टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसा योद्धा भी था जिसकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए. इस पराक्रमी योद्धा का नाम टीपू सुल्तान था. टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया था.
टीपू सुल्तान का जीवन
टीपू सुल्तान का जन्म मैसूर के सुल्तान हैदर अली के
घर 20 नवम्बर, 1750 को देवनहल्ली में हुआ. वर्तमान में यह जगह बैंग्लोर सिटी के उत्तर से 30 किलोमीटर दूर है. टीपू सुल्तान का पूरा नाम फतेह अली टीपू था. उनके पिता हैदर अली मैसूर राज्य के सैनिक थे. उन्होंने बहुत ही जल्दी दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ कर दिया था. इस कारण अंग्रेजों के साथ-साथ निजाम और मराठे भी उसके शत्रु बन गए थे. शुरुआत से ही हैदर अली ने अपने पुत्र टीपू सुल्तान को काफी मजबूत बनाया और उन्हें हर तरह की शिक्षा दी.
टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था. टीपू काफी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर थे. अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुके और अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया. मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की. उन्होंने अंग्रेजों ही नहीं बल्कि निजामों को भी धूल चटाई. अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया. मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया.
फिर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर हमला किया तब अपनी कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता में कमी की वजह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. आखिरकार 4 मई सन् 1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए शहीद हो गया.
मैसूर के शेर के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान न सिर्फ बहादुर थे बल्कि एक कुशल योजनाकार भी थे. उन्होंने अपने क्षेत्र में छोटे से शासनकाल में विकास के अनेक कार्य किए. टीपू सुल्तान ने कई सड़कों का निर्माण कराया और सिंचाई व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम किए. उन्होंने जल भंडारण के लिए कावेरी नदी के उस स्थान पर एक बांध की नींव रखी, जहां आज कृष्णराज सागर बांध’ मौजूद है. टीपू ने अपने पिता द्वारा शुरू की गई ‘लाल बाग परियोजना’ को सफलतापूर्वक पूरा किया. उन्होंने आधुनिक कैलेण्डर और नई भूमि राजस्व व्यवस्था की भी शुरुआत की.
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book : इतिहास के साथ यह अन्याय!! प्रो. बी. एन. पाण्डेय–भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा एवं इतिहासकार उडीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विश्म्भरनाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतांतों को उजागर किया है जिनसे भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है।
इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है।जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपु सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-ऐसोसिएशन‘ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया।ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे।उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पडी।मैंने टीपु सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
‘‘तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. परप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाघ्यक्ष थे।मैंने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपु सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है।कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर‘ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है।मैसूर गज़टियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइबे्ररी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका।तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है उसके बारे में जानकारी दें।उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री मन्टइया के पास भेज दिय