम हुसैन की मुहब्बत को यह दर्जा दिया है हुज़ूर ने, उनको इतनी सी अज़ियत गवारा नहीं. और कर्बला में हुसैन व उनके घरवालों को दुश्मनों ने घेरकर बेरहमी से क़त्ल किया, औरतों और बच्चों को भी न छोड़ा. हज़रत हुसैन की गर्दन काटकर उसे नेज़े पे उठा कर पूरे शहर में घुमाया गया, उनकी मौत पर जश्न मनाया गया, उनके जिस्म पर घोड़े दौड़ाए गए. यह सब पढ़ कर, सुन कर कोई यह कहे कि यह नफ़्से इंसानी के क़त्ल का मामला है.
انا للہ وانا الیہ راجعون
कर्बला में शहादते हुसैन और शहादते अहले बैत को क़त्ल ए इंसानी के जुर्म के हुक्म में नहीं देखा जाएगा बल्कि अज़ियत ए नबी के हुक्म में देखा जाएगा.

जो लोग नबी को अज़ियत देना चाहते हैं वह चाहे नबी की ज़ात की निस्बत से हो, चाहे वह नबी की औलाद की निस्बत से हो, चाहे वह नबी की अहले बैत की निस्बत से हो, जिनके बारे में हुज़ूर ने फ़रमा दिया कि जिसने इनको अज़ियत दी उसने मुझे अज़ियत दी. और नबी को अज़ियत देने वालों के लिये काफ़िरों वाला अज़ाब मुक़र्रर कर दिया गया है. फिर क़ुरआन का सरीह हुक्म आ जाने के बाद अज़ियत देने वाले के लिये ईमान और तौबा के इमकानात ढूंढना और फ़ेल ए हराम और फ़ेल ए कुफ़्र के फ़र्क़ को ढूंढना, हुसैन व अहले बैत के क़ातिल के लिये हमदर्दी ज़ाहिर करना, उसके लिये तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम करना, उसको जन्नती साबित करना हैरत की बात है.

लोगों को क्या हो गया है, क्या वह नबी के इतने बेवफ़ा हो गए हैं ? हुज़ूर से इतनी भी हया न रही, हुज़ूर से इतने ग़ैर हो गए हैं. क्या वो हुज़ूर के वो फ़रमूदात भी भूल गए हैं जो हुज़ूर ने अपनी अहले बैत और अपने बेटे हसन व हुसैन के लिये फ़रमाए थे.