
एक अल्लाह के वली और नमाज़
हज़रत जुनेद बग़दादी رضی الله عنہ
अपने बचपन का एक वाक़िआ बयान फ़रमाते हैं कि मेने एक दफ़ा एक ऐसे अल्लाह के बन्दे को देखा जो नमाज़ की हालत में हैं और उनपर इस दर्जा मेहवियत और इस्तिग़राक़ की कैफ़ियत तारी थी कि एक बिच्छू ने चालीस मर्तबा उन्हें डंग मारा लेकिन बावजूद सख़्त तकलीफ़ व अज़यत के उन्होंने इसी हाल में नमाज़ मुकम्मल की जब वो नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो मेने अर्ज़ किया अब्बा जान आपने नाहक़ इतनी तकलीफ़ बर्दाश्त की आप बिच्छू को अपने हाथ से हटा देते तो इस तकलीफ़ से बच सकते थे तो उस आरिफ़ ने जवाब दिया बेटा अभी तुम छोटे हो जब बड़े होगे तो तुम्हारी समझ में आएगी के जब कोई अल्लाह के काम में लगा हो तो उसे अपने हाल की ख़बर नहीं होती,
हज़रत दाता गंज बख़्श रज़ी अल्लाहु अन्ह, हज़रत जनेद बग़दादी
और बहुत से दूसरे बुज़ुरगाने दीन के अहवाल में असहाबे सैर ने लिखा है कि उन्होंने फ़र्ज़ इबादत के अलावा ज़िन्दगी भर कसरत से नवाफ़िल और वज़ाइफ़ की अदाएगी को तवातुर के साथ अपना मामूल बनाए रखा यहाँ तक की उनपर बुढ़ापा वारिद हो गया और जिसमानी ताक़त ने जवाब दे दिया लेकिन बावजूद बुढ़ापे और कमज़ोरी के उन्होंने अपने मामूलाते बन्दगी को तर्क करना गवारा नहीं किया बल्कि आख़िरी दम तक नफ़्स को मशक़्क़त में डालकर मुजाहिदे और रियाज़त की राह को अपनाए रखा अगर कोई उन्हें पूछता, के या हज़रत इस उम्र में अपनी जान को ना क़ाबिले बर्दाश्त मशक़्क़त में क्यों डाले हुए हैं? और यह नफ़ली इबादतें तर्क क्यों नहीं कर देते? तो वो जवाब देते के हमें यह मुक़ाम जिस मुजाहिदे की बदोलत नसीब हुआ-उसे उम्र के इस हिस्से में छोड़ते हुए हमें हया आती है
ज़िक्र और इबादत में मुदाविमत हमेशा अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल के बन्दों का शेवह रहा